सोमवार, 20 मई 2013

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वाम व आम एक क्यों नहीं?
                                                                                                           - अंकित झा 

अब यदि ४ सीटों वाली सुधाकर रेड्डी की भाकपा, 16 सीटों वाली प्रकाश करात की माकपा तथा राजनीतिक गलियारों में रेंगने वाली नयी प्रजाति अरविन्द केजरीवाल की 'आप' हाथ मिला कर एक नया "अवामपंथ" (आम + वाम) तैयार करें तो क्या देश का भला होने में कोई संदेह रहेगा? भाकपा के पास इतिहास है, माकपा के पास क्षमता व आप के पास मुद्दे व जोश है, तथा तीनों ही के पास एक विलक्षण शक्ति है जो देह के लिए अति आवश्यक है। 

"क्यों कुरूप स्त्रियाँ वेश्या बनती हैं, जब उन्हें मालूम है कि उन्हें तो रूप क बाज़ार में ही बैठना है।
परन्तु आज तक यही समझ में नहीं आया कि सुन्दर स्त्रियाँ क्यों वेश्या बने? संसार की सबसे सुन्दर जीव क्यों सबसे बुरा काम करे?"
                                         - कंकाल (जय शंकर प्रसाद)

अवतरित उन वाक्यों में कार्य तथा कार्य के साधकों का अंतर निहित है। कुरूप स्त्रियाँ क्यों वेश्या बनें, गरीब नेता क्यों बनें? सुन्दर स्त्री वेश्या क्यों बनें, रईस नेता बन कर क्या करेंगे? राजनीतिक बाज़ार में नेताओं की भर्ती  नहीं खुली है, देश के लोगों को फिर नींद आ रही है। हाथों में झंडे लिए अब वो लाल रंग का हो या तीन रंगों का, कभी भी कोई भीड़ राजनीती या लोकतंत्र के विरुद्ध खड़े नहीं हुए। उनकी आवाज़ अपने लिए उठी। फिर वो 20 वीं सदी का कम्युनिस्ट आन्दोलन हो या 21 वीं सदी का व्यवस्था सुधार आन्दोलन।।
क्या 1923 में बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी व 2012 में नवनिर्मित आम आदमी पार्टी एक ही श्रृंखला की कड़ी नहीं है? दोनों का आग़ाज़ एक आन्दोलन से हुआ, दोनों के मकसद लगभग एक जैसे है। दोनों में अंतर बस इतना भर है कि एक चाहती है, जनता स्वयं सरकार चलाये और दूसरा जनता स्वयं को चलाये, कोई सर्कार व जनता का भेद न रहे। वान पंथ व आम पंथ, दोनों को एक करने की नासमझी वाली बात। समझ व राजनैतिक चिंतन के मोर्चे पर व्यावहारिक नासमझी।
 वर्तमान समय में जब सत्ता परिवर्तन व समय परिवर्तन की बात ने जोड़ पकड़ रखा है, उस समय अपने ही फैलाये आग से अनभिज्ञ आमपंथ अपनी शक्ति विस्मृत कर चूका है तथा दन्त कथा बन चुके वाम पंथ न जाने कहाँ खो गए हैं? कहते हैं कि ज्यादा दौड़ाने से ऊर्जा जल्दी समाप्त होता है, ऐसा ही कुछ हो रहा है वाम पंथ व आम पंथ के साथ। कम्युनिस्ट क्रांति या कहें साम्य क्रांति ने इस देश में एक अच्छे से पनपे हुए वनस्पति की तरह कार्य किया; बंगाल, केरल, तमिलनाडु, त्रिपुरा, बिहार व मध्य प्रदेश में अपनी तगड़ी उपस्थति दर्ज करवाई। बंगाल में तो लगभग ४ दशकों तक वामपंथ को चुनौती देने की कोई चेष्टा व हिम्मत नहीं कर पाया। केरल में साम्यवाद ने इतना प्रभावित किया कि बच्चे, कॉलोनी, शहर और यहाँ तक कि वनस्पति का नाम भी कम्युनिस्ट नाम पर रखा जाने लगा। यही कुछ हाल बिहार में रहा, 'हंसिया-गेहूं के बाइल' पर ठप्पा का दौर चला। लालू के भ्रष्ट समाजवाद के दौर में भी बिहार में वामपंथ संघर्ष न कर सका। और अब जा के ऐसा समय आ गया है जब समाज का एक लगभग अलग 'विरोधी' वर्ग बन चूका है, लेफ्ट फ्रंट। कुछ अपनी कमियां व कुछ दुसरे क्षेत्रीय पार्टियों के विकास ने वाम पंथ की राजनीतिक महत्ता भी समाप्त कर दी। आज फण्ड की कमी इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है और भारतीय जनता की जातीय मजबूरियां कभी उन्हें वहां से ऊपर उठाने नहीं देगी।
अप्रैल 2011, देश में एक नयी क्रांति की शुरुआत। जंतर-मंतर पर 73 वर्ष का एक गांधीवादी, अनशन पर बैठा था। अपने मन में संकल्प लिए, कथित तौर पर ही सही, भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल संसद में पास करवाने के लिए। तीन दिनों तक चला यह सत्याग्रह, देश न सही परन्तु राजधानी दिल्ली का ध्यान अवश्य आकर्षित करने में सफल रही और फिर आया अगस्त का महिना। अगस्त 16 से 13 दिन तक चला एक अद्वितीय सत्याग्रह आन्दोलन। जिसने इस देश में कैन चीज़े बदल कर रखने की नींव डाली, उनमे सबसे  प्रमुख था,सत्ता से प्रश्न करने की हिम्मत पैदा करने की। परन्तु एक वर्ष के अन्दर ही, 'जल्दरोग' कहें या 'हरी डिजीज' ने एक प्रभावी आन्दोलन को एक प्रभावहीन पागलपन बना दिया। नतीजतन एक वर्ष के अन्दर ही सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन राजनीतिक दल में रूपांतरित हो गयी। कइं  लोग इससे नाराज़ होकर आन्दोलन से पीछे हट गए, यहांतक कि आन्दोलन के सूत्रधार स्वयं एना हजारे भी इससे किनारे कर गए। बाख गए तो बस मन में परिवर्तन की जिद्द लिए, अरविन्द केजरीवाल। ये कहते हुए कि बस तरीका बदला है, मकसद नहीं। यदि सत्ता में बदलाव करना है तो इसका अंश बनना ही पड़ेगा।

कुछ समय पूर्व टीवी पर एक विज्ञापन चला, जिसमे एक पिता व पुत्र टीवी देख रहे हैं, पिता ध्यान से नेता का भाषण सुन रहा है जो इसे देश को आग से बचाने की बात कर रहा है। परन्तु उसका  बेटा बोर हो रहा है, अंत में वो कहता है कि देश को बचा लिया अब कोई और कार्टून देखें। क्या इस देश के राजनेता कार्टून के समतुल्य हैं। जब देश क राजनीती ऐसे विषम परिस्थिति में हो तब इस देश को किसकी आवश्यकता है? 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर कांग्रेस का हाथ छोड़ने के पश्चात, लेफ्ट ने कोई बड़ा कार्य नहीं किया, जिससे देश में उनकी धूमिल साख को वापस लाया जा सके। बंगाल के सिंगूर में जो कार्य लेफ्ट को करना चाहिए था वो, ममता ने किया और नतीजा सामने है। वहीँ राजनीतिक दल बनाकर खोई साख को पुनः हासिल करने हेतु एक बार फिर अन्दोलन का ही सहारा ले आम पंथ उठाना चाहती है। किसी भी देश के लिए लेफ्ट पार्टी अति महत्वपूर्ण होतिभई और उतनी ही महत्वपूर्ण होती है देश की जनता।
अब यदि ४ सीटों वाली सुधाकर रेड्डी की भाकपा, 16 सीटों वाली प्रकाश करात की माकपा तथा राजनीतिक गलियारों में रेंगने वाली नयी प्रजाति अरविन्द केजरीवाल की 'आप' हाथ मिला कर एक नया "अवामपंथ" (आम + वाम) तैयार करें तो क्या देश का भला होने में कोई संदेह रहेगा? भाकपा के पास इतिहास है, माकपा के पास क्षमता व आप के पास मुद्दे व जोश है, तथा तीनों ही के पास एक विलक्षण शक्ति है जो देह के लिए अति आवश्यक है। कब तक ये देश मण्डल-मंदिर की आग में जलता रहेगा। प्रतीक्षा उस समय की है जब तीनों हाथ मिलाये खड़े मिलेंगे, यह किसी दिवास्वप्न से कम नहीं परन्तु यदि एक बार ऐसा कुछ करने की कोशिश की जाये तो नुकसान नहीं। तब तक तो ये दर्द कुरेदने की राजनीति ही चलती रहेगी, कभी गोधरा के दर्द उखड़ेंगे तो कभी 84 के। कभी विकासपुरुष की राजनीती होगी तो कभी वंशपुरुष की। परन्तु इसमें देश अवश्य पीछे छुट जायेगा व पीछे छुट जायेंगे सत्ता परिवर्तन के नारे दागने वाले।।।।।।

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