शुक्रवार, 3 मई 2013

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~ स्वपन, शारदा, सांत्वना ..... व सज़ा~ 
                                                                        - अंकित झा 

 बंगाल में सपनों की कमी नहीं है, यही कारण है कि सपने टूटने पर बिखड़ जाने वालों की कमी भी नहीं है, कमी है तो उन सपनो को सही मार्ग दिखाने वाले दर्शन की। अक्सर यही होता है, पहले महाराष्ट्र में हुआ अब बंगाल में हो रहा है। जब किस्मत मनुष्य पर मेहरबान नहीं होता तो वो मृत्यु को अपना खुदा समझ लेता है।

कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
इहि खाए बौरात जग, इहि पाए बौराए।।।।।।।

कमबख्त पैसा। चीज़ ही ऐसी है। किसी को भी दीवाना कर देती है। याद कीजिये जरा 'श्री 420' के राज कपूर का वो संवाद "सुना था इंसान पहले कभी बन्दर था, आज तो पैसों की लालच ने इसे कुत्ता बना दिया है।" या फिर याद कीजिये नीरज वोरा निर्देशित 'फिर हेरा फेरी' का वो दृश्य जब 'लक्ष्मी चिट फण्ड' के हाथों लुटने के पश्चात तीनों सहचरी मारे-मारे फिरते हैं। चिट फण्ड से याद आया, आज कल चिट फण्ड घोटाला बड़े जोरों शोरो पर है। ये पुराना फ़साना है बस गुनगुनाया आज गया है। पश्चिम बंगाल के शारदा ग्रुप का पर्दा-फाश होना कटाई संजोग नहीं है वरन यह उस घड़े के फुटने के जैसा है जिससे पहले से ही पानी रिस रहा हो। धोखेबाजों का गुट जिसे गिरोह कहते हैं, एक दुसरे के प्रति बड़े ईमानदार होते हैं, परन्तु सिर्फ भंडाफोड़ तक। बाकि तो वे धोखेबाज़ हैं ही। क्या है कि आम जनता को ये कुछ हसीं सपने देखने वाले लोग बेवकूफ और कठपुतली समझने लगते हैं। लोग काम भी वैसा ही करते हैं। जहाँ पैसा बनाने का तरकीब सुझा, अपने कमाई झोंक दी। कहाँ, क्या, किस उद्देश्य से, पैसा लगाया कौन फ़िक्र करे। सिक्यूरिटी दी है अच्छा ब्याज मिलेगा। बंगाल जैसे समझदार प्राणियों के राज्य में ऐसा होता है, दुखद है। इसका कारण क्या है? क्षोभ, मोह, माया लालच, सपने या फिर मुक़द्दर। किसको दोष दें? स्वयं को, बच्चों को, इन धोकेबाज़ों को, दलालों को या सरकार को। अब क्या करें? भुगतें, लड़ें, या टूट के लटक जायें। 
कई प्रश्न हैं, उनके उत्तर ढूंढने से भी नहीं मिल पते हैं। दीदी का ये बुरा दौर चल रहा है। उनका एक सांसद, इसी ग्रुप के एक समाचार एजेंसी का सीईओ था, तथा ऐसे दुस्साहसी कृत्य के बावजूद राज्य सरकार का रवैया संतोषजनक नहीं है। दीदी की दृढ जबान नित्य फिसलती जा रही है। उनकी जबान ठीक उसी तरह ढह रहा है जैसे पडोसी मुल्क (बंगला देश ) का राणा प्लाजा। पहले एसऍफ़आई के कार्यकर्त्ता के मृत्यु पर दिया गया वह बेतुका बयान, तत्पश्चात घोटालें में नुकसान के बाद उसके भरपाई हेतु तम्बाकू उत्पादों पर बढें कर के तर्क में दिया गया वह बचकाना बयान। पता नहीं दीदी की संजीदा सोंच कहाँ विचरण करने चली जाती है। बहरहाल, आते हैं चिट-फण्ड घोटाले पर। अब इस घोटाले की बारीकियां क्या समझाईं जाये, बंगाल के लोगों को लगता है मनो पैसा कमाना कितना आसान है। यदि बांग्लादेश में मोहम्मद युनुस का फोर्न्मुला चल सकता है तो बंगाल में पैसों से पैसा बनाने का क्यों नहीं। और बस यहीं वे भूल कर बैठते हैं। बंगाल के अधिकांश शहर यदि कोलकाता, मुर्शिदाबाद व हावड़ा को छोड़ दें तो काफी पीछडे हैं। यहाँ तक कि बर्धमान, दार्जीलिंग व मेदिनीपुर जैसे जिले भी। यह भी एक कारण है कि इन इलाकों में बैंकों की भी कमी है, जिस कारण ये अपनी कमाई ऐसे चिट-फण्ड में लगाने को विवश हैं। कोलकाता, जलपाईगुडी, मालदा जैसे शहरों में चिट-फण्ड की कंपनियाँ घात जमाये बैठी हुई है जो सुदूर ग्रामीण इलाकों से प्रस्थापित होकर आये लोगों के सपनो को अपना शिकार बनाते हैं। बंगाल में सपनों की कमी नहीं है, यही कारण है कि सपने टूटने पर बिखड़ जाने वालों की कमी भी नहीं है, कमी है तो उन सपनो को सही मार्ग दिखाने वाले दर्शन की। अक्सर यही होता है, पहले महाराष्ट्र में हुआ अब बंगाल में हो रहा है। जब किस्मत मनुष्य पर मेहरबान नहीं होता तो वो मृत्यु को अपना खुदा समझ लेता है। खुदा अर्थात सुख, शांति, सम्पन्नता, मोक्ष तथा इहलोक के दुखों का अंत। 


क्या ऐसे लूटेरों की जालसाजी के लिए अपनी ज़िन्दगी समाप्त कर देना एकमात्र रास्ता है? हो सकता है कि लोग ये ही सोचते हो। क्या रास्ता बचता है फिर; वही बदनामी, शर्मिंदगी, पछतावा, आभाव व भूखमरी। जिनका कुछ लुटा वे बर्बाद हुए व जिनका सर्वस्व चला गया, वे भी बर्बाद हुए। यदि कोई आबाद हुआ तो वे हैं, ये जालसाज व इनके सहयोगी। क्या भुगत लेगा वो? कुछ वर्षों की जेल। जेल में भरपेट भोजन, ऐश-ओ-आराम। परन्तु जिनका सबकुछ चला गया, वो क्या करेंगे? लटकेंगे, विष का प्याला गटकेंगे और अगर थोड़ी हिम्मत होगी तो घुट-घुट के जियेंगे। अर्थात 'हेवन ऑन अर्थ।' वो मरने के बाद वहीँ जाते है न।
क्या होगा आगे? पता नहीं। कुछ और भंडाफोड़ होंगे। कुछ और सुदीप्त सेनगुप्ता मिलेंगे, कुछ और लुटेरी शारदा मिलेगी और मिलेंगे कुछ और मूर्ख पीड़ित। या  लालची पीड़ित या कहेइह्न लचर लालची। जो बर्बादी हुई, उसका भरपाई हो जाएगा, हो जाये। अब भविष्य में ऐसा न हो बस ये ध्यान रहे। बड़े मुश्किल से ये देश साहूकार व सूदखोरों के चंगुल से बाहर निकला है कहीं फिर से उसी गर्त में न चला जाये।।।।।। 

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