सोमवार, 15 जून 2020

परिवर्तन से परे

 सिर्फ़ अभिनेता नहीं था, सपनों के सच होने की आशा था सुशांत

- अंकित नवआशा

#सुशांत की मृत्यु हो गयी। कैसे हुई, ये उन्हें पता लगाने दीजिए जिनका काम है। अब ये हुआ है कि सारे अभिनेता, अभिनेत्री, निर्माता, निर्देशक, क्रिकेटर उनसे जुड़ी अपनी अपनी यादें तस्वीरों के जरिये साझा कर रहे हैं। लेकिन हम प्रशंसकों के हिस्से तो ऐसी कोई यादें नहीं होती। इसलिए हमारे जिससे प्रशंसा होती है, निराशा होती है और होती है बहुत सारी अधूरे छूट चुके अरमान। सुशांत मेरे लिए आगे बढ़ने की आशा थी, उसकी फिल्में हो सकता है फ़िल्म जगत की सर्वश्रेष्ठ ना हो, हो सकता है वो सर्वश्रेष्ठ अभिनेता ना हो लेकिन उसकी प्रतिभा, लगन और विश्वास के तो सब कायल थे। वर्तमान में सक्रिय जितने भी अभिनेता हैं उनमें कितनों की AIEEE की रैंकिंग 7 रही होगी, कितने लोग खगोल विज्ञान, भौतिक विज्ञान की बातें करते हैं, कितने हैं जो संघर्ष करके सीरियल, डांस कम्पनी, और फिर फिल्मों में आये? होंगे लेकिन कितने?

वर्तमान में सक्रिय सभी कलाकारों की कहानियां हैं, संघर्ष की। लम्बा, बहुत कुछ सहते हुए भी। लेकिन "काई पो चे" जब आयी तो राजकुमार राव और मानव कॉल जैसे अभिनेताओं के होते हुये भी सुशांत ने वाहवाही लुटी, अपने अभिनय से, अपनी उपस्थिति से। फ़िल्म के लिए उसने अवार्ड भी जीते। जिस दौर में आज का छोटे शहर के किरदार जीवंत कर देने वाला आयुष्मान खुराना फिल्मों में चरित्र से अधिक मॉडल लगता था उस वक़्त काइ पो चे में सुशांत राजकुमार और अमित ने छोटे शहर के लड़कों को जीवंत कर दिया था। उनके हाव भाव, उनका पहनावा, और उस पर से उनके किरदार की गहराई ने पर्दे पर छोटे शहर को अलग किरदार बना दिया था।
शुद्ध देसी रोमांस थोड़ी कमजोर थी लेकिन फिर छोटे शहर के लड़के के रोल में सुशांत ने जान डाल दी थी। लेकिन सुशांत कुछ भी लगातार नहीं करते रहना चाहते थे, वो पीके में पकिस्तान के सरफ़राज़ बने, फिर वो बने जासूस ब्योमकेश बक्शी। वो फ़िल्म जिसने मेरे लिए सुशांत को लेकर सारी अटकलें शांत कर दी, सिद्ध कर दिया ये सिर्फ अगला शाहरुख नहीं है, ये उसके आगे का कोई है। आप फ़िल्म देखिए फिर समझ आएगा इसने क्या मेहनत की, क्या किरदार निभाया है। 28 की उम्र में धोती, मूँछ लगाकर क्या चुनौती कबूल की। फ़िल्म ज्यादा चली नहीं। लेकिन सुशांत ने सिद्ध किया कि वो अवसर मिलने पर क्या कर सकता है। अब तक फिल्मों के लिए तैयारी, मेहनत करना इतना पॉपुलर नहीं था। आमिर खान करते। बाकी ज्यादा कोई नहीं, अजय देवगन एक ही मूँछ में 5 फिल्में कर लेते तो अक्षय कुमार एक ही फ़िल्म में 4 हेयर स्टाइल के साथ काम चला लेते। फिर आयी फ़िल्म धोनी द अनटोल्ड स्टोरी। हालांकि उस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं था जो अनटोल्ड हो लेकिन सुशांत ने अपने दम पर वो फ़िल्म देखने लायक बना दी थी। उसने जिस स्तर की मेहनत की वो सच मे अद्भुत था। फ़िल्म में चौके छक्के के अतिरिक्त जितना कुछ था वो सुशांत थे। वो सुशांत का धोनी बनना ही था कि रणवीर सिंह आज कल कपिल देव बने घूम रहे हैं, वरना अज़हरुद्दीन तो इमरान हाशमी भी बने ही थे। लेकिन एक फ़िल्म जिसने मुझे सुशांत का मुरीद बना दिया वो थी "सोनचिड़िया"। मनोज बाजपेयी, रणवीर शौर और आशुतोष राणा जैसे कलाकारों के होते जो सुशांत ने फ़िल्म में अपनी जगह बनाई, किरदार निभाया वो अद्भुत था। उनकी ये फिल्में साबित करती हैं कि सुशांत एक काबिल अभिनेता, बेहतरीन डांसर, विचारवान व्यक्ति और सजग व संजीदा कलाकार भी थे। लेकिन फिर क्या हुआ?
ये कि यह इंडस्ट्री बहुत देर से अवसर देती है, अवसर दे भी दिया तो स्वीकृति बहुत देर से देरी है, स्वीकृति हो भी गयी, एक हिस्से में ना सही तो समावेश नहीं हो पाता। यही है वो इंडस्ट्री। अवसर,अनुमति, स्वीकृति और समावेश। जब भी इसकी लड़ाई लड़ी गयी व्यक्ति को बहुत कुछ सहना पड़ा। केदारनाथ फ़िल्म में सुशांत का काम बड़े अभिनेता की बेटी सारा अली खान से कई बेहतर थी लेकिन पूरी तारीफ गयी अभिनेता की बेटी के हिस्से जैसे हाइवे के समय हुआ था। आलिया की वाहवाही खूब हुई लेकिन रणदीप के बेहतरीन काम का ज़िक्र तक नहीं। सरबजीत में ऐश्वर्या के बकवास अभिनय की खूब चर्चा हुई लेकिन ऋचा चड्ढा के अभिनय का ज़िक्र तक नहीं। 2013 में जिस साल सुशांत की पहली फ़िल्म आयी उस साल बेस्ट मेल डेब्यू का अवार्ड धनुष को मिला। धनुष बेहतरीन अभिनेता हैं और रांझणा में काम लाजवाब भी था लेकिन उससे पहले वो तमिल में खूब नाम कमा चुके थे ,राष्ट्रीय पुरस्कार तक जीत चुके थे, तो क्या ऐसे में सुशांत जैसे पदार्पण कर रहे कलाकारों को अवार्ड देना वाज़िब नहीं था? मुझे आज तक लगता है कि "पानीपत" में यदु अर्जुन कपूर की जगह सुशांत होते तो लाजवाब अभिनय करते, और आगामी पृथ्वीराज को लेकर भी यही लगता है। लेकिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री घरानों की इंडस्ट्री है। यहां जो बड़े निर्माता हैं सो सब कुछ नियंत्रित करते हैं। आदित्य चोपड़ा का सुशांत को नापसंद करना जगजाहिर है। इसीलिए शेखर कपूर की फ़िल्म "पानी" के निर्माम को हमेशा के लिए रोक दिया गया। करण जौहर ने कभी सुशांत को मौका नहीं दिया। जबकि सब जानते हैं वरुण धवन, सिद्धार्थ मल्होत्र के मुकाबले ज्यादा सक्षम अभिनेता थे। सूरज पंचोली और अर्जुन कपूर जैसे बिना किसी सिर पांव के अभिनेताओं को मौके लगातार मिल रहे हैं। कई बार बड़े अभिनेताओं को बिना किसी घराने के आये अभिनेताओं के फ़िल्म में रोल को लेकर काफी चिंता रहती है, जैसे धर्मपुत्र सन्नी देओल को शाहरुख के किरदार को लेकर हो गयी थी। और ये सब कुछ यूं ही चलता रहेगा, हमें इरफान खान के साथ की गई नाइंसाफी याद नहीं रहेगी तो ये तो सुशांत था। छोटे शहर से आया लड़का जिसने बड़े घरानों के लड़कों को उन्हीं के गढ़े परिभाषाओं में जवाब दिया था। लेकिन वो सब एक आशा के साथ फंदे के सहारे लटकी मिली।

यही है, हमने सुधीर कुमार, सुशील कुमार के गायब होने के किस्से सुने, दिव्या भारती की मृत्यु के किस्से सुने, अब सुशांत के सुनेंगे।
शुक्रिया सुशांत यह बताने के लिए कि छोटे शहरों में सपने देखना गुनाह नहीं है। तुम बने रहते तो बात और भी अच्छी होती।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

परिवर्तन से परे

PM CARES: सब कुछ ठीक है क्या? 
- अंकित झा 


प्रक्रिया परिणाम से अधिक आवश्यक होती हैं। परिणाम कितना भी न्यायोचित हो परंतु यदि उसकी प्रक्रिया पर प्रश्न उठ जाएँ तो निश्चित ही परिणाम पूर्ण रूप से न्यायोचित नहीं है। प्रधान मंत्री राहत कोष बनाम PM CARES का मामला वही है। अरबों रूपये के दान के साथ इस समय यह ट्रस्ट सबसे अधिक फ़ंडिंग वाले ट्रस्टों में से एक है।
- प्रश्न यह है कि इस पर प्रश्न करना कितना उचित या अनुचित है।
पहली बात तो ये कि देश में प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष तथा राष्ट्रीय संचित निधि के होते हुए यह नया ट्रस्ट के गठन की क्या आवश्यकता थी?
सरकार की ओर से इसका एक उत्तर यह है कि राष्ट्रीय राहत कोष प्राकृतिक आपदा के लिए होता है जो कि कोविड-19 नहीं है और संचित निधि के उपयोग हेतु संसद की सहमति लगती है। जो कि इस समय पर नहीं मिल सकती थी। पी एम cares का अधिकारिक स्टेट्मेंट 28 मार्च को आया जबकि जब देश कोविड-19 के चपेट में काफ़ी हद तक था तब संसद का सत्र चल रहा था। अंतिम सत्र 23 मार्च को हुआ जिसमें बिना किसी चर्चा के दो बिल पास हुए और दो बिल सदन में बिना किसी पूर्व सूचना के पेश भी कर दिए गये। क्या इस समय संचित निधि उपयोग करने के लिए प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता था? यदि हाँ, तो क्यों नहीं लाया गया? और राष्ट्रीय राहत कोष में ही एक बदलाव क्यों नहीं लाया गया जिसमें राष्ट्रीय आपदा के अतिरिक्त दुर्घटना व दंगा पीड़ितों को भी राहत दी जाती है? यदि इसके साथ मुख्य स्वास्थ्य आपदा क्यों शामिल नहीं किया गया?
ऐसे कई क्यों हैं जो इससे जुड़ा हुआ है।
- दूसरी बात ये है कि पी एम CARES एक पब्लिक चेरिटबल ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत बताई जा रही है। यदि यह एक चेरिटबल ट्रस्ट है तो निश्चित ही यह "इंडीयन ट्रस्ट ऐक्ट, 1882" के अंतर्गत पंजीकृत होगी। 'चैरिटी' संविधान के 'समवर्ती सूची" का एक विषय है अतः इसको लेकर केंद्रीय व राज्य क़ानून लागू होते हैं। परंतु प्रश्न यह है कि "ITA 1882" के हिसाब से इस फ़ंड का ढाँचा थोड़ा अलग है। ढाँचा के साथ साथ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह "सूचना का अधिकार" के अंतर्गत आता है? मेरे हिसाब से नहीं। शायद थोड़ा और छानबीन कर के और बेहतर उत्तर खोज पाऊँ लेकिन अभी के हिसाब से तो नहीं। क्यों? क्योंकि ये ट्रस्ट संसद द्वारा पास नहीं किया गया, इसमें सरकारी पैसे नहीं लग रहे, इसमें सरकारी की भागेदारी सिर्फ़ इतनी है कि इसके अध्यक्ष प्रदान मंत्री हैं और सदस्य कुछ अन्य मंत्री। जब सरकारी पैसा शामिल नहीं है मतलब सरकारी जवाबदेही कम होती है।
- तीसरा यह कि माइक्रो फ़ंडिंग के लिए किया गया है। इस तर्क से सहमत है लेकिन बात वही कि राष्ट्रीय राहत कोष की सीमा भी तो कम की जा सकती थी। शायद इसलिए ना किया हो क्योंकि उसकी स्थापना नेहरु ने की थी। इसके साथ एक यह भी तर्क है कि लोग राष्ट्रीय राहत कोष में ज़्यादा दान नहीं देते क्योंकि प्राकृतिक आपदा देश के एक हिस्से में आती है और उससे दूसरे हिस्से के लोगों को ज़्यादा असर नहीं पड़ता फिर बिहार, केरल, महाराष्ट्र के बाढ़ के समय जगह दान लेने वाले paytm और अन्य इकाइयों को कैसे अनुमति दे दी गयी थी। लोगों ने ख़ूब दान किया था। 2019 तक इस कोष में क़रीब 3800 करोड़ उपाए थे जो 2014-15 में क़रीब 1500 करोड़ था। PM CARES जितनी पब्लिसिटी अगर इसे मिलती तो इसे भी ख़ूब दान मिलता।
और तर्क नहीं, हाँ एक आय कर छूट वाला भी तर्क है। लेकिन थोड़ा ज़्यादा हो जाएगा। वो छोड़ देते हैं।
जहाँ तक बात है प्रक्रिया की तो ये भी इतिहास में याद रखा जाएगा कि वैश्विक महामारी के समय प्रधानमंत्री ने तीन सम्बोधन किए एक मन की बात की और उसमें क्रमशः "जनता कर्फ़्यू", "धन्यवाद देने के लिए ताली", "21 दिन का लॉकडाउन", और "9 बजे का दीप प्रज्ज्वलन कार्यक्रम" की घोषणा कर के निकल लिए। स्वास्थ्य सेवाओं पर कोई टिप्पणी नहीं, हाल ही में हुए G-20 बैठक में लिए फ़ैसलों पर कोई बात नहीं, मज़दूरों को हुई असुविधा व उनके जीविका व जीवन के ख़तरे पर कोई बात नहीं, और यहाँ तक कि आगे के क़दम पर कोई बात नहीं। बस बोल के निकल जाना और उनके पीछे छूटे भूसे पर सब डंडे पीटते रहें। कमज़ोर व्यक्ति प्रश्नों से डरता है, उससे भी कमज़ोर प्रश्न के नाम से और सबसे कमज़ोर अपने पसंद के प्रश्न ही पूछवाना चाहता है। जो भी श्रेणी हो 56 इंच छाती वाले को वहाँ डालें। जनता कर्फ़्यू, ताली थाली, दीप प्रज्ज्वलन, लॉकडाउन सिर्फ़ इन्होंने ही नहीं करवाए, सभी देशों ने करवाए हैं लेकिन उसके साथ साथ जिस तरह की अन्य सुविधाएँ और कार्यक्रम चलाए गये हैं वो भी देखे जाएँ। जिस rतह की फूर्ति, समर्पण और तत्परता मुख्यमंत्रियो ने दिखायी है उसके दसवाँ हिस्सा भी अगर ये दिखाएँ तो लोगों में विश्वास बने। लेकिन नहीं परिणाम प्रक्रियाओं को छिपा लेगा। इस बार मुझे नहीं लगता क्योंकि इस बार का परिणाम पूरी तरह प्रक्रिया पर निर्भर है।

रविवार, 29 मार्च 2020

चलते-चलते

जहाँ कोई वापसी नहीं

- अंकित झा 

आनंद विहार और कौशाम्बी के बीच जो भीड़ थी, वो भीड़ बरसों से है, बस कल वो भीड़ एकत्रित हुई थी, वापस जाने को। वापस जाने को उन शहरों से जहाँ उनसे लिए तो ख़ूब गया पर बदले में आश्रय, भोजन, सुरक्षा और स्वास्थ की गैरंटी तक नहीं दे पाएँ।
आज जो सब मज़दूर के मुद्दों पर विशेषज्ञ बन रहे हैं उन सब को जानना चाहिए कि वर्षों से मज़दूरों के आय सुरक्षा व सामाजिक सुरक्षा को लेकर लोग संघर्षरत हैं, उनमें से ये माँगे ज़रूरी रही हैं कि उनके आय की सुरक्षा हो किसी भी हाल में। आपदा, विपदा व विषाणु संक्रमण किसी भी समय आ सकते हैं। चलिए इस बार ये इतना दिख गया कि सब हरकत में आ गये वरना बाढ़ में, भूकम्प में, अभी हुए दंगों में, और हाँ आतंकवाद-कालेधन पे हुए वार ने भी मज़दूरों को इतना ही डराया था परंतु एक सुकून था कि काम तो चल रहे हैं कुछ नहीं होगा आज नहीं तो कल काम मिलेगा ही, पैसा आएगा ही। लेकिन जब 21 दिनों का पूर्णबंद हो, उस पर से अलग अलग अफ़वाहों द्वारा 3 महीने के बंद की बात की जा रही हो तो मज़दूर डरे नहीं तो क्या करे? कौन खिलाएगा? कितने दिन? किस तरह? वादों और वादों को निभाना और वादों को सही तरह से न्यायोचित ढंग से निभाने में बहुत अंतर है। हम ताली पीट सकते हैं कि दिल्ली सरकार ने प्रबंध किए हैं लेकिन ये प्रबंध सिर्फ़ आपदा प्रबंधन है मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा नहीं। जिन मज़दूरों का वोट पाकर वो सत्ता में आए उन मज़दूरों के लिए आवश्यक क़ानूनों को पालन तक नहीं करवा पाए अभी तक। अगर पथ विक्रेताओं का सर्वे हो गया होता तो उनके योजना अनुसार उनके आय की सुरक्षा हो जाती, अगर असंगठित मज़दूरों का 2008 क़ानून के हिसाब से पंजीकरण हो जाता तो आज उनके सामाजिक सुरक्षा जैसे स्वास्थ्य, व भोजन की व्यवस्था हो जाती और घरेलू कामगार, निर्माण कार्य मज़दूर, व अन्य डिहादी मज़दूरों की तो बात छोड़ ही दीजिए।
हमारे सामने जो हो रहा है वो सिर्फ़ इस सरकार की असफलता नहीं है, हमारे देश के सभी सरकारों की है। श्रम क़ानून, स्वास्थ्य सुविधाएँ, और सूचना प्रबंधन। ये तीनों इस तरह से लाचार हो गयी कि सामने कुछ दिख ही नहीं रहा। अंदर बंद रह के एक वर्ग को बचाया जा सकता है लेकिन इतने बड़े वर्ग को क्या बोला जाए? मज़दूर भी वो, मजबूर भी वो और दोषी भी वो ही?
जब बड़े-बड़े पढ़े-लिखे लोग मोबाइल पे अफ़वाहों को सच मान के बैठ जाते हैं तो उनसे क्या उम्मीद करें जिनके लिए "फ़ैक्ट-चेक" जैसा कॉन्सेप्ट उतना प्रबल नहीं है? उनके डर के ऊपर ये अफ़वाह के मसाले को पसरने से कौन रोक पाएगा? सरकार? जिसे इस समय भी शब्दों से खेलने में मज़ा आ रहा है। या फिर मीडिया जो अंताक्षरी खेल रहा है? कोई नहीं। हम भी नहीं। ग़रीब इस देश में ऐसे ही परेशान रहे हैं। रहेंगे। कुछ दिनों में मीडिया की कहानी बदल जाएगी, और भक्तों के नैरटिव भी जो आज ये कह रहे हैं कि दिल्ली में सारे परदेसी लोग निकल गये हैं बस रोहिंग्या और बांग्लादेशी बचे हुए हैं और दिल्ली सरकार उन्हें ही खिला रही है बस। आप इन अफ़वाहों के दलदल में जीते रहिए, हम अपने कमरों में जीते हैं, ये ग़रीब भी एक दिन पहुँच ही जाएँगे या तो अपने गाँव, जेल या फिर वहाँ जहाँ से कोई वापसी नहीं।

गुरुवार, 26 मार्च 2020

परिवर्तन से परे

लॉकडाउन से पहले कुछ आवश्यक प्रश्न 

- अंकित झा 

लॉक डाउन शुरू होने के तीन दिन के अंदर स्थिति साफ हो गयी कि ये सब कैसे चलना है। बात साफ है कि हम लोग कभी ऐसी महामारी से जूझने के लिये तैयार ही नहीं थे। क्या ये तैयारी होती है? विषाणु (वायरस) पर्यावास का हिस्सा हैं, कई बार उन्हें वाहक मिलता है और फैलना शुरू कर देते हैं। क्या इतनी सी पांचवी क्लास का विज्ञान हमारे सरकारों ने नहीं पढ़ा? तो विषाणु के प्रकोप व संक्रमण के समय क्या करना चाहिए, कैसे सुरक्षित रहा जाए, इलाज कैसे हो और समाज के सबसे वंचित समूह के लिये क्या व्यवस्था की जाए, ये सब कौन और कब तय किया जाना चाहिए था। क्या लगातार बढ़ते संक्रमण के आंकड़े, सडकों चलते मज़दूर, रैन बसेरों में खाने के लिए लम्बी कतार, दुकानों में भारी भीड़, नेताओं बेतुके बयान, लोगो का बाहर निकलना, पुलिस की लाठी आपको प्रश्न करने पर विवश नहीं करती?
इस समय हमारे सामने दस मुख्य प्रश्न खड़े हैं:
1. सबसे बड़ा प्रश्न, क्या इतने वर्षों के स्वायत्त स्वास्थ्य सुविधाओं के बावजूद हम केंद्र और राज्य स्तर पर विषाणु संक्रमण से निपटने, उसके विस्तार को रोकने, उसके इलाज के किये इकाई बनाने में असमर्थ हैं? सबसे बड़ी बात ये है कि हमारे देश में जांच की साधन ही नहीं है। साधन नहीं हैं इसलिए नतीजे नहीं आ रहे हैं। हम अभी भी मलेरिया, डेंगू और बुखार से मरने वाले देश हैं वहाँ विषाणु संक्रमण अवश्य ही एक बड़ा खतरा है। फिर स्वास्थ्य बजट में हर साल मामूली बढ़त इसमें सहायता तो नहीं करती।
2. हमारी चिकित्सा अनुसंधान इतनी कमजोर क्यों है? एक वैश्विक महामारी के इतने करीब होने के बावजूद पिछले तीन महीनों से पर्याप्त तैयारी नहीं की गई, ना लोगों के जागरूकता पर, स्वास्थकर्मियों के प्रशिक्षण पर और सबसे जरूरी रोकथाम व इलाज के लिए वैक्सीन पर?
3. क्या हमारे स्वास्थ्य कर्मी, पराचिकित्साकर्मी, प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस और नागरिक सेवा अधिकारी ऐसे संक्रमण, महामारी व रोगों से बचाव के उपायों को लेकर पूर्णतया प्रशिक्षित हैं? क्या इनके पास इससे निपटने के किये आवश्यक वस्तुओं की मौजूदगी है? उसे इस्तेमाल करना आता है? क्या ये समाज में उचित जागरूकता फैला सकते हैं? क्या ये न्यायोचित व बिना भेदभाव के इस पर कार्य कर सकते हैं? क्या इनकी सामाजिक ट्रेनिंग की गई है? क्या इनकी संवेदनशीलता पर कोई प्रशिक्षण लिया गया है? ज्ञान, समझ, संसाधन, जागरूकता व संवेदनशीलता सबसे आवश्यक हैं। क्या इस पर इतने वर्षों में कार्य किया गया है?
4. प्रशासनिक व सरकारी निर्णयों के अपने प्रभाव व दुष्प्रभाव होते हैं। अतः प्रधानमंत्री के निर्णय के भी हैं। प्रभावों की प्रतीक्षा रहेगी लेकिन दुष्प्रभाव सामने हैं, और ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं जिस पर कार्य किया जाना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ। ऐसा क्यों है कि प्रधानमंत्री को अपने हर देश के नाम संदेश के बाद सैकड़ों ट्वीट, आदेश और आग्रह करना पड़ता है? क्या हमारा प्रधानमंत्री कार्यालय इतनी खराब तैयारी करता है? क्या यह सोंच पाना इतना मुश्किल कार्य था कि लॉकडाउन के कारण मज़दूरों के आय के साधन रुक जाएंगे, उनका आवास छीन लिया जाएगा, उनपर संक्रमण के समय जांच के पैसे कहां से आएंगे? उनके पास साबुन व पानी कैसे पहुंचाया जाएगा? और कितने ही प्रश्न। हमारे वर्षो पुराने भेदभावपूर्ण मानसिकता के उजागर होने का ये चरम है, जब स्वास्थ्यकर्मी व हवाई सेवा से जुड़े लोगों को शोषित किया जा रहा है। अभी तक सेवाओं, सामाजिक सुरक्षा व सामने खड़े आर्थिक नाकाबंदी से उपजे संकटों के लिए कुछ भी तय नहीं किया गया है।
5. करीब 5 वर्ष पहले शुरू हुए श्रमेव जयते कार्यक्रम के अंतर्गत मज़दूरों और खासकर दिहाड़ी व अन्य असंगठित मज़दूरों की आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए गए थे। मज़दूरों की क्षमता विकास जरूरी कदम था लेकिन उनके स्वास्थ्य बीमा, कार्य सुरक्षा, आर्थिक स्वायत्तता, और आवासीय सुरक्षा के लिए क्या किया गया था? ऐसा क्यों है कि महीने भर की आर्थिक बंदी की वजह से मज़दूरों को अपनी शारीरिक सुरक्षा की परवाह किये बिना ट्रेन में ठुस के या पैदल ही अपने राज्य वापस जाना पड़ रहा है जहां न कार्य की गारंटी है ना स्वास्थ्य की?
6. आवश्यक्ता से अधिक संग्रहण व बचत भारतीय मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग की पहचान है। लेकिन यह संग्रहण जब पैनिक संग्रहण का रूप लेती है तो उनके लिए ही काल बनती है। ये डर क्या है? इस डर के ऊपर इतने वर्षों में कार्य क्यों नहीं किया गया? अभी खराब समय नहीं आया है, क्या इससे भी खराब समय जे लिए हमारा समाज तैयार है? क्या संसाधनों के उचित व न्यायोचित बंटवारे के लिए हमारा समाज तैयार है?
7. जिस समय चीन, दक्षिण कोरिया, व इटली जैसे देश कोविड-19 से निपटने के लिए कार्यरत थे और भारत में कई लोग लगातार इसपर कार्य करने की सलाह दे रहे थे उस समय हमारे देश के सरकार के लोग अपनी बेहूदगी, बीमारी के प्रति अपनी असंवेदनशीलता और अज्ञानता को नए आयाम दे रहे थे। कहीं कोई धूप में बैठने को बोल रहा था, तो कोई गौमूत्र पार्टी कर रहे थे, कोई गो कोरोना का पाठ कर रहे थे तो कोई हवन और नमस्ते का महत्व समझा रहे थे। ये असंजीदगी आज हम सब पे भारी पड़ रही है। क्या उन नेताओं को सार्वजनिक रूप से माफी नहीं मांगनी चाहिए? और इस सब की पराकाष्ठा 22 मार्च को सामने आई। शाम 5 बजे जो हमारे बेहूदगी और विषाणु के प्रति हमारी सामूहिक अज्ञानता का जो हमने परिचय दिया वो ऐतिहासिक है। ऐसी अज्ञानता पहले आडंबरों और अफवाहों में दिखती थी बस, उसे एक देश की सामूहिक मूर्खता का नाम उस दिन दिया।
8. इस समय सबसे आवश्यक है हमारे प्रशासन का रवैया। हम इस बात पर सहमत व असहमत हो सकते हैं कि पुलिस व प्रशासन को किस तरह इसे संचालित करना है। लेकिन जिस तरह के वीडियो सामने आ रहे हैं हम पूर्णतः असमंजस में हैं कि कौन सही, कौन गलत। लोग जो बाहर निकल रहे हैं या पुलिस जो बर्बरता से लाठी भांज रही है। लोगों के अपने कारण हैं, सही भी और गलत भी। पुलिस के भी। लेकिन पुलिस को ये फ्री हैंड किसने दिया लाठी भांजने का? फिर कोई राज्य सरकार कैसे कह रही है कि हमें दिखते ही गोली मारने का आदेश देने पर विवश ना करे। विषाणु के संक्रमण को रोकने के किये शूट एट साइट का आदेश? ये किस देश में हो रहा है? प्रशासन की प्रशंसा भी होनी चाहिए कि जिस निस्वार्थ भाव से वो लगे हुए हैं वो अद्वितीय है लेकिन स्वरूपों के मध्य छिपे रूपों को नकारना नहीं चाहिए।
9. कुछ राज्य सरकारों ने इस महामारी से निपटने में जो पहल की है वो बेहतरीन है। केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली, तेलंगाना और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जिस तरह कार्यरत हैं वो प्रशंसनीय है। लेकिन प्रश्न यही खड़ा होता है कि आगे क्या? कैसे? कब तक? न्याय वो है जो वंचितों व पीड़ितों के प्रति संवेदनशील हो। कांधे पर बच्चे व सर पर बोझा लिए पैदल चल रहे मज़दूर हमारे देश में गरीबों के प्रति सरकारी निराशा की प्रतीक है, उस पर से फैल रहे अफवाह-आडम्बर, धार्मिक नफरत और कुछ नेताओं की बेवकूफ़ी हमारा भविष्य करेंगे।
10. कोरोना विषाणु ने दुनिया को आईना दिखाया कि तमाम विकास के दावे, और परिवर्तन की डींगो के मध्य हमारी लचर स्वास्थ्य सुविधा, ऐसी महामारी से निपटने के लिए उचित तैयारी और संक्रमण को रोकने के लिए हमारी ततपरता कितने पीछे है। हो सकता है इसके बाद आर्थिक मामलों में स्वास्थ्य की दखल बढ़ाई जाए, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पर काम हो सबसे अधिक जरूरी है हमारी स्कूल शिक्षा में ऐसे समयों के सभी तरह के आयामों पर जागरूकता के लिए भी कार्य किया जाएगा, और सबसे जरूरी है कि समाज में वैज्ञानिक सोंच को बढ़ावा दिया जाएगा। दुर्गा सप्तशती और हवन से विषाणु व रोगों का अंत नहीं होता, वो हमें सांत्वना व संयम दे सकते हैं स्वस्थ नहीं कर सकते। इससे भी जरूरी है देश के असंगठित मज़दूर व अन्य गरीबो की आर्थिक सुरक्षा व सामाजिक सुरक्षा पर कार्य करना। देखते हैं, इन दस में से कितने प्रश्नों पर हम स्वयं से उत्तर की अपेक्षा कर सकते हैं।
ख़ैर, ये वो सत्य है जिसकी खोज हमें अगले 20 दिन घर पर रहते हुए भी करनी है। सुरक्षित रहें व सतर्क रहें।
निर्भय भव। ज़िंदाबाद।

गुरुवार, 5 मार्च 2020

Statement

Date: 05-03-2020
JOINT STATEMENT
Condemning the Hate Speech by Alumnus, Kapil Mishra (batch 2004-06) and demanding immediate restitution of victims of Delhi Violence
We, more than 100 undersigned alumni from different batches of the Department of Social Work (Delhi School of Social Work-DSSW), University of Delhi, hereby come together to unequivocally condemn the hate speeches made by one of our alumnus, Kapil Mishra (2004-06) which incited the communal violence in several places of Delhi on 24th February 2020. Mishra who had served as a Member of Legislative Assembly from Karawal Nagar constituency in 2015 and was defeated in the recent assembly elections from Model Town in Delhi. He has been in the news over the last week (Video from Jafrabad on 23rd February 2020, one of many news sources: https://www.youtube.com/watch?v=bS4JxOAbQUE, Aaj Tak 26th Feb 13.10 Min, https://www.youtube.com/watch?v=4KkYGueY2no, NDTV India 23rd Feb 2020) for delivering hate speech and warning bearing communal colour. He has been accused by several groups of inciting communal tensions through his speeches, and issuing warnings to a group of protestors who were sitting on agitation against Citizenship Amendment Act 2019, and forthcoming National Population Register (NPR) and National Register of Citizens (NRC) which together can make many citizens of India illegal persons in their own country of birth and ancestry.
In the video Mishra is seen issuing warning to the anti- CAA protestors of dire consequences, that has been making rounds on social media widely. This is not the first time that he has been at the epicentre of communal hate mongering, rather been engaged with it on several accounts.
Mishra remarked during election campaign that there will be an India-Pakistan contest on the roads on 8th February (Voting day for Delhi Elections 2020) or him leading a group of people sloganeering “Desh Ke Gaddaron ko, Goli Maaro Saalon Ko” (quoted as stated by Mishra on 21st December, https://www.youtube.com/watch?v=sqTpSLnP1FI) .
Delhi Election Commission on 23rd January 2020 took cognizance of these statements by condemning them and subsequently banning him from campaigning. Even now he continues with his jingoist propaganda through his protest at Jantar Mantar with placards displaying ‘Delhi Against Jehadi Violence’ besides raising slogans “shoot the traitors”!
We the undersigned alumni are in abject dismay at how an ex-student of the Department is capable of such irresponsibility. Both his act and speech stands in direct contradiction to not only of values and ethics of social works but also basic humanitarian principles. It is both shocking and disheartening to see him at the centre of communal bigotry followed by violence with the justification of clearing roads. Dissent is at the heart of democracy, as Mishra will be rightly aware and protest a fundamental right therefore any attempt to sanitize a public place of CAA protest is violation of Right to Life under Article 21 under the Constitution of India.
His incitation led to the worst form of humanitarian tragedy in decades, as rioting mobs burnt down homes, businesses, schools besides desecrating places of religious worship. It has left hundreds homeless, many more wounded and approximately 46 dead thereby making it a crisis. This tragedy has affected young, old and women to a great magnitude. Today, the victims continue to pay the price of a communally charged hate speech with their lives and livelihoods. The plight of those grievously injured and languishing in temporary relief camps bears testimony of such incitation.
Every riot puts families and communities in pain, anguish, poverty and destitution. As social workers, we are fully aware that for the development of the country we need conflict mitigation, peace building and social harmony. Riots and clashes hamper the social order, economy and polity and due course of law thereby pushing us behind by several decades. Leaders, public individuals and media figures must therefore be responsible and refrain from any divisive politics based on communal, racial, linguistic lines or any other identity markers. We demand appropriate legal action to be taken against Kapil Mishra and others for the hate speeches which instigated violence from 24th February 2020. In this light we also demand for a free and fair probe by an independent enquiry commission.
We demand Bhartiya Janta Party (BJP) leadership to take action against Kapil Mishra and other party workers accused of hate speeches, as the party continues to enjoy majority confidence since 2014. We strongly believe that the leadership will address this issue without loss of time.
We demand the Delhi and Central Government to declare the Delhi Violence an emergency and respond immediately by making available relief & shelter to all in form of food, clothes, shelter and medical aid besides other basic provisions. We demand the affected children, adolescents, elderly and women to be provided trauma care and psychosocial care in partnership with NGOs.
We demand the Central Government to come out with guidelines for leaders and lay down punitive measures against jingoism of any form.
We demand immediate identification rioters besides setting up a fast track court for justice delivery.
Horrifying images of young boys engaging in rioting have surfaced. We appeal for therapy and counseling of adults and juveniles who seem to have undergone communal indoctrination thereby engaging in looting and violent acts.
We the undersigned alumni of DSSW thereby unequivocally condemn the speech and act of Kapil Mishra and the violence that follow besides demanding restitutive measures for the victims of violence. We also stand in solidarity with the current president of DSSW Students’ Union who took a strong stand against the culture of hate.
NOTE: This joint statement is on behalf of the undersigned alumni of DSSW and does not represent the whole alumni group of DSSW or the official platform of the Department. It has been written and endorsed by a group which is pained by violence. We hereby reaffirm our faith in the Constitution of India, which gives us freedom with responsibilities and the principles of social work which urges us to be empathetic and uphold human rights and justice at all times.
In Solidarity

बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

इतिहास के सौतेले दरिंदे: दंगे। 

- अंकित झा 

1... 3... 9... 13.. 18...
एक एक कर जो अब बढ़ रही हैं वो न्यूज़ में दिखने वाली संख्या मात्र हैं। मनुष्य की मृत्यु का दुर्घटना होना बहुत पुरानी बात हो चुकी है अब। इतने लोग मारे गए हैं। किसने मारा? क्यों मारा? एक कानून के विरोध में? शायद नहीं। कानून का विरोध तो तब ही कुचल दिया गया था जब विरोध में बैठे लोगों को आतंकवादी, देशद्रोही, बिके हुए उपद्रवी कह दिया गया था। तमाम विरोध के बाद भी एक कानून आता है। लोग विरोध जाती रखते हैं, विरोध में छात्र भी भाग लेते हैं, सरकारी पदों से इस्तीफा दिया जाता है, धरनों में शांति की अपील होती है, एक दंगा होता है, पुलिसिया कार्रवाई होती है, लोग मारे जाते है।
क्या कुछ याद नहीं आया? मुझे तो हूबहू याद आया। फरवरी 1919। एक कमिटी बनी। रौलेट कमिटी। एक कानून का प्रस्ताव। अनार्कीकल एंड रेवोल्यूशनरी क्राइम्स एक्ट। तमाम विरोध के बाद भी उसका पास होना। विरोधों का जारी रहना। गाँधी का उदय। फिर पंजाब में खूंखार दंगे। और फिर जलियांवाला बाग़। मृत्यु। मृत शरीरों का ढ़ेर। बस अंतर ये है कि उस दौर में क्रूर ब्रिटिश हम पर राज कर रहे थे, और अब देश के लोगो द्वारा चुनी गई सरकार। गोलियां चलाने वाले उस दौर में भी सरकारी गुंडे थे और इस दौर में भी निस्संदेह वही। कुछ वर्दी में कुछ बिना वर्दी के। राज्य में हिंसा पर अगर सरकार का नियंत्रण नहीं तो फिर वो सरकारी हिंसा है। ऐसी कोई हिंसा नहीं जिसे सरकार रोक ना सके, अगर नहीं रुक रहा है तो दो राय नहीं कि सरकार चाहती है कि हिंसा हो। दिल्ली के मामले में ये दोनों सरकारे हैं। आश्चर्य ये है कि अभी भी दोषी तय किये जा रहे हैं, दोष नहीं।
दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं, हक़ बाँटने वाले बहुत कम। समस्या बाँटने वाले बहुत होते हैं,परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले। इस दंगे के भी यही कुछ परिणाम होंगे यह तय है। इस दंगे की इतिहास में दो सबसे बड़े गुनाहगार होंगे: दिल्ली पुलिस और देश की मेन स्ट्रीम मीडिया। इन दोनों ने दंगे उकसाये या भड़काए नहीं है बल्कि इस बार दंगों में बराबर के हिस्सेदार हैं। बीते कई सालों से मीडिया के न्यूज़रूम और स्टूडियो में हर रोज़ के बार दंगे हुए हैं। खुलेआम वो बातें कहीं गयी जो पहले अकेले में भी बोली नहीं जाती थी। एक एक करके हिंसा व नफरत की पराकाष्ठा के नींव डाले गए ताकि एक दिन ये किया जा सके। मेरा यक़ीन मानिए ये उनकी पराकाष्ठा नहीं है। ये पराकाष्ठा से पहले वाला पायदान है। उनकी पराकाष्ठा कितनी खतरनाक होगी इसकी कल्पना ही हमें हिला देनी चाहिए। आप सबको, हम सबको हिंसा के लिए इतना उत्सुक कर दिया गया कि कई लोग हिंसा में असहाय हैं तो बड़ा तबका हिंसा से खुश।
ये खुशी हमारी सामूहिक हार है।
PS: हाँ, भीषण विद्रोह-हिंसा के तीन साल बाद 1922 में रौलेट कानून को निरस्त कर वापस ले लिए गया था। वो अंग्रेज़ थे। अपने वालों से क्या उम्मीद रखें? देखते हैं इन्हें कानून प्यारा है या नागरिक।

रविवार, 9 फ़रवरी 2020

मूवी रिव्यू

शिकारा: नफ़रत, संघर्ष और प्रेमपत्र ।

- अंकित झा 
फ़िल्म शिकारा एक सफल फ़िल्म होती यदि उसे एक विशुद्ध फ़िल्म के रूप में बनाई जाती तो। किसी भी प्रेम कहानी के लिए आवश्यक है दो प्रेमी (फिर वो किसी भी रूप में हों) और उनकी परीक्षा के लिए खड़े किए गए हालात। फिल्मों में कभी वो आर्थिक असमानता होती है, कभी कोई तीसरा व्यक्ति जो दोनों में से किसी को प्रेम करता हो या फिर कोई सामाजिक या राजनीतिक कलह। इस फ़िल्म में दो प्रेमी हैं; शिव और शान्ति, शिव और कश्मीर, शांति और शिकारा (जो शिव और शांति का घर है), पण्डित व मुस्लिम, और साथ साथ बहने वाले मित्र, रिश्तेदार और तरक्कियां। पहली प्रेम कहानी मार्मिक है। काफी इत्तेफ़ाक़ से शिव और शांति मिलते हैं, फिर एक दूसरे के हो जाते हैं। कोई दिक्कत नहीं। हाँ इस बीच एक भयावह राजनैतिक और सामाजिक कलह इन दोनों की व्यक्तिगत रूप से खूब परीक्षा लेती है। और शांति को किये गए वादे के अनुसार शिव उसे हनीमून पर अंततः ताज महल ले जाता है। ये हुई इनकी प्रेम कहानी।
लेकिन मुझे पसंद आयी फ़िल्म की दूसरी प्रेम कहानियां। शिव और कश्मीर की प्रेम कहानी। शांति और शिकारा की प्रेम। पण्डित व मुस्लिम की प्रेम कहानी।
"एक दिन तुमसे मिलने वापस आउंगा
क्या है दिल में सब कुछ तुम्हे बताऊंगा
कुछ बरसो से टूट गया हूँ
खंडित हूँ
वादी तेरा बेटा हूँ
मैं पण्डित हूँ।
ऐ वादी शहजादी बोलो कैसी हो।"

ये बोल हैं शिव के जब वो 18 साल बाद जम्मू के अपने कैम्प से कश्मीर वापस आता है। कोई अपने आँसू कब नहीं रोक सकता? सम्भवतः जब वो अपने सबसे प्रिय से वर्षों के विरह के बाद मिले। वादियों से गुजरते समय शिव के मन में घूम रहे बोल और आंखों से अविरल बहते आँसू। ये है प्रेम। प्रेम अपनी ज़मीन से। जहँ पैदा हुए, जहाँ पढ़ाई की, जहां दोस्तों संग वो बड़ा हुआ, जहां उसे उसकी शांति मिली, जहाँ उसने कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया और वो मिट्टी उसे जहां का हो के रह जाना था। लेकिन। ये लेकिन इस प्रेम कहानी का वो प्रश्न है जो हमें इतिहास से पूछना है, जो हमें वर्तमान में पूछते रहना है, जो हमें हमेशा अपने समाज से पूछते रहना होगा। क्यों किसी समाज को उसकी पहचान के आधार पर अपनी पहचान गंवानी पड़ती है? इतिहास ऐसे किस्सों से भरा पड़ा है। कश्मीरी पंडितों का उनकी जमीन से विस्थापन इसी इतिहास की कड़ी है। वो समय कितना भयानक रहा होगा इसकी कल्पना करना भी असंभव है हम लोगों के लिए। हम बार बार ऐसे दौरों से गुजरे हैं और बार बार हम सब सभ्यता के स्तर पर एक कदम पीछे खिसके हैं। लेकिन कमी यह रह गयी कि शिव और कश्मीर की प्रेम कहानी के मध्य उपजे विस्थापन जैसे कनफ्लिक्ट को बहुत सतही रूप से दिखाया गया है फ़िल्म में। राजनैतिक कलह से जन्मे सामाजिक उहापोह को काफी ऊपर ऊपर से दिखा के बहुत कुछ लाइन्स के बीच सोंचने के लिए छोड़ दिया गया है। इसीलिए शिव और कश्मीर अमर प्रेमी नहीं बन पाते। उनकी प्रेम कहानी में संवाद है, भावनाएं हैं लेकिन गहराई नहीं है।
कैसा होता है अपनी प्रेमिका पर आग की लपट देखना? एक एक कर उसके करीब आती कुछ आहटें?किसी बाहरी ताक़त के कारण आपका अपने प्रेम से बरसों के लिए बिछड़ जाना, कुछ सालों की जुदाई में उसपर कब्ज़ा जमाये कोई पहचानवाला? कैसा होता है? वही हुआ शांति और शिकारा के बीच। उस शिकारा में जिसकी नींव में उसके पति के मुस्लिम दोस्त के घर के पत्थर हों, जिसके घर में उसके पति की पूरी कमाई लग गयी हो, उसे अपने घर से सजाया हो। इस फ़िल्म की सबसे अच्छी प्रेम कहानी है शांति और शिकारा की। हमारी रूह कांप जाती है जब शिकारा के छत पर आग गिरती है और उसे शांति देखती है, 18 साल बाद किताबों की जगह दूध के कनिस्तर देख के हमें भी अफसोस होता है, और ऐसे कई मौके हैं। इनके बीच की कलह सबसे अधिक समझने योग्य है। शिकारा और मुट्ठी कैम्प के तम्बू के बीच का फर्क ही विस्थापन है, सम्बन्ध विच्छेद है, विरह है। उससे दर्दनाक और कुछ नहीं।
और फिर आती है वो प्रेम कहानी जो अब नफरत में बदल चुकी है। पंडित और मुस्लिम की। कश्मीरी आगे जोड़ा जाना चाहिए। मुझे वर्तमान का पता नहीं लेकिन इतिहास की कलह ऐतिहासिक कलह बनी है। लेकिन शिकायत ये रही कि ये प्रेम कहानी कैसे खराब होती चली गयी। एक धरना। एक मृत्यु। उसके बाद पाकिस्तान के पीएम का भाषण और एक के बाद एक घटते चले गए इवेंट। काफी डराता है लेकिन वो क्या कारण थे कि हालात इतने बिगड़ गए? हमें पता है लेकिन फ़िल्म देखने वाले उन लोगों का क्या जो सिर्फ ये देखने गए थे कि कश्मीर के पत्थरबाज़ों ने कैसे कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाया? भारतीय सरकार से मोह भंग, नाराज़गी के क्या कारण थे? राज्यपाल जगमोहन, मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी का अपहरण, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का बढ़ना और ना जाने कितनी बातें। वो भी सामने आनी चाहिए थी।
एक बात जो और सामने आनी चाहिए थी वो ये कि दो बार रोगनजोश पकने के बाद भी शिव और शान्ति उसका स्वाद क्यों नहीं ले पाते? पता चलना चाहिए।
हाँ मुख्य कलाकार आदिल और सादिया का अभिनय जबरदस्त से भी ऊपर है। दोनों अपने चरित्र में इतने सहज हैं कि लगता है न जाने कितने पुराने और परिपक्व कलाकार हैं वो। विधु विनोद चोपड़ा से इससे बेहतर कहानी लिखी जा सकती थी लेकिन जिस संवेदनशीलता और समझदारी से उन्होंने ये फ़िल्म बनाई है वो सराहनीय है। उन्होंने बताया कि कैसे बिना एक गोली चलाने वाले को दिखाए हिंसा दिखाया जाए कैसे आतंक को दर्शाया जाए। फ़िल्म का फर्स्ट हाफ बेहतरीन है और दूसरा हाफ थोड़ा कमजोर। लेकिन फ़िल्म देखी जानी चाहिए। रोगनजोश जरूर खाइएगा फ़िल्म देखने के बाद।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

संक्षिप्त मूवी रिव्यू

"छपाक", भारतीय सिनेमा इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है। यह सिनेमा जगत में हुई एक ऐसी सुखद घटना है जिसके समक्ष पुरुषवादी विचारों से भरे इस समाज को नतमस्तक होना चाहिए।
मुझे इस बात का हमेशा अफसोस रहा कि यौन शोषण व यौन हिंसा जैसे जघन्य अपराध को भारतीय फिल्मों में बदला लेने व कहानी को एक नया मोड़ देने के लिए किया जाता रहा। जिससे इस अपराध की संवेदनशीलता समाप्त होती गयी, और यह स्थापित कर दिया गया कि स्त्री पर यौन हिंसा के बाद एक पुरुष आएगा जो अपराधी से बदला लेगा। यहीं सिनेमा कहीं स्त्री को हार चुका था। लेकिन छपाक वो फ़िल्म नहीं है। यहां स्त्री पर फेंके गए तेज़ाब के बाद पुरुष दूसरे पुरुष के ऊपर तेज़ाब फेंककर या उसका गला काटकर खत्म नहीं करता। यहां स्त्री है जो कहना जानती है, फैसले लेना जानती है, आवाज़ को रखना जानती है।
यह फ़िल्म दीपिका पादुकोण, विक्रांत मेसी या मेघना गुलज़ार नहीं है। यह फ़िल्म एक संघर्ष की तरह है। दिल को झकझोरने वाला, आंखों को भींगो देने वाला, सांस को रोक देने वाला।
धन्यवाद मेघना यह फ़िल्म देने के लिए।
(कुछ अखंड इसके टैक्स फ्री होने का मज़ाक बनाएंगे, विरोध करेंगे। यह उनकी कुंसित मानसिकता दिखायेगी। ये वही लोग हैं जो तेलांगना में एनकाउंटर में मारे गए रेप के आरोपियों की मौत पर जश्न मना रहे थे। वो आज एसिड अटैक जैसे मुद्दे और एसिड सर्वाइवर पर बनी फिल्म का विरोध कर रहे हैं, उसमें धर्म खोज रहे हैं। ख़ैर, ये अपनी तरह के खत्म ही चुके लोग हैं। धिक्कार है। )
PS: फ़िल्म देखते समय आलोक दीक्षित जो लक्ष्मी के साथी हैं वो पीछे ही बैठे थे।
PSS: फ़िल्म में देशभक्त शिरोमणि अंजना ओम कश्यप भी एक भूमिका निभा रही हैं। भक्तों ज़रा इनका भी बॉयकॉट करना।
फ़िल्म से जुड़े सभी लोगों को क्रांतिकारी ज़िन्दाबाद।
मर्दानगी के सबसे घिनौने अतिवाद से जन्म लेने वाले अपराध से गुजरी सभी साथियों को बहुत सम्मान, हौसला और ज़िन्दाबाद।।