शनिवार, 18 मई 2013

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सभ्य समाज व बिचौलिया संस्कृति 
                                                                                          -अंकित झा 

 हमारे समाज को आदत हो गयी है शार्टकट की। हर चीज़ में शार्टकट खोजना चाहते हैं। बचपन से ये विषाणु हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। परीक्षा देना है, साल भर क्या पढना, समय आने पर गुटखा गाइड  के पढ़ लेंगे, मंदिर जाना है, थोडा पैसा खर्च कर के विशेष  कतार में लग  जायेंगे, लाइसेंस बनवाना है, टिकट कटवाना है, शादी करवाना है, तो गो आइबिबो है न।

आज के समाज व रामराज में,
एक अंतर निहित है।
तब था रामराज, जो सफल करे सब काज,
आज है बिचौलिया राज, जो सफल कराये सब काज।।

हो रहा है, विकास हो रहा है। बड़ी तेजी से विकास हो रहा है। देश, समाज, प्राणी; सभी का। नित्य आगे ही तो बढ़ रहे हैं। विकास ही तो ध्येय है। विकास की पूंछ बड़ी लम्बी होती है, दानव यदि हाथ व पांव को नियंत्रित कर भी ले तो भी उसके सिंग व पूंछ पर नियंत्रण होना आवश्यक नहीं। विकास दानव ही तो है, नए-नए मनोरम दुश्चिंताओं का जन्म। विध्वंस के ज्ञान का जन्म। विध्वंस के समूचे आकाश का जन्म, विकास। 
कलयुग के यदि सबसे मनोरम कृति को धुन्ध जाये तो मुझे मिलता है, बिचौलियों का भरा पुरा संसार। और कई नाम हैं इनके एजेंट, दलाल, मिडिलमैन इत्यादि तथा और भी कई। पिछले जुलाई, दिल्ली के जंतर-मंतर पे अरविन्द केजरीवाल के अनशन के समय मेरी मुलाकात असीम त्रिवेदी से हुई थी। उस समय उनसे जुड़े विवाद सामने नहीं आये थे अतः उनसे मिलना कतई योजनाबद्ध नहीं था, सिर्फ एक इत्तेफाक था। उन्होंने बड़ी सहजता से मुझसे एक प्रश्न किया, क्या आपको नहीं लगता कि सभी भ्रष्ट व्यवस्था की जड़ बिचौलियों के 'हो जायेगा' से होकर गुजरता है? मेरा प्रश्न की क्या  सिर्फ सिस्टम के  में है? उनका जवाब कि क्या आपके पास ड्राइविंग लाइसेंस है? मैंने हामी भर दी। कितने में बनवाया? 750 रू में, मैंने जवाब दिया। बनता तो 100 से भी कम में है। और मैं निशब्द, कुछ और नहीं सुनना। सभी जवाब मिल गये।
दरअसल हमारे समाज को आदत हो गयी है शार्टकट की। हर चीज़ में शार्टकट खोजना चाहते हैं। बचपन से ये विषाणु हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। परीक्षा देना है, साल भर क्या पढना, समय आने पर गुटखा गाइड  के पढ़ लेंगे, मंदिर जाना है, थोडा पैसा खर्च कर के विशेष  कतार में लग  जायेंगे, लाइसेंस बनवाना है, टिकट कटवाना है, शादी करवाना है, तो गो आइबिबो है न।।। 25 रू किलो शक्कर महंगा लगता है परन्तु ड्राइविंग लाइसेंस हेतु 1000 रु कहाँ कम हैं। क्या है ये? रईसी या आलस्य? धारणा बन गयी है, कौन जा के कतार में लगे, कौन समय व्यर्थ नष्ट करें? पैसा ज्यादा कीमती है या समय? अवश्य समय। बस यही धारणा जन्म देती है बिचौलिया संस्कृति को।
 कभी हरदा रेलवे स्टेशन के आरक्षण खिड़की पर आके देखें। प्रमाण सहित उत्तर मिल जायेगा। दो दिन तक कतार में आ के लगा, सुबह ६ बजे से, कभी पढने के लिए नहीं उठा था इतनी सुबह। परन्तु ट्रेन में सीट के लिए कुछ भी फिर भी सीट नहीं मिली। हार के एजेंट के पास जाना पड़ा, ३ सीट कन्फर्म मिला। पता नहीं कहाँ से आया ये सीट , ताज्जुब है। मुझमे और एजेंट में क्या भेद है मुझे ज्ञात नहीं। यही हाल इस साल रहा। इस साल क्या हर रोज का यही हाल है। तत्काल की ये मारामारी रोज़ की है। सरकारी नियम बनने से पहले भी और बाद में भी। कौन नहीं जनता की वहां रखे पहले 5 से अधिक फॉर्म किनके होते हैं, बोलने वाला कोई नहीं है। सबको अपनी दिखती है, रईसों  को अपनी रईसी दिखानी है। इसके चक्कर में जो आम आदमी सुविधाओं से बेदखल है, उनका सुनने वाला कौन है? पिछले नवम्बर की ही तो बात है, मेरे एक दोस्त की दादी स्वर्ग सिधार गयी, तर्पण के लिए प्रयाग ले जाना था, परन्तु कलयुग में आत्मा को शांति दिलाना भी इतना आसान कहाँ है? छठ का समय था अतः पूर्व की ओर जाने वाली ट्रेन आरक्षण मिलना असंभव। प्रयास किया परन्तु व्यर्थ। हार के जाना पड़ा गुरुधाम। 1 टिकट पर 500 रु और टिकट, तत्काल व आरक्षण शुल्क अलग से। अतः 3 टिकट कोई 3500 का पड़ा। मजबूरी मनुष्य को सर्वाधिक डंसती है व इन बिचौलियों के जीविका का मूल ही आम आदमी की मजबूरी  है। कोई करवाई नहीं होगी, रेल के इन दलालों पर, हर मर्ज़ की दावा है इनके पास।
 रेलवे ही क्यों, कुछ दिनों पहले तक आरटीओ ऑफिस को ही ले। इन बिचौलियों के लिए बड़ी अच्छी बात कही  गयी है-
          "कलयुग की ये रीति सदा से चली आई, 
           अंडर द टेबल काम, ऊपर से खाए मलाई।।"
अतः हर काम का एक ही सूत्र आप मुझे अर्थ दो मैं आपको सुविधा दूंगा। अधर में अटका जन लोकपाल बिल एक सशक्त उपाय है, इन बिचौलियों पर लगाम लगाने का। परन्तु राजनीतिक पंगुता इसे सफल होने देगी तब न। तब तक तो यही विषाक्त बिचौलिया संस्कृति जनमानस की कमाई लूटती रहेगी, इनके मजबूरी के नाम पर। व हम सदा लुटते रहेंगे क्योंकि हम इसके आदी हो चुके हैं। कोई भी कानून हमें इनसे दूर नहीं ले जा सकती है क्योंकि सरकारी सुविधओं व आम आदमी क उस तक पहुँच के बीच फासला काफी बढ़ गया है, जिसके लिए बिचौलिया रूपी  पुल पर चलना ही पड़ेगा। ये बिचौलिया राज समाप्त करना ही होगा भ्रष्टाचार को मिटाने हेतु, ये पुल गिरना ही होगा, एक समृद्ध समाज की स्थापना करने हेतु…  

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