रविवार, 29 मार्च 2020

चलते-चलते

जहाँ कोई वापसी नहीं

- अंकित झा 

आनंद विहार और कौशाम्बी के बीच जो भीड़ थी, वो भीड़ बरसों से है, बस कल वो भीड़ एकत्रित हुई थी, वापस जाने को। वापस जाने को उन शहरों से जहाँ उनसे लिए तो ख़ूब गया पर बदले में आश्रय, भोजन, सुरक्षा और स्वास्थ की गैरंटी तक नहीं दे पाएँ।
आज जो सब मज़दूर के मुद्दों पर विशेषज्ञ बन रहे हैं उन सब को जानना चाहिए कि वर्षों से मज़दूरों के आय सुरक्षा व सामाजिक सुरक्षा को लेकर लोग संघर्षरत हैं, उनमें से ये माँगे ज़रूरी रही हैं कि उनके आय की सुरक्षा हो किसी भी हाल में। आपदा, विपदा व विषाणु संक्रमण किसी भी समय आ सकते हैं। चलिए इस बार ये इतना दिख गया कि सब हरकत में आ गये वरना बाढ़ में, भूकम्प में, अभी हुए दंगों में, और हाँ आतंकवाद-कालेधन पे हुए वार ने भी मज़दूरों को इतना ही डराया था परंतु एक सुकून था कि काम तो चल रहे हैं कुछ नहीं होगा आज नहीं तो कल काम मिलेगा ही, पैसा आएगा ही। लेकिन जब 21 दिनों का पूर्णबंद हो, उस पर से अलग अलग अफ़वाहों द्वारा 3 महीने के बंद की बात की जा रही हो तो मज़दूर डरे नहीं तो क्या करे? कौन खिलाएगा? कितने दिन? किस तरह? वादों और वादों को निभाना और वादों को सही तरह से न्यायोचित ढंग से निभाने में बहुत अंतर है। हम ताली पीट सकते हैं कि दिल्ली सरकार ने प्रबंध किए हैं लेकिन ये प्रबंध सिर्फ़ आपदा प्रबंधन है मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा नहीं। जिन मज़दूरों का वोट पाकर वो सत्ता में आए उन मज़दूरों के लिए आवश्यक क़ानूनों को पालन तक नहीं करवा पाए अभी तक। अगर पथ विक्रेताओं का सर्वे हो गया होता तो उनके योजना अनुसार उनके आय की सुरक्षा हो जाती, अगर असंगठित मज़दूरों का 2008 क़ानून के हिसाब से पंजीकरण हो जाता तो आज उनके सामाजिक सुरक्षा जैसे स्वास्थ्य, व भोजन की व्यवस्था हो जाती और घरेलू कामगार, निर्माण कार्य मज़दूर, व अन्य डिहादी मज़दूरों की तो बात छोड़ ही दीजिए।
हमारे सामने जो हो रहा है वो सिर्फ़ इस सरकार की असफलता नहीं है, हमारे देश के सभी सरकारों की है। श्रम क़ानून, स्वास्थ्य सुविधाएँ, और सूचना प्रबंधन। ये तीनों इस तरह से लाचार हो गयी कि सामने कुछ दिख ही नहीं रहा। अंदर बंद रह के एक वर्ग को बचाया जा सकता है लेकिन इतने बड़े वर्ग को क्या बोला जाए? मज़दूर भी वो, मजबूर भी वो और दोषी भी वो ही?
जब बड़े-बड़े पढ़े-लिखे लोग मोबाइल पे अफ़वाहों को सच मान के बैठ जाते हैं तो उनसे क्या उम्मीद करें जिनके लिए "फ़ैक्ट-चेक" जैसा कॉन्सेप्ट उतना प्रबल नहीं है? उनके डर के ऊपर ये अफ़वाह के मसाले को पसरने से कौन रोक पाएगा? सरकार? जिसे इस समय भी शब्दों से खेलने में मज़ा आ रहा है। या फिर मीडिया जो अंताक्षरी खेल रहा है? कोई नहीं। हम भी नहीं। ग़रीब इस देश में ऐसे ही परेशान रहे हैं। रहेंगे। कुछ दिनों में मीडिया की कहानी बदल जाएगी, और भक्तों के नैरटिव भी जो आज ये कह रहे हैं कि दिल्ली में सारे परदेसी लोग निकल गये हैं बस रोहिंग्या और बांग्लादेशी बचे हुए हैं और दिल्ली सरकार उन्हें ही खिला रही है बस। आप इन अफ़वाहों के दलदल में जीते रहिए, हम अपने कमरों में जीते हैं, ये ग़रीब भी एक दिन पहुँच ही जाएँगे या तो अपने गाँव, जेल या फिर वहाँ जहाँ से कोई वापसी नहीं।

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