सोमवार, 27 मई 2013

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संभाल के, कोई देखे ना!! 
                                                   - अंकित झा

 'कृपा, चमत्कार',,,, ये सब कतई ईश्वर के कारनामे नहीं हैं, ये तो मनुष्य के हथकण्डे हैं, उनकी भक्ति व श्रद्धा को भुनाने के। हिंदी फिल्मों में फूल गिरना व मंदिर के घंटियों का स्वतः बजने लगना सहज ही नहीं है वरन यह मानवीय संवेदनाओं का एक महत्वपूर्ण इजाद है। 

मुझमे तुझमे है भेद  यही,
मैं नर हूँ तुम नारायण ।
मैं हूँ संसार के हाथों में,
       संसार तुम्हारे चरणों में।।

एक नया दौर चल पड़ा है, स्वयं को नास्तिक कहलवाने का। एक वो दौर भी था जब समाज में एक सुर होते थे थे और एक असुर। दोनों ही के मन में श्रद्धा होती थी, दोनों के मन में ही इश्वर की चाह थी। दोनों तपस्या भी करते थे दोनों में अंतर था तो सिर्फ वरदान के उपयोग का। अर्थात असुर भी नास्तिक नहीं होते थे, हरिण्यकश्यप विष्णु को नहीं मानता था परन्तु वह नास्तिक नहीं था। फिर कलयुग में ऐसा क्या हो गया कि समाज का सभ्य व्यक्ति स्वयं को नास्तिक कहलवाना अपनी शान समझता है। ईश्वर व अन्धश्रद्धा के बीच का द्वंद्व सिर्फ दो गैर-भारतीय प्रख्यात विचारकों के बीच का द्वंद्व नहीं है। नए समाज के लिए उनका नाम ले लूँ- हेगेल व मार्क्स। गीता में भी ईश्वर के होने की बात कही गयी है। मेरा एक मित्र है, उसके मन में नित्य एक प्रश्न हिलोरे लेता है कि 'दुनिया किसने रची?' यदि भगवान ने तो भगवान को किसने बनाया? और यदि 'बिग बंग थ्योरी' से दुनिया बनी तो उसे सिद्ध करें। यही प्रश्न मेरे मन में भी आता है और लगभग हर उस मनुष्य के मन में आता होगा जिसमे श्रद्धा के लिए वक़्त है। खोखली बुनियाद पर अपनी शान बघारने के लिए अपने आप को नास्तिक कहना कतई सभी समाज के मानव को शोभा नहीं देता। कोई इनसे पूछ ले कि क्यों नहीं मानते इश्वर को? तो उनके उत्तर सुनिए, भगवान होते हैं क्या? कहाँ होते हैं बताओ? कोई धर्म को गाली देगा तो कोई कृत्यों को। वह कहते हैं कि दुनिया विज्ञान से बनी है व विज्ञानं से ही विकसित हुई है, वो समझ क्यों नहीं पाते कि जिसे वो विज्ञान समझ रहे हैं, वह ईश्वर का एक अंश मात्र है। नास्तिक बनने की होड़, अक्सर हमें विज्ञानं का पुजारी बना देती है, वो विज्ञान जिसे 'वि-ज्ञान' ही इसलिए कहा गया क्योंकि ये विध्वंश का ज्ञान है। जिसे समाज के ठेकेदारों ने विशिष्ट  ज्ञान कह दिया। क्या कल का जन्मा विज्ञानं, ईश्वर का स्थानापन्न है। एक सहपाठी मुझसे कहता है कि क्या व्रत व पूजा करने का कोई वैज्ञानिक कारण दे सकते हो? उसको उस वक़्त न सही पर अब का दो टूक जवाब, अपने जन्म का कोई वैज्ञानिक कारण दे दो, होते तो ऐसे हैं पर हुए क्यों?
   नास्तिक समाज किसी भी देश का हित नहीं कर सकती। कहते हैं, ईश्वर, मनुष्य के हृदय में बसते हैं, ईश्वर से घृणा अर्थात अपने हृदय से घृणा। अपने हृदय से घृणा करने वाला समाज क्या कभी राष्ट्रहित कर सकता है।  
अब बात उस वाक्य की, जिसका मैं कट्टर विरोधी हूँ, यह बयान जर्मन विचारक (विद्वान नहीं कहूँगा) कार्ल मार्क्स का- "धर्म जनता के लिए अफीम के नशे की तरह है।"
मार्क्सवाद अपने आप में नास्तिकता का कोई सिद्धान्त नहीं है परन्तु पूंजीवाद का विरोध जब मानस के हृदय में ईश्वर या कहें धर्म के प्रति घृणा पैदा कर दे तो वो कतई सामंत व्यवस्था नहीं रह जाएगा। जिस तरह मजदूर अफीम के नशे से अपनी वास्तविकता को भुला देता है उसी तरह धर्म भी कहीं न कहीं ये करने को विवश कर देता है। होता होगा जर्मनी में ऐसा, वहां का नहीं पता। यहाँ तो ईश्वर को मानव के रूप में ही पूजा जाता है। धर्म भगवन से नहीं है वरन भगवन धर्म से है। इस देश में तो समाज को अब त्योहारों के नाम पर बनता जाने लगा है। पूंजीवादियों के अलग त्यौहार व मजदूर वर्ग के अलग। बचपन में जब दीपावली पर निबन्ध लिखता था, तब उपसंहार में एक बात लिखी जाती थी, 'यदि हम पटाखें न जलाकर, वो पैसा हम यदि किसी गरीब को दे दें तो उसकी दिवाली भी रोशन हो जाएगी।' उस वक़्त अनुभूति होती थी क्या लिख रहे हैं। सोंचकर सुख होता था कि समाज बंटा है परन्तु क्या ईश्वर भी? मैं नहीं मानता।
क्या ईश्वर इतने ही हैं या और भी?
हां समाज में ईश्वर के मानने के तरीके  अलग हो सकते हैं। अंतर्धर्म कतई मनुष्य को ईश्वर से दूर नहीं कर सकता। कुछ लोग कहते है कि कई चीज़ें इस दुनिया में स्वतः होती है व वे सर्वदा, स्वतः ही संचालित होती है। ये स्वतः क्या है? आज तक समझ में नहीं आया। 'कृपा, चमत्कार',,,, ये सब कतई ईश्वर के कारनामे नहीं हैं, ये तो मनुष्य के हथकण्डे हैं, उनकी भक्ति व श्रद्धा को भुनाने के। हिंदी फिल्मों में फूल गिरना व मंदिर के घंटियों का स्वतः बजने लगना सहज ही नहीं है वरन यह मानवीय संवेदनाओं का एक महत्वपूर्ण इजाद है। 

यह प्रश्न कतई मत पूछिए कि ईश्वर हैं या नहीं, ईश्वर हैं। कहाँ हैं? वहीँ जहाँ उन्हें होना चाहिए। तो फिर समाज में बुराई क्यों है? क्योंकि मनुष्य प्रगति पर है। वह हैं तो फिर दिखते क्यों नहीं हैं? मनुष्य के पास समय ही कहाँ है, उन्हें देखने को और वैसे भी आवश्यक तो नहीं कि हर होने वाली चीज़ दिखे फिर ईश्वर तो निर्माता हैं। मंदिर में आसानी से मिल जाते हैं? ढुण्ढो तो घर, दफ्तर में मिल जायेंगे, मंदिर में तो खैर मिल ही जायेंगे वहां मन चैन जो रहता है। समाज का डर है, दोस्त कहेंगे आ गया पण्डित। तो कहलवाओ न पण्डित, नास्तिक कहलवाने से तो अच्छा ही है। सिगरेट जलने से अच्छा है धुप जलाओ। ईश्वर को क्यों मानूं? क्योंकि मनुष्य को सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान महीन मान सकते हैं, तुम ही बताओ बर्दाश्त कर पाओगे एक मनुष्य को? नहीं न। तो क्या चमत्कार एक सत्य है? हाँ, इसे कर्म कहते हैं। क्या ईश्वर में कोई बुराई नहीं है? मानव जीवन इस प्रश्न का उत्तर पाने योग्य नहीं।।।।।।        

2 टिप्‍पणियां:

SKJHA ने कहा…

bht accha likha hai Ankit...very gud...

SKJHA ने कहा…

very gud Ankit...bht acha likha hai...