सिर्फ़ अभिनेता नहीं था, सपनों के सच होने की आशा था सुशांत
- अंकित नवआशा
#सुशांत की मृत्यु हो गयी। कैसे हुई, ये उन्हें पता लगाने दीजिए जिनका काम है। अब ये हुआ है कि सारे अभिनेता, अभिनेत्री, निर्माता, निर्देशक, क्रिकेटर उनसे जुड़ी अपनी अपनी यादें तस्वीरों के जरिये साझा कर रहे हैं। लेकिन हम प्रशंसकों के हिस्से तो ऐसी कोई यादें नहीं होती। इसलिए हमारे जिससे प्रशंसा होती है, निराशा होती है और होती है बहुत सारी अधूरे छूट चुके अरमान। सुशांत मेरे लिए आगे बढ़ने की आशा थी, उसकी फिल्में हो सकता है फ़िल्म जगत की सर्वश्रेष्ठ ना हो, हो सकता है वो सर्वश्रेष्ठ अभिनेता ना हो लेकिन उसकी प्रतिभा, लगन और विश्वास के तो सब कायल थे। वर्तमान में सक्रिय जितने भी अभिनेता हैं उनमें कितनों की AIEEE की रैंकिंग 7 रही होगी, कितने लोग खगोल विज्ञान, भौतिक विज्ञान की बातें करते हैं, कितने हैं जो संघर्ष करके सीरियल, डांस कम्पनी, और फिर फिल्मों में आये? होंगे लेकिन कितने?
वर्तमान में सक्रिय सभी कलाकारों की कहानियां हैं, संघर्ष की। लम्बा, बहुत कुछ सहते हुए भी। लेकिन "काई पो चे" जब आयी तो राजकुमार राव और मानव कॉल जैसे अभिनेताओं के होते हुये भी सुशांत ने वाहवाही लुटी, अपने अभिनय से, अपनी उपस्थिति से। फ़िल्म के लिए उसने अवार्ड भी जीते। जिस दौर में आज का छोटे शहर के किरदार जीवंत कर देने वाला आयुष्मान खुराना फिल्मों में चरित्र से अधिक मॉडल लगता था उस वक़्त काइ पो चे में सुशांत राजकुमार और अमित ने छोटे शहर के लड़कों को जीवंत कर दिया था। उनके हाव भाव, उनका पहनावा, और उस पर से उनके किरदार की गहराई ने पर्दे पर छोटे शहर को अलग किरदार बना दिया था।
शुद्ध देसी रोमांस थोड़ी कमजोर थी लेकिन फिर छोटे शहर के लड़के के रोल में सुशांत ने जान डाल दी थी। लेकिन सुशांत कुछ भी लगातार नहीं करते रहना चाहते थे, वो पीके में पकिस्तान के सरफ़राज़ बने, फिर वो बने जासूस ब्योमकेश बक्शी। वो फ़िल्म जिसने मेरे लिए सुशांत को लेकर सारी अटकलें शांत कर दी, सिद्ध कर दिया ये सिर्फ अगला शाहरुख नहीं है, ये उसके आगे का कोई है। आप फ़िल्म देखिए फिर समझ आएगा इसने क्या मेहनत की, क्या किरदार निभाया है। 28 की उम्र में धोती, मूँछ लगाकर क्या चुनौती कबूल की। फ़िल्म ज्यादा चली नहीं। लेकिन सुशांत ने सिद्ध किया कि वो अवसर मिलने पर क्या कर सकता है। अब तक फिल्मों के लिए तैयारी, मेहनत करना इतना पॉपुलर नहीं था। आमिर खान करते। बाकी ज्यादा कोई नहीं, अजय देवगन एक ही मूँछ में 5 फिल्में कर लेते तो अक्षय कुमार एक ही फ़िल्म में 4 हेयर स्टाइल के साथ काम चला लेते। फिर आयी फ़िल्म धोनी द अनटोल्ड स्टोरी। हालांकि उस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं था जो अनटोल्ड हो लेकिन सुशांत ने अपने दम पर वो फ़िल्म देखने लायक बना दी थी। उसने जिस स्तर की मेहनत की वो सच मे अद्भुत था। फ़िल्म में चौके छक्के के अतिरिक्त जितना कुछ था वो सुशांत थे। वो सुशांत का धोनी बनना ही था कि रणवीर सिंह आज कल कपिल देव बने घूम रहे हैं, वरना अज़हरुद्दीन तो इमरान हाशमी भी बने ही थे। लेकिन एक फ़िल्म जिसने मुझे सुशांत का मुरीद बना दिया वो थी "सोनचिड़िया"। मनोज बाजपेयी, रणवीर शौर और आशुतोष राणा जैसे कलाकारों के होते जो सुशांत ने फ़िल्म में अपनी जगह बनाई, किरदार निभाया वो अद्भुत था। उनकी ये फिल्में साबित करती हैं कि सुशांत एक काबिल अभिनेता, बेहतरीन डांसर, विचारवान व्यक्ति और सजग व संजीदा कलाकार भी थे। लेकिन फिर क्या हुआ?
ये कि यह इंडस्ट्री बहुत देर से अवसर देती है, अवसर दे भी दिया तो स्वीकृति बहुत देर से देरी है, स्वीकृति हो भी गयी, एक हिस्से में ना सही तो समावेश नहीं हो पाता। यही है वो इंडस्ट्री। अवसर,अनुमति, स्वीकृति और समावेश। जब भी इसकी लड़ाई लड़ी गयी व्यक्ति को बहुत कुछ सहना पड़ा। केदारनाथ फ़िल्म में सुशांत का काम बड़े अभिनेता की बेटी सारा अली खान से कई बेहतर थी लेकिन पूरी तारीफ गयी अभिनेता की बेटी के हिस्से जैसे हाइवे के समय हुआ था। आलिया की वाहवाही खूब हुई लेकिन रणदीप के बेहतरीन काम का ज़िक्र तक नहीं। सरबजीत में ऐश्वर्या के बकवास अभिनय की खूब चर्चा हुई लेकिन ऋचा चड्ढा के अभिनय का ज़िक्र तक नहीं। 2013 में जिस साल सुशांत की पहली फ़िल्म आयी उस साल बेस्ट मेल डेब्यू का अवार्ड धनुष को मिला। धनुष बेहतरीन अभिनेता हैं और रांझणा में काम लाजवाब भी था लेकिन उससे पहले वो तमिल में खूब नाम कमा चुके थे ,राष्ट्रीय पुरस्कार तक जीत चुके थे, तो क्या ऐसे में सुशांत जैसे पदार्पण कर रहे कलाकारों को अवार्ड देना वाज़िब नहीं था? मुझे आज तक लगता है कि "पानीपत" में यदु अर्जुन कपूर की जगह सुशांत होते तो लाजवाब अभिनय करते, और आगामी पृथ्वीराज को लेकर भी यही लगता है। लेकिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री घरानों की इंडस्ट्री है। यहां जो बड़े निर्माता हैं सो सब कुछ नियंत्रित करते हैं। आदित्य चोपड़ा का सुशांत को नापसंद करना जगजाहिर है। इसीलिए शेखर कपूर की फ़िल्म "पानी" के निर्माम को हमेशा के लिए रोक दिया गया। करण जौहर ने कभी सुशांत को मौका नहीं दिया। जबकि सब जानते हैं वरुण धवन, सिद्धार्थ मल्होत्र के मुकाबले ज्यादा सक्षम अभिनेता थे। सूरज पंचोली और अर्जुन कपूर जैसे बिना किसी सिर पांव के अभिनेताओं को मौके लगातार मिल रहे हैं। कई बार बड़े अभिनेताओं को बिना किसी घराने के आये अभिनेताओं के फ़िल्म में रोल को लेकर काफी चिंता रहती है, जैसे धर्मपुत्र सन्नी देओल को शाहरुख के किरदार को लेकर हो गयी थी। और ये सब कुछ यूं ही चलता रहेगा, हमें इरफान खान के साथ की गई नाइंसाफी याद नहीं रहेगी तो ये तो सुशांत था। छोटे शहर से आया लड़का जिसने बड़े घरानों के लड़कों को उन्हीं के गढ़े परिभाषाओं में जवाब दिया था। लेकिन वो सब एक आशा के साथ फंदे के सहारे लटकी मिली।
यही है, हमने सुधीर कुमार, सुशील कुमार के गायब होने के किस्से सुने, दिव्या भारती की मृत्यु के किस्से सुने, अब सुशांत के सुनेंगे।
शुक्रिया सुशांत यह बताने के लिए कि छोटे शहरों में सपने देखना गुनाह नहीं है। तुम बने रहते तो बात और भी अच्छी होती।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें