सोमवार, 10 जून 2019

प्रशंसक का पोस्ट


धन्यवाद युवराज, देश को क्रिकेट से इश्क़ करवाने के लिए.
- अंकित झा 

दुनिया के लिए युवराज 2011 विश्व कप और 2007 टी20 विश्वकप का हीरो होगा. मेरे लिए युवराज क्रिकेट का मेरा पहला पोस्टर बॉय था. मैंने उस दौर में क्रिकेट शुरू किया जब सचिन सहज हो चुके थे, गांगुली कप्तान बन गये थे और हमने विदेश में नए कीर्तिमान रचने शुरू कर दिए थे. अब बाहर जाती गेंदो पर ड्राइव लगाते समय बल्लेबाज़ एक बार सोंचता ज़रूर थे अगर थोड़ी सी भी टाइमिंग में गड़बड़ी हुई तो बैक्वर्ड पोईंट में एक उड़ता पंजाब खड़ा है. नाम युवराज सिंह. ऊँची क़द का वो खिलाड़ी जो नैट्वेस्ट ट्रोफ़ी 2002 के फ़ाइनल में इंगलैंड के ख़िलाफ़ खेले अपने उस 69 रन की पारी से मेरे दिल में बस गया. उसका वो आउट होने के बाद निराश हो के जाना मेरे बचपन की सबसे बड़ी टीस थी. फिर मुझे उसका न्यूजीलैंड में संघर्ष करती भारतीय बल्लेबाज़ी का इकलौता चमकता सितारा याद है जो रन कम बनाता था पर आके खड़ा होता था. जेकब ऑरैम, डीमन टफ़्फ़ी, शेन बॉंड की गेंदें झेलता था. ऑस्ट्रेल्या के विरुद्ध सिड्नी में खेली गयी 139 रन की वो पारी मैं कभी नहीं भूल सकता. रेडीओ पर सुनी गयी वो पारी आज तक मेरे ज़हन में है. ईयन हार्वी को लगाए गये वो छक्के भारत के क्रिकेट में आने वाले बेहतरीन दौर की शुरुआत थी, अगर बारिश नहीं हुई होती तो वो मैच भारत कभी नहीं हारता. फिर 2004 पाकिस्तान के विरध लाहोर टेस्ट में वो शतक जिसमें उसने साबित किया कि टेस्ट में भी वो किसी से कम नहीं है.
2005 में फ़ॉर्म ख़राब और फिर टीम में वापसी के बाद वेस्टइंडीज़ के विरुद्ध लगाया वो शतक भी कम यादगार नहीं था, जब युवराज के मुँह से गालियाँ फूट पड़ी थी. वो ग़ुस्सा उसके चरित्र की द्योतक थी. दौड़ूँगा, गिरूँगा, फिर उठूँगा, दौड़ूँगा, फिर गिरूँगा, फिर उठूँगा, और यूँ ही क्रम चलता रहेगा. युवराज द्रविड़ की टीम का वो हिस्सा था जिसके बिना जीतना नामुमकिन सा था. प्रमाण के लिए 2006 में लगातार 3 सिरीज़ (दक्षिण अफ़्रीका, पाकिस्तान और इंगलैंड) में मैन और दी सिरीज़ रहे तो टीम तीनों सिरीज़ नहीं हारी और फिर वेस्ट इंडीज़ में जब बल्ला कुछ शांत हुआ तो भारत वो सिरीज़ 4-1 से हारा. 2007 के बाद क्रिक्केट का एक नया दौर शुरू हुआ. टी20 वाला दौर जब क्रिकेट पर चकाचौंध छा गयी. इस चकाचौंध में युवराज सिंह ने अपनी अलग चमक बनायी, फिर वो छः छक्के हों, या कमर दर्द के साथ राजकोट में खेली गयी 138 की अद्भुत पारी. युवराज वो सब हैं जो फ़ैन उसे कहते हैं, वो सब जो आलोचक उसे कहते हैं, वो सब जो उसने हासिल किया, वो सब जो वो नहीं कर पाया, वो सब जो उसके पहले क्रिकेट में था, वो सब उसके बाद भी होगा. युवराज मेरे लिए क्रिकेट था और क्रिकेट मेरे लिए युवराज. युवराज कैन्सर के विरुद्ध लड़ाई है, युवराज 2014 टी20 वि श्व कप फ़ाइनल की नाकामी है, युवराज विश्व कप का हीरो है, युवराज वो यादें हैं जिसने कितनी ही बार हमें उस दौर में मुस्कुराने का मौक़ा दिया जब क्रिकेट इतनी तेज़ नहीं हुआ करती थी.
युवराज मेरे लिए वो सब पारी हैं, जिन सब के बदौलत उनके प्रति मेरी दीवानगी बढ़ती गयी.
युवराज भारतीय क्रिकेट का वो नाम है जिसने अज़हरुद्दीन युग के मध्यक्रम बल्लेबाज़ी की निराशा से गांगुली युग की आशा, द्रविड़ युग के आरोहण और धोनी युग की दबंगई से दुनिया को अवगत करवाया. क्रिकेट के मैदान पर युवराज मुझे हमेशा याद रहेंगे, उनके अलविदा कहने से दुःख तो है लेकिन खेल यही है, जीवन यही है, कुछ भी हमेशा के लिए नहीं है. बाक़ी और भी लिखेंगे, तब तक के लिए इतना ही कि युवराज एक भावना है, आज भारतीय क्रिकेट में एक भावना की लहर थोड़ी कम हो गयी.

रविवार, 9 जून 2019

कविता

परेशानी

- अंकित झा 


सुनों,
उन्हें तुम्हारे चुटकुलों से
परेशानी होने लगी है।
हो सकता है कल तुम्हारे
बोलने से भी होने लगे।
आज हंसाने से हुई है,
कल हँसने से भी होने लगे।
परेशानी ही तो है,
ना जाने कब हो जाये,
किससे हो जाये,
कौन समझाता फिरे,
कौन बताता फिरे,
हमारे हिस्से में कल तक प्रतिरोध था,
आज बस विरोध बचा है,
हो सकता है कल सिर्फ
अनुरोध बचे।
ये सब होने से पहले,
हमें तय करना होगा,
हमारे संघर्ष के आयाम,
जहाँ किसी धर्म के चक्कर में
दो बेटियों में फर्क नहीं करेंगे,
जहाँ जाति को लेकर
मृत मनुष्यों में फर्क नहीं करेंगे,
जहाँ दल को लेकर दो
नेताओं में फर्क नहीं करेंगे,
और भी बहुत कुछ।
जिससे हमारी करुणा
सबके साथ रहे,
हमारा सम्मान
सबके प्रति रहे,
और हमारा मज़ाक
सबके लिए बराबर हो।
इतना ही करना है
इन स्वयंभुओं से लड़ने के लिए,
जो धिक्कारते और ललकारते रहेंगे
तुम्हारी अच्छाई के पीछे छिपी
ज़ाहिलियात को।
लेकिन हम यूँ ही रहेंगे
तटस्थ।
अपने विचारों और संघर्षों के साथ।।

सोमवार, 3 जून 2019

परिवर्तन से परे

यातायात का अधिकार होना ही चाहिए, इसमें यद्यपि-कदापि कुछ नहीं 
- अंकित झा 

शहर में जीवन यापन करने का अर्थ है कमाई व खर्च का हिसाब। कितनी कमाई होती है और उसका कितना हिस्सा हम अपनी सबसे आवश्यक आपूर्तियों के लिए करते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से समाज के उस श्रेणी से आता हूँ जिसमें ये हिसाब रखना पड़ता है, कुछ दिनों के अपवाद के साथ। शहर में रहने के कई खर्चों में मुख्य 4 खर्च हैं: आवास, भोजन, स्वास्थ्य और काम पे जाने का किराया। इनमें से किसी एक के भी बढ़ने पर हमें विचार करना पड़ता है। संतुलन शहरी जीवन का मूल सिद्धांत है।
कभी कभी इन सभी खर्चों के साथ हमें चाहिए सुविधा, सम्मान और सुरक्षा। आवास की। भोजन की। स्वास्थ्य की। और यातायात की?? क्या दिल्ली के यातायात में सुविधा, सम्मान और सुरक्षा है? शायद हाँ और शायद नहीं। फिर भी हम सार्वजनिक यातायात के साधनों से मुंह नहीं मोड़ सकते। दिल्ली के पहले 5 वर्ष 2012 से 2017 तक अधिकांश सफर डीटीसी की बसों में किया है (साथ में क्लस्टर बस भी शामिल हैं)। कुछ समय मेट्रो में भी किया और कुछ दोस्त की गाड़ी में भी। फिर जब कमाने लगे तो कार्यक्षेत्र दूर था और विभिन्न भी तो मेट्रो पे आ गए। दिन के 72 रुपये सिर्फ काम और जाने और आने के। जीटीबी नगर से हौजखास तक। यह बहुत महंगा सफर है। लेकिन यहाँ सुविधा भी है, सुरक्षा भी कुछ हद तक और सम्मान भी कुछ देर तक। मैं अक्सर सोंचता हूँ कि मेट्रो में इतने मर्द क्यों भरे रहते हैं? मेट्रो में एक महिला डिब्बे का होना कोई सम्पूर्णता नहीं है। यह एक खालीपन है। एक डिब्बा विशेष होने के बाद भी संख्या एक तिहाई क्यों है महिला यात्रियों का मेट्रो में? क्या वे यात्रा नहीं करती? मतलब क्या वे काम पर नहीं जाती? क्या वे पढ़ाई करने नहीं जाती? क्या वे घूमने नहीं जाती? क्या वे भी एयरपोर्ट और स्टेशन जाने के लिए मेट्रो को भूल जाती हैं? फिर सार्वजनिक यातायात का क्या मतलब शहर में?
दिल्ली में जब महिलाओं के लिए मेट्रो व डीटीसी बसों में सफर मुफ्त करने का प्रस्ताव आया तो लगा कि सरकार आखिरकार उस चौथे खर्च को समझी है। अगर चौथा खर्चा नहीं होगा तो बाकी तीन पर ध्यान दे पाएंगे। बस और मेट्रो के नाम और अगर सुविधा, सुरक्षा और सम्मान मिलेगा तो शायद दनदनाती कैब और ऑटो से निज़ात मिलेगी। वो महिलाएं जो काम पर जाती हैं अब निश्चिंत होकर बस में सफर कर सकती हैं वो उस 30 रुपये के किराए को वह शायद अपने लिए खर्च कर पाए। रोटी पर, या जो भी वो खरीदना चाहे। कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा को अब मेट्रो कार्ड रिचार्ज करवाने के लिए पैसे नहीं मांगने पड़ेंगे। उस पैसे से शायद वो किताब खरीद ले, या जो मन में आये वो करे।
हाँ मुफ्त की चीज़े बांटने से मुफ्तखोरी की आदत लग जाती है। गलत। सार्वजनिक सुविधाओं का मुफ्त में मिलना एक वेलफेयर सरकार की जिम्मेदारी है। बुनियादी सुविधाएं यदि मुफ्त की जाएं तो वह उन सुविधाओं को समावेशी बनाता है। जो ये तर्क आ रहा है कि महिलाएं अपने खर्च वहन कर सकती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं है। शौक से करें। लेकिन आप समाज में प्रतिनिधित्व को अवश्य देखें। सशक्त महिलाएं इसे अपने अभिमान पर ना ले कि हम मुफ्त में कुछ नहीं लेते। मुफ्त कोई एहसान नहीं है सरकारी कर्तव्य है और वो होना ही चाहिए। दिल्ली एक बहुत बड़े शहरी परिवेश का नाम है जिसमे दिल्ली के अलावा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भी हिस्से आते हैं। और दिल्ली में काम करने वाली जनसंख्या चहुँ ओर से आती है। यह प्रस्ताव शायद देश मे यातायात के अधिकार को और सशक्त करेगा ऐसी आशा है। सार्वजनिक यातायात के साधनों को तवज्जो देना आवश्यक है। सामाजिक आर्थिक मायनों पर भी यह निर्णय खरा है। अब प्रश्न है खर्च के संतुलन का। सरकार के लिए। वो सरकार देखेगी। और देखना भी चाहिए। आप महिलाओं के साथ खुश हो कि कामकाजी हो या ग़ैरकामकाजी, छात्रा हो दूर शहर से घूमने आए कोई परदेसी सरकारी यातायात के साधनों में चढ़ने से पहले सोंचना नहीं पड़ेगा। सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ सबसे पहले उस परत को मजबूत करने से होता है जो सशक्त होते हुए भी दवाब अधिक सहती है। जैसे महिलाएं।
ज़िंदाबाद।।

परिवर्तन से परे

यातायात का अधिकार: महिलाओं से शुरुआत, रास्ते और भी तय होने बाक़ी हैं। 

- अंकित झा
शहर में जीवन यापन करने का अर्थ है कमाई व खर्च का हिसाब। कितनी कमाई होती है और उसका कितना हिस्सा हम अपनी सबसे आवश्यक आपूर्तियों के लिए करते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से समाज के उस श्रेणी से आता हूँ जिसमें ये हिसाब रखना पड़ता है, कुछ दिनों के अपवाद के साथ। शहर में रहने के कई खर्चों में मुख्य 4 खर्च हैं: आवास, भोजन, स्वास्थ्य और काम पे जाने का किराया। इनमें से किसी एक के भी बढ़ने पर हमें विचार करना पड़ता है। संतुलन शहरी जीवन का मूल सिद्धांत है। 

कभी कभी इन सभी खर्चों के साथ हमें चाहिए सुविधा, सम्मान और सुरक्षा। आवास की। भोजन की। स्वास्थ्य की। और यातायात की?? क्या दिल्ली के यातायात में सुविधा, सम्मान और सुरक्षा है? शायद हाँ और शायद नहीं। फिर भी हम सार्वजनिक यातायात के साधनों से मुंह नहीं मोड़ सकते। दिल्ली के पहले 5 वर्ष 2012 से 2017 तक अधिकांश सफर डीटीसी की बसों में किया है (साथ में क्लस्टर बस भी शामिल हैं)। कुछ समय मेट्रो में भी किया और कुछ दोस्त की गाड़ी में भी। फिर जब कमाने लगे तो कार्यक्षेत्र दूर था और विभिन्न भी तो मेट्रो पे आ गए। दिन के 72 रुपये सिर्फ काम और जाने और आने के। जीटीबी नगर से हौजखास तक। यह बहुत महंगा सफर है। लेकिन यहाँ सुविधा भी है, सुरक्षा भी कुछ हद तक और सम्मान भी कुछ देर तक। मैं अक्सर सोंचता हूँ कि मेट्रो में इतने मर्द क्यों भरे रहते हैं? मेट्रो में एक महिला डिब्बे का होना कोई सम्पूर्णता नहीं है। यह एक खालीपन है। एक डिब्बा विशेष होने के बाद भी संख्या एक तिहाई क्यों है महिला यात्रियों का मेट्रो में? क्या वे यात्रा नहीं करती? मतलब क्या वे काम पर नहीं जाती? क्या वे पढ़ाई करने नहीं जाती? क्या वे घूमने नहीं जाती? क्या वे भी एयरपोर्ट और स्टेशन जाने के लिए मेट्रो को भूल जाती हैं? फिर सार्वजनिक यातायात का क्या मतलब शहर में? 

दिल्ली में जब महिलाओं के लिए मेट्रो व डीटीसी बसों में सफर मुफ्त करने का प्रस्ताव आया तो लगा कि सरकार आखिरकार उस चौथे खर्च को समझी है। अगर चौथा खर्चा नहीं होगा तो बाकी तीन पर ध्यान दे पाएंगे। बस और मेट्रो के नाम और अगर सुविधा, सुरक्षा और सम्मान मिलेगा तो शायद दनदनाती कैब और ऑटो से निज़ात मिलेगी। वो महिलाएं जो काम पर जाती हैं अब निश्चिंत होकर बस में सफर कर सकती हैं वो उस 30 रुपये के किराए को वह शायद अपने लिए खर्च कर पाए। रोटी पर, या जो भी वो खरीदना चाहे। कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा को अब मेट्रो कार्ड रिचार्ज करवाने के लिए पैसे नहीं मांगने पड़ेंगे। उस पैसे से शायद वो किताब खरीद ले, या जो मन में आये वो करे। 
हाँ मुफ्त की चीज़े बांटने से मुफ्तखोरी की आदत लग जाती है। गलत। सार्वजनिक सुविधाओं का मुफ्त में मिलना एक वेलफेयर सरकार की जिम्मेदारी है। बुनियादी सुविधाएं यदि मुफ्त की जाएं तो वह उन सुविधाओं को समावेशी बनाता है। जो ये तर्क आ रहा है कि महिलाएं अपने खर्च वहन कर सकती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं है। शौक से करें। लेकिन आप समाज में प्रतिनिधित्व को अवश्य देखें। सशक्त महिलाएं इसे अपने अभिमान पर ना ले कि हम मुफ्त में कुछ नहीं लेते। मुफ्त कोई एहसान नहीं है सरकारी कर्तव्य है और वो होना ही चाहिए। दिल्ली एक बहुत बड़े शहरी परिवेश का नाम है जिसमे दिल्ली के अलावा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भी हिस्से आते हैं। और दिल्ली में काम करने वाली जनसंख्या चहुँ ओर से आती है। यह प्रस्ताव शायद देश मे यातायात के अधिकार को और सशक्त करेगा ऐसी आशा है। सार्वजनिक यातायात के साधनों को तवज्जो देना आवश्यक है। सामाजिक आर्थिक मायनों पर भी यह निर्णय खरा है। अब प्रश्न है खर्च के संतुलन का। सरकार के लिए। वो सरकार देखेगी। और देखना भी चाहिए। आप महिलाओं के साथ खुश हो कि कामकाजी हो या ग़ैरकामकाजी, छात्रा हो दूर शहर से घूमने आए कोई परदेसी सरकारी यातायात के साधनों में चढ़ने से पहले सोंचना नहीं पड़ेगा। सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ सबसे पहले उस परत को मजबूत करने से होता है जो सशक्त होते हुए भी दवाब अधिक सहती है। जैसे महिलाएं।
ज़िंदाबाद।।

रविवार, 2 जून 2019

असम्भव के किनारे

विध्वंश 

- अंकित झा

क्या नज़रिए के साथ हमारी
आँखें और नज़र भी अलग हैं
जो हम नहीं देख पाते समाज को 
एक तरह से? 
क्यों नहीं देख पाते हैं कुछ लोग 
गरम सड़क पर उबलते पैरों को, 
खेत की मेड़ पर आसमान में 
एक तक निहारती आँखों को,
जिन्हें तलाश है पानी एक बूँद की, 
क्यों नहीं देख पाते लाल हो चुके 
हरे-भरे जंगलों को, 
क्यों नहीं दिखता सिर पर मैला उठाए 
मनुष्य 
और भी बहुत कुछ जो कुछ को दिखता है
और कुछ को बिलकुल नहीं 
क्या आँखों के ऊपर भी कोई परत होती है
अलग सी, लेंस की तरह? 
अगर नहीं होती है तो क्यों हमारी आँखें 
भरती नहीं है, 
भीड़ द्वारा मार दिए गये 
किसी परिवार के मुखिया की मृत शरीर को देखकर, 
क्यों ये आँखें भावनाशून्य हो जाती हैं, 
अपनी ज़मीन की रक्षा करते हुए 
शहीद हो रहे आदिवासियों की मृत्यु पर। 
क्या विचारों की तरह 
हमारे दिमाग़ भी अलग हो गए हैं, 
जो नहीं याद कर पाते वो ज़ुल्म, 
वो अपघात, वो दरिंदगी 
जो हम मनुष्यों ने ही की है, 
किसी अन्य मनुष्य पर
जाती, लिंग, धर्म और रंग के नाम पर। 
हमारी कहानियाँ अब अलग 
क़लम से लिखी जाती है, 
हमारी कहानियों में अब काग़ज़ भी अलग 
हो चले हैं, 
हम ऐतिहासिक रूप से 
प्रेम में धिक्कारे हुए समाज हैं, 
कुछ ऊब चुके हैं इस धिक्कर से, 
अतः उन्हें बस अब प्रतिशोध में जीना है, 
कुछ आज भी तलाश में हैं, 
उस प्रेम के जो निस्वार्थ है,
समर्पण और प्रगति के प्रति हमें 
प्रेरित करती है, 
और शायद यही वो अंतर है 
जो नज़र, नज़रिया, आँखें, विचार 
और दिमाग़ को अलग करती हैं। 
वरना कोई मनुष्य 
किसी भी मनुष्य की मृत्यु पर
उन्माद में नाचेगा क्यों?