लॉकडाउन से पहले कुछ आवश्यक प्रश्न
- अंकित झा
लॉक डाउन शुरू होने के तीन दिन के अंदर स्थिति साफ हो गयी कि ये सब कैसे चलना है। बात साफ है कि हम लोग कभी ऐसी महामारी से जूझने के लिये तैयार ही नहीं थे। क्या ये तैयारी होती है? विषाणु (वायरस) पर्यावास का हिस्सा हैं, कई बार उन्हें वाहक मिलता है और फैलना शुरू कर देते हैं। क्या इतनी सी पांचवी क्लास का विज्ञान हमारे सरकारों ने नहीं पढ़ा? तो विषाणु के प्रकोप व संक्रमण के समय क्या करना चाहिए, कैसे सुरक्षित रहा जाए, इलाज कैसे हो और समाज के सबसे वंचित समूह के लिये क्या व्यवस्था की जाए, ये सब कौन और कब तय किया जाना चाहिए था। क्या लगातार बढ़ते संक्रमण के आंकड़े, सडकों चलते मज़दूर, रैन बसेरों में खाने के लिए लम्बी कतार, दुकानों में भारी भीड़, नेताओं बेतुके बयान, लोगो का बाहर निकलना, पुलिस की लाठी आपको प्रश्न करने पर विवश नहीं करती?
इस समय हमारे सामने दस मुख्य प्रश्न खड़े हैं:
इस समय हमारे सामने दस मुख्य प्रश्न खड़े हैं:
1. सबसे बड़ा प्रश्न, क्या इतने वर्षों के स्वायत्त स्वास्थ्य सुविधाओं के बावजूद हम केंद्र और राज्य स्तर पर विषाणु संक्रमण से निपटने, उसके विस्तार को रोकने, उसके इलाज के किये इकाई बनाने में असमर्थ हैं? सबसे बड़ी बात ये है कि हमारे देश में जांच की साधन ही नहीं है। साधन नहीं हैं इसलिए नतीजे नहीं आ रहे हैं। हम अभी भी मलेरिया, डेंगू और बुखार से मरने वाले देश हैं वहाँ विषाणु संक्रमण अवश्य ही एक बड़ा खतरा है। फिर स्वास्थ्य बजट में हर साल मामूली बढ़त इसमें सहायता तो नहीं करती।
2. हमारी चिकित्सा अनुसंधान इतनी कमजोर क्यों है? एक वैश्विक महामारी के इतने करीब होने के बावजूद पिछले तीन महीनों से पर्याप्त तैयारी नहीं की गई, ना लोगों के जागरूकता पर, स्वास्थकर्मियों के प्रशिक्षण पर और सबसे जरूरी रोकथाम व इलाज के लिए वैक्सीन पर?
3. क्या हमारे स्वास्थ्य कर्मी, पराचिकित्साकर्मी, प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस और नागरिक सेवा अधिकारी ऐसे संक्रमण, महामारी व रोगों से बचाव के उपायों को लेकर पूर्णतया प्रशिक्षित हैं? क्या इनके पास इससे निपटने के किये आवश्यक वस्तुओं की मौजूदगी है? उसे इस्तेमाल करना आता है? क्या ये समाज में उचित जागरूकता फैला सकते हैं? क्या ये न्यायोचित व बिना भेदभाव के इस पर कार्य कर सकते हैं? क्या इनकी सामाजिक ट्रेनिंग की गई है? क्या इनकी संवेदनशीलता पर कोई प्रशिक्षण लिया गया है? ज्ञान, समझ, संसाधन, जागरूकता व संवेदनशीलता सबसे आवश्यक हैं। क्या इस पर इतने वर्षों में कार्य किया गया है?
4. प्रशासनिक व सरकारी निर्णयों के अपने प्रभाव व दुष्प्रभाव होते हैं। अतः प्रधानमंत्री के निर्णय के भी हैं। प्रभावों की प्रतीक्षा रहेगी लेकिन दुष्प्रभाव सामने हैं, और ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं जिस पर कार्य किया जाना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ। ऐसा क्यों है कि प्रधानमंत्री को अपने हर देश के नाम संदेश के बाद सैकड़ों ट्वीट, आदेश और आग्रह करना पड़ता है? क्या हमारा प्रधानमंत्री कार्यालय इतनी खराब तैयारी करता है? क्या यह सोंच पाना इतना मुश्किल कार्य था कि लॉकडाउन के कारण मज़दूरों के आय के साधन रुक जाएंगे, उनका आवास छीन लिया जाएगा, उनपर संक्रमण के समय जांच के पैसे कहां से आएंगे? उनके पास साबुन व पानी कैसे पहुंचाया जाएगा? और कितने ही प्रश्न। हमारे वर्षो पुराने भेदभावपूर्ण मानसिकता के उजागर होने का ये चरम है, जब स्वास्थ्यकर्मी व हवाई सेवा से जुड़े लोगों को शोषित किया जा रहा है। अभी तक सेवाओं, सामाजिक सुरक्षा व सामने खड़े आर्थिक नाकाबंदी से उपजे संकटों के लिए कुछ भी तय नहीं किया गया है।
5. करीब 5 वर्ष पहले शुरू हुए श्रमेव जयते कार्यक्रम के अंतर्गत मज़दूरों और खासकर दिहाड़ी व अन्य असंगठित मज़दूरों की आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए गए थे। मज़दूरों की क्षमता विकास जरूरी कदम था लेकिन उनके स्वास्थ्य बीमा, कार्य सुरक्षा, आर्थिक स्वायत्तता, और आवासीय सुरक्षा के लिए क्या किया गया था? ऐसा क्यों है कि महीने भर की आर्थिक बंदी की वजह से मज़दूरों को अपनी शारीरिक सुरक्षा की परवाह किये बिना ट्रेन में ठुस के या पैदल ही अपने राज्य वापस जाना पड़ रहा है जहां न कार्य की गारंटी है ना स्वास्थ्य की?
6. आवश्यक्ता से अधिक संग्रहण व बचत भारतीय मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग की पहचान है। लेकिन यह संग्रहण जब पैनिक संग्रहण का रूप लेती है तो उनके लिए ही काल बनती है। ये डर क्या है? इस डर के ऊपर इतने वर्षों में कार्य क्यों नहीं किया गया? अभी खराब समय नहीं आया है, क्या इससे भी खराब समय जे लिए हमारा समाज तैयार है? क्या संसाधनों के उचित व न्यायोचित बंटवारे के लिए हमारा समाज तैयार है?
7. जिस समय चीन, दक्षिण कोरिया, व इटली जैसे देश कोविड-19 से निपटने के लिए कार्यरत थे और भारत में कई लोग लगातार इसपर कार्य करने की सलाह दे रहे थे उस समय हमारे देश के सरकार के लोग अपनी बेहूदगी, बीमारी के प्रति अपनी असंवेदनशीलता और अज्ञानता को नए आयाम दे रहे थे। कहीं कोई धूप में बैठने को बोल रहा था, तो कोई गौमूत्र पार्टी कर रहे थे, कोई गो कोरोना का पाठ कर रहे थे तो कोई हवन और नमस्ते का महत्व समझा रहे थे। ये असंजीदगी आज हम सब पे भारी पड़ रही है। क्या उन नेताओं को सार्वजनिक रूप से माफी नहीं मांगनी चाहिए? और इस सब की पराकाष्ठा 22 मार्च को सामने आई। शाम 5 बजे जो हमारे बेहूदगी और विषाणु के प्रति हमारी सामूहिक अज्ञानता का जो हमने परिचय दिया वो ऐतिहासिक है। ऐसी अज्ञानता पहले आडंबरों और अफवाहों में दिखती थी बस, उसे एक देश की सामूहिक मूर्खता का नाम उस दिन दिया।
8. इस समय सबसे आवश्यक है हमारे प्रशासन का रवैया। हम इस बात पर सहमत व असहमत हो सकते हैं कि पुलिस व प्रशासन को किस तरह इसे संचालित करना है। लेकिन जिस तरह के वीडियो सामने आ रहे हैं हम पूर्णतः असमंजस में हैं कि कौन सही, कौन गलत। लोग जो बाहर निकल रहे हैं या पुलिस जो बर्बरता से लाठी भांज रही है। लोगों के अपने कारण हैं, सही भी और गलत भी। पुलिस के भी। लेकिन पुलिस को ये फ्री हैंड किसने दिया लाठी भांजने का? फिर कोई राज्य सरकार कैसे कह रही है कि हमें दिखते ही गोली मारने का आदेश देने पर विवश ना करे। विषाणु के संक्रमण को रोकने के किये शूट एट साइट का आदेश? ये किस देश में हो रहा है? प्रशासन की प्रशंसा भी होनी चाहिए कि जिस निस्वार्थ भाव से वो लगे हुए हैं वो अद्वितीय है लेकिन स्वरूपों के मध्य छिपे रूपों को नकारना नहीं चाहिए।
9. कुछ राज्य सरकारों ने इस महामारी से निपटने में जो पहल की है वो बेहतरीन है। केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली, तेलंगाना और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जिस तरह कार्यरत हैं वो प्रशंसनीय है। लेकिन प्रश्न यही खड़ा होता है कि आगे क्या? कैसे? कब तक? न्याय वो है जो वंचितों व पीड़ितों के प्रति संवेदनशील हो। कांधे पर बच्चे व सर पर बोझा लिए पैदल चल रहे मज़दूर हमारे देश में गरीबों के प्रति सरकारी निराशा की प्रतीक है, उस पर से फैल रहे अफवाह-आडम्बर, धार्मिक नफरत और कुछ नेताओं की बेवकूफ़ी हमारा भविष्य करेंगे।
10. कोरोना विषाणु ने दुनिया को आईना दिखाया कि तमाम विकास के दावे, और परिवर्तन की डींगो के मध्य हमारी लचर स्वास्थ्य सुविधा, ऐसी महामारी से निपटने के लिए उचित तैयारी और संक्रमण को रोकने के लिए हमारी ततपरता कितने पीछे है। हो सकता है इसके बाद आर्थिक मामलों में स्वास्थ्य की दखल बढ़ाई जाए, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पर काम हो सबसे अधिक जरूरी है हमारी स्कूल शिक्षा में ऐसे समयों के सभी तरह के आयामों पर जागरूकता के लिए भी कार्य किया जाएगा, और सबसे जरूरी है कि समाज में वैज्ञानिक सोंच को बढ़ावा दिया जाएगा। दुर्गा सप्तशती और हवन से विषाणु व रोगों का अंत नहीं होता, वो हमें सांत्वना व संयम दे सकते हैं स्वस्थ नहीं कर सकते। इससे भी जरूरी है देश के असंगठित मज़दूर व अन्य गरीबो की आर्थिक सुरक्षा व सामाजिक सुरक्षा पर कार्य करना। देखते हैं, इन दस में से कितने प्रश्नों पर हम स्वयं से उत्तर की अपेक्षा कर सकते हैं।
ख़ैर, ये वो सत्य है जिसकी खोज हमें अगले 20 दिन घर पर रहते हुए भी करनी है। सुरक्षित रहें व सतर्क रहें।
ख़ैर, ये वो सत्य है जिसकी खोज हमें अगले 20 दिन घर पर रहते हुए भी करनी है। सुरक्षित रहें व सतर्क रहें।
निर्भय भव। ज़िंदाबाद।
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