मंगलवार, 28 मई 2013
सोमवार, 27 मई 2013
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संभाल के, कोई देखे ना!!
- अंकित झा
'कृपा, चमत्कार',,,, ये सब कतई ईश्वर के कारनामे नहीं हैं, ये तो मनुष्य के हथकण्डे हैं, उनकी भक्ति व श्रद्धा को भुनाने के। हिंदी फिल्मों में फूल गिरना व मंदिर के घंटियों का स्वतः बजने लगना सहज ही नहीं है वरन यह मानवीय संवेदनाओं का एक महत्वपूर्ण इजाद है।
मुझमे तुझमे है भेद यही,
मैं नर हूँ तुम नारायण ।
मैं हूँ संसार के हाथों में,
संसार तुम्हारे चरणों में।।
'कृपा, चमत्कार',,,, ये सब कतई ईश्वर के कारनामे नहीं हैं, ये तो मनुष्य के हथकण्डे हैं, उनकी भक्ति व श्रद्धा को भुनाने के। हिंदी फिल्मों में फूल गिरना व मंदिर के घंटियों का स्वतः बजने लगना सहज ही नहीं है वरन यह मानवीय संवेदनाओं का एक महत्वपूर्ण इजाद है।
मुझमे तुझमे है भेद यही,
मैं नर हूँ तुम नारायण ।
मैं हूँ संसार के हाथों में,
संसार तुम्हारे चरणों में।।
एक नया दौर चल पड़ा है, स्वयं को नास्तिक कहलवाने का। एक वो दौर भी था जब समाज में एक सुर होते थे थे और एक असुर। दोनों ही के मन में श्रद्धा होती थी, दोनों के मन में ही इश्वर की चाह थी। दोनों तपस्या भी करते थे दोनों में अंतर था तो सिर्फ वरदान के उपयोग का। अर्थात असुर भी नास्तिक नहीं होते थे, हरिण्यकश्यप विष्णु को नहीं मानता था परन्तु वह नास्तिक नहीं था। फिर कलयुग में ऐसा क्या हो गया कि समाज का सभ्य व्यक्ति स्वयं को नास्तिक कहलवाना अपनी शान समझता है। ईश्वर व अन्धश्रद्धा के बीच का द्वंद्व सिर्फ दो गैर-भारतीय प्रख्यात विचारकों के बीच का द्वंद्व नहीं है। नए समाज के लिए उनका नाम ले लूँ- हेगेल व मार्क्स। गीता में भी ईश्वर के होने की बात कही गयी है। मेरा एक मित्र है, उसके मन में नित्य एक प्रश्न हिलोरे लेता है कि 'दुनिया किसने रची?' यदि भगवान ने तो भगवान को किसने बनाया? और यदि 'बिग बंग थ्योरी' से दुनिया बनी तो उसे सिद्ध करें। यही प्रश्न मेरे मन में भी आता है और लगभग हर उस मनुष्य के मन में आता होगा जिसमे श्रद्धा के लिए वक़्त है। खोखली बुनियाद पर अपनी शान बघारने के लिए अपने आप को नास्तिक कहना कतई सभी समाज के मानव को शोभा नहीं देता। कोई इनसे पूछ ले कि क्यों नहीं मानते इश्वर को? तो उनके उत्तर सुनिए, भगवान होते हैं क्या? कहाँ होते हैं बताओ? कोई धर्म को गाली देगा तो कोई कृत्यों को। वह कहते हैं कि दुनिया विज्ञान से बनी है व विज्ञानं से ही विकसित हुई है, वो समझ क्यों नहीं पाते कि जिसे वो विज्ञान समझ रहे हैं, वह ईश्वर का एक अंश मात्र है। नास्तिक बनने की होड़, अक्सर हमें विज्ञानं का पुजारी बना देती है, वो विज्ञान जिसे 'वि-ज्ञान' ही इसलिए कहा गया क्योंकि ये विध्वंश का ज्ञान है। जिसे समाज के ठेकेदारों ने विशिष्ट ज्ञान कह दिया। क्या कल का जन्मा विज्ञानं, ईश्वर का स्थानापन्न है। एक सहपाठी मुझसे कहता है कि क्या व्रत व पूजा करने का कोई वैज्ञानिक कारण दे सकते हो? उसको उस वक़्त न सही पर अब का दो टूक जवाब, अपने जन्म का कोई वैज्ञानिक कारण दे दो, होते तो ऐसे हैं पर हुए क्यों?
नास्तिक समाज किसी भी देश का हित नहीं कर सकती। कहते हैं, ईश्वर, मनुष्य के हृदय में बसते हैं, ईश्वर से घृणा अर्थात अपने हृदय से घृणा। अपने हृदय से घृणा करने वाला समाज क्या कभी राष्ट्रहित कर सकता है।
अब बात उस वाक्य की, जिसका मैं कट्टर विरोधी हूँ, यह बयान जर्मन विचारक (विद्वान नहीं कहूँगा) कार्ल मार्क्स का- "धर्म जनता के लिए अफीम के नशे की तरह है।"
मार्क्सवाद अपने आप में नास्तिकता का कोई सिद्धान्त नहीं है परन्तु पूंजीवाद का विरोध जब मानस के हृदय में ईश्वर या कहें धर्म के प्रति घृणा पैदा कर दे तो वो कतई सामंत व्यवस्था नहीं रह जाएगा। जिस तरह मजदूर अफीम के नशे से अपनी वास्तविकता को भुला देता है उसी तरह धर्म भी कहीं न कहीं ये करने को विवश कर देता है। होता होगा जर्मनी में ऐसा, वहां का नहीं पता। यहाँ तो ईश्वर को मानव के रूप में ही पूजा जाता है। धर्म भगवन से नहीं है वरन भगवन धर्म से है। इस देश में तो समाज को अब त्योहारों के नाम पर बनता जाने लगा है। पूंजीवादियों के अलग त्यौहार व मजदूर वर्ग के अलग। बचपन में जब दीपावली पर निबन्ध लिखता था, तब उपसंहार में एक बात लिखी जाती थी, 'यदि हम पटाखें न जलाकर, वो पैसा हम यदि किसी गरीब को दे दें तो उसकी दिवाली भी रोशन हो जाएगी।' उस वक़्त अनुभूति होती थी क्या लिख रहे हैं। सोंचकर सुख होता था कि समाज बंटा है परन्तु क्या ईश्वर भी? मैं नहीं मानता।
हां समाज में ईश्वर के मानने के तरीके अलग हो सकते हैं। अंतर्धर्म कतई मनुष्य को ईश्वर से दूर नहीं कर सकता। कुछ लोग कहते है कि कई चीज़ें इस दुनिया में स्वतः होती है व वे सर्वदा, स्वतः ही संचालित होती है। ये स्वतः क्या है? आज तक समझ में नहीं आया। 'कृपा, चमत्कार',,,, ये सब कतई ईश्वर के कारनामे नहीं हैं, ये तो मनुष्य के हथकण्डे हैं, उनकी भक्ति व श्रद्धा को भुनाने के। हिंदी फिल्मों में फूल गिरना व मंदिर के घंटियों का स्वतः बजने लगना सहज ही नहीं है वरन यह मानवीय संवेदनाओं का एक महत्वपूर्ण इजाद है।
अब बात उस वाक्य की, जिसका मैं कट्टर विरोधी हूँ, यह बयान जर्मन विचारक (विद्वान नहीं कहूँगा) कार्ल मार्क्स का- "धर्म जनता के लिए अफीम के नशे की तरह है।"
मार्क्सवाद अपने आप में नास्तिकता का कोई सिद्धान्त नहीं है परन्तु पूंजीवाद का विरोध जब मानस के हृदय में ईश्वर या कहें धर्म के प्रति घृणा पैदा कर दे तो वो कतई सामंत व्यवस्था नहीं रह जाएगा। जिस तरह मजदूर अफीम के नशे से अपनी वास्तविकता को भुला देता है उसी तरह धर्म भी कहीं न कहीं ये करने को विवश कर देता है। होता होगा जर्मनी में ऐसा, वहां का नहीं पता। यहाँ तो ईश्वर को मानव के रूप में ही पूजा जाता है। धर्म भगवन से नहीं है वरन भगवन धर्म से है। इस देश में तो समाज को अब त्योहारों के नाम पर बनता जाने लगा है। पूंजीवादियों के अलग त्यौहार व मजदूर वर्ग के अलग। बचपन में जब दीपावली पर निबन्ध लिखता था, तब उपसंहार में एक बात लिखी जाती थी, 'यदि हम पटाखें न जलाकर, वो पैसा हम यदि किसी गरीब को दे दें तो उसकी दिवाली भी रोशन हो जाएगी।' उस वक़्त अनुभूति होती थी क्या लिख रहे हैं। सोंचकर सुख होता था कि समाज बंटा है परन्तु क्या ईश्वर भी? मैं नहीं मानता।
क्या ईश्वर इतने ही हैं या और भी? |
यह प्रश्न कतई मत पूछिए कि ईश्वर हैं या नहीं, ईश्वर हैं। कहाँ हैं? वहीँ जहाँ उन्हें होना चाहिए। तो फिर समाज में बुराई क्यों है? क्योंकि मनुष्य प्रगति पर है। वह हैं तो फिर दिखते क्यों नहीं हैं? मनुष्य के पास समय ही कहाँ है, उन्हें देखने को और वैसे भी आवश्यक तो नहीं कि हर होने वाली चीज़ दिखे फिर ईश्वर तो निर्माता हैं। मंदिर में आसानी से मिल जाते हैं? ढुण्ढो तो घर, दफ्तर में मिल जायेंगे, मंदिर में तो खैर मिल ही जायेंगे वहां मन चैन जो रहता है। समाज का डर है, दोस्त कहेंगे आ गया पण्डित। तो कहलवाओ न पण्डित, नास्तिक कहलवाने से तो अच्छा ही है। सिगरेट जलने से अच्छा है धुप जलाओ। ईश्वर को क्यों मानूं? क्योंकि मनुष्य को सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान महीन मान सकते हैं, तुम ही बताओ बर्दाश्त कर पाओगे एक मनुष्य को? नहीं न। तो क्या चमत्कार एक सत्य है? हाँ, इसे कर्म कहते हैं। क्या ईश्वर में कोई बुराई नहीं है? मानव जीवन इस प्रश्न का उत्तर पाने योग्य नहीं।।।।।।
सोमवार, 20 मई 2013
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वाम व आम एक क्यों नहीं?
- अंकित झा अब यदि ४ सीटों वाली सुधाकर रेड्डी की भाकपा, 16 सीटों वाली प्रकाश करात की माकपा तथा राजनीतिक गलियारों में रेंगने वाली नयी प्रजाति अरविन्द केजरीवाल की 'आप' हाथ मिला कर एक नया "अवामपंथ" (आम + वाम) तैयार करें तो क्या देश का भला होने में कोई संदेह रहेगा? भाकपा के पास इतिहास है, माकपा के पास क्षमता व आप के पास मुद्दे व जोश है, तथा तीनों ही के पास एक विलक्षण शक्ति है जो देह के लिए अति आवश्यक है।
"क्यों कुरूप स्त्रियाँ वेश्या बनती हैं, जब उन्हें मालूम है कि उन्हें तो रूप क बाज़ार में ही बैठना है।
परन्तु आज तक यही समझ में नहीं आया कि सुन्दर स्त्रियाँ क्यों वेश्या बने? संसार की सबसे सुन्दर जीव क्यों सबसे बुरा काम करे?"
- कंकाल (जय शंकर प्रसाद)
अवतरित उन वाक्यों में कार्य तथा कार्य के साधकों का अंतर निहित है। कुरूप स्त्रियाँ क्यों वेश्या बनें, गरीब नेता क्यों बनें? सुन्दर स्त्री वेश्या क्यों बनें, रईस नेता बन कर क्या करेंगे? राजनीतिक बाज़ार में नेताओं की भर्ती नहीं खुली है, देश के लोगों को फिर नींद आ रही है। हाथों में झंडे लिए अब वो लाल रंग का हो या तीन रंगों का, कभी भी कोई भीड़ राजनीती या लोकतंत्र के विरुद्ध खड़े नहीं हुए। उनकी आवाज़ अपने लिए उठी। फिर वो 20 वीं सदी का कम्युनिस्ट आन्दोलन हो या 21 वीं सदी का व्यवस्था सुधार आन्दोलन।।
क्या 1923 में बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी व 2012 में नवनिर्मित आम आदमी पार्टी एक ही श्रृंखला की कड़ी नहीं है? दोनों का आग़ाज़ एक आन्दोलन से हुआ, दोनों के मकसद लगभग एक जैसे है। दोनों में अंतर बस इतना भर है कि एक चाहती है, जनता स्वयं सरकार चलाये और दूसरा जनता स्वयं को चलाये, कोई सर्कार व जनता का भेद न रहे। वान पंथ व आम पंथ, दोनों को एक करने की नासमझी वाली बात। समझ व राजनैतिक चिंतन के मोर्चे पर व्यावहारिक नासमझी।
वर्तमान समय में जब सत्ता परिवर्तन व समय परिवर्तन की बात ने जोड़ पकड़ रखा है, उस समय अपने ही फैलाये आग से अनभिज्ञ आमपंथ अपनी शक्ति विस्मृत कर चूका है तथा दन्त कथा बन चुके वाम पंथ न जाने कहाँ खो गए हैं? कहते हैं कि ज्यादा दौड़ाने से ऊर्जा जल्दी समाप्त होता है, ऐसा ही कुछ हो रहा है वाम पंथ व आम पंथ के साथ। कम्युनिस्ट क्रांति या कहें साम्य क्रांति ने इस देश में एक अच्छे से पनपे हुए वनस्पति की तरह कार्य किया; बंगाल, केरल, तमिलनाडु, त्रिपुरा, बिहार व मध्य प्रदेश में अपनी तगड़ी उपस्थति दर्ज करवाई। बंगाल में तो लगभग ४ दशकों तक वामपंथ को चुनौती देने की कोई चेष्टा व हिम्मत नहीं कर पाया। केरल में साम्यवाद ने इतना प्रभावित किया कि बच्चे, कॉलोनी, शहर और यहाँ तक कि वनस्पति का नाम भी कम्युनिस्ट नाम पर रखा जाने लगा। यही कुछ हाल बिहार में रहा, 'हंसिया-गेहूं के बाइल' पर ठप्पा का दौर चला। लालू के भ्रष्ट समाजवाद के दौर में भी बिहार में वामपंथ संघर्ष न कर सका। और अब जा के ऐसा समय आ गया है जब समाज का एक लगभग अलग 'विरोधी' वर्ग बन चूका है, लेफ्ट फ्रंट। कुछ अपनी कमियां व कुछ दुसरे क्षेत्रीय पार्टियों के विकास ने वाम पंथ की राजनीतिक महत्ता भी समाप्त कर दी। आज फण्ड की कमी इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है और भारतीय जनता की जातीय मजबूरियां कभी उन्हें वहां से ऊपर उठाने नहीं देगी।
अप्रैल 2011, देश में एक नयी क्रांति की शुरुआत। जंतर-मंतर पर 73 वर्ष का एक गांधीवादी, अनशन पर बैठा था। अपने मन में संकल्प लिए, कथित तौर पर ही सही, भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल बिल संसद में पास करवाने के लिए। तीन दिनों तक चला यह सत्याग्रह, देश न सही परन्तु राजधानी दिल्ली का ध्यान अवश्य आकर्षित करने में सफल रही और फिर आया अगस्त का महिना। अगस्त 16 से 13 दिन तक चला एक अद्वितीय सत्याग्रह आन्दोलन। जिसने इस देश में कैन चीज़े बदल कर रखने की नींव डाली, उनमे सबसे प्रमुख था,सत्ता से प्रश्न करने की हिम्मत पैदा करने की। परन्तु एक वर्ष के अन्दर ही, 'जल्दरोग' कहें या 'हरी डिजीज' ने एक प्रभावी आन्दोलन को एक प्रभावहीन पागलपन बना दिया। नतीजतन एक वर्ष के अन्दर ही सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन राजनीतिक दल में रूपांतरित हो गयी। कइं लोग इससे नाराज़ होकर आन्दोलन से पीछे हट गए, यहांतक कि आन्दोलन के सूत्रधार स्वयं एना हजारे भी इससे किनारे कर गए। बाख गए तो बस मन में परिवर्तन की जिद्द लिए, अरविन्द केजरीवाल। ये कहते हुए कि बस तरीका बदला है, मकसद नहीं। यदि सत्ता में बदलाव करना है तो इसका अंश बनना ही पड़ेगा।
कुछ समय पूर्व टीवी पर एक विज्ञापन चला, जिसमे एक पिता व पुत्र टीवी देख रहे हैं, पिता ध्यान से नेता का भाषण सुन रहा है जो इसे देश को आग से बचाने की बात कर रहा है। परन्तु उसका बेटा बोर हो रहा है, अंत में वो कहता है कि देश को बचा लिया अब कोई और कार्टून देखें। क्या इस देश के राजनेता कार्टून के समतुल्य हैं। जब देश क राजनीती ऐसे विषम परिस्थिति में हो तब इस देश को किसकी आवश्यकता है? 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर कांग्रेस का हाथ छोड़ने के पश्चात, लेफ्ट ने कोई बड़ा कार्य नहीं किया, जिससे देश में उनकी धूमिल साख को वापस लाया जा सके। बंगाल के सिंगूर में जो कार्य लेफ्ट को करना चाहिए था वो, ममता ने किया और नतीजा सामने है। वहीँ राजनीतिक दल बनाकर खोई साख को पुनः हासिल करने हेतु एक बार फिर अन्दोलन का ही सहारा ले आम पंथ उठाना चाहती है। किसी भी देश के लिए लेफ्ट पार्टी अति महत्वपूर्ण होतिभई और उतनी ही महत्वपूर्ण होती है देश की जनता।
अब यदि ४ सीटों वाली सुधाकर रेड्डी की भाकपा, 16 सीटों वाली प्रकाश करात की माकपा तथा राजनीतिक गलियारों में रेंगने वाली नयी प्रजाति अरविन्द केजरीवाल की 'आप' हाथ मिला कर एक नया "अवामपंथ" (आम + वाम) तैयार करें तो क्या देश का भला होने में कोई संदेह रहेगा? भाकपा के पास इतिहास है, माकपा के पास क्षमता व आप के पास मुद्दे व जोश है, तथा तीनों ही के पास एक विलक्षण शक्ति है जो देह के लिए अति आवश्यक है। कब तक ये देश मण्डल-मंदिर की आग में जलता रहेगा। प्रतीक्षा उस समय की है जब तीनों हाथ मिलाये खड़े मिलेंगे, यह किसी दिवास्वप्न से कम नहीं परन्तु यदि एक बार ऐसा कुछ करने की कोशिश की जाये तो नुकसान नहीं। तब तक तो ये दर्द कुरेदने की राजनीति ही चलती रहेगी, कभी गोधरा के दर्द उखड़ेंगे तो कभी 84 के। कभी विकासपुरुष की राजनीती होगी तो कभी वंशपुरुष की। परन्तु इसमें देश अवश्य पीछे छुट जायेगा व पीछे छुट जायेंगे सत्ता परिवर्तन के नारे दागने वाले।।।।।।
शनिवार, 18 मई 2013
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सभ्य समाज व बिचौलिया संस्कृति
-अंकित झा
हमारे समाज को आदत हो गयी है शार्टकट की। हर चीज़ में शार्टकट खोजना चाहते हैं। बचपन से ये विषाणु हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। परीक्षा देना है, साल भर क्या पढना, समय आने पर गुटखा गाइड के पढ़ लेंगे, मंदिर जाना है, थोडा पैसा खर्च कर के विशेष कतार में लग जायेंगे, लाइसेंस बनवाना है, टिकट कटवाना है, शादी करवाना है, तो गो आइबिबो है न।
आज के समाज व रामराज में,
एक अंतर निहित है।
तब था रामराज, जो सफल करे सब काज,
आज है बिचौलिया राज, जो सफल कराये सब काज।।
हो रहा है, विकास हो रहा है। बड़ी तेजी से विकास हो रहा है। देश, समाज, प्राणी; सभी का। नित्य आगे ही तो बढ़ रहे हैं। विकास ही तो ध्येय है। विकास की पूंछ बड़ी लम्बी होती है, दानव यदि हाथ व पांव को नियंत्रित कर भी ले तो भी उसके सिंग व पूंछ पर नियंत्रण होना आवश्यक नहीं। विकास दानव ही तो है, नए-नए मनोरम दुश्चिंताओं का जन्म। विध्वंस के ज्ञान का जन्म। विध्वंस के समूचे आकाश का जन्म, विकास।
कलयुग के यदि सबसे मनोरम कृति को धुन्ध जाये तो मुझे मिलता है, बिचौलियों का भरा पुरा संसार। और कई नाम हैं इनके एजेंट, दलाल, मिडिलमैन इत्यादि तथा और भी कई। पिछले जुलाई, दिल्ली के जंतर-मंतर पे अरविन्द केजरीवाल के अनशन के समय मेरी मुलाकात असीम त्रिवेदी से हुई थी। उस समय उनसे जुड़े विवाद सामने नहीं आये थे अतः उनसे मिलना कतई योजनाबद्ध नहीं था, सिर्फ एक इत्तेफाक था। उन्होंने बड़ी सहजता से मुझसे एक प्रश्न किया, क्या आपको नहीं लगता कि सभी भ्रष्ट व्यवस्था की जड़ बिचौलियों के 'हो जायेगा' से होकर गुजरता है? मेरा प्रश्न की क्या सिर्फ सिस्टम के में है? उनका जवाब कि क्या आपके पास ड्राइविंग लाइसेंस है? मैंने हामी भर दी। कितने में बनवाया? 750 रू में, मैंने जवाब दिया। बनता तो 100 से भी कम में है। और मैं निशब्द, कुछ और नहीं सुनना। सभी जवाब मिल गये।
दरअसल हमारे समाज को आदत हो गयी है शार्टकट की। हर चीज़ में शार्टकट खोजना चाहते हैं। बचपन से ये विषाणु हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। परीक्षा देना है, साल भर क्या पढना, समय आने पर गुटखा गाइड के पढ़ लेंगे, मंदिर जाना है, थोडा पैसा खर्च कर के विशेष कतार में लग जायेंगे, लाइसेंस बनवाना है, टिकट कटवाना है, शादी करवाना है, तो गो आइबिबो है न।।। 25 रू किलो शक्कर महंगा लगता है परन्तु ड्राइविंग लाइसेंस हेतु 1000 रु कहाँ कम हैं। क्या है ये? रईसी या आलस्य? धारणा बन गयी है, कौन जा के कतार में लगे, कौन समय व्यर्थ नष्ट करें? पैसा ज्यादा कीमती है या समय? अवश्य समय। बस यही धारणा जन्म देती है बिचौलिया संस्कृति को।
कभी हरदा रेलवे स्टेशन के आरक्षण खिड़की पर आके देखें। प्रमाण सहित उत्तर मिल जायेगा। दो दिन तक कतार में आ के लगा, सुबह ६ बजे से, कभी पढने के लिए नहीं उठा था इतनी सुबह। परन्तु ट्रेन में सीट के लिए कुछ भी फिर भी सीट नहीं मिली। हार के एजेंट के पास जाना पड़ा, ३ सीट कन्फर्म मिला। पता नहीं कहाँ से आया ये सीट , ताज्जुब है। मुझमे और एजेंट में क्या भेद है मुझे ज्ञात नहीं। यही हाल इस साल रहा। इस साल क्या हर रोज का यही हाल है। तत्काल की ये मारामारी रोज़ की है। सरकारी नियम बनने से पहले भी और बाद में भी। कौन नहीं जनता की वहां रखे पहले 5 से अधिक फॉर्म किनके होते हैं, बोलने वाला कोई नहीं है। सबको अपनी दिखती है, रईसों को अपनी रईसी दिखानी है। इसके चक्कर में जो आम आदमी सुविधाओं से बेदखल है, उनका सुनने वाला कौन है? पिछले नवम्बर की ही तो बात है, मेरे एक दोस्त की दादी स्वर्ग सिधार गयी, तर्पण के लिए प्रयाग ले जाना था, परन्तु कलयुग में आत्मा को शांति दिलाना भी इतना आसान कहाँ है? छठ का समय था अतः पूर्व की ओर जाने वाली ट्रेन आरक्षण मिलना असंभव। प्रयास किया परन्तु व्यर्थ। हार के जाना पड़ा गुरुधाम। 1 टिकट पर 500 रु और टिकट, तत्काल व आरक्षण शुल्क अलग से। अतः 3 टिकट कोई 3500 का पड़ा। मजबूरी मनुष्य को सर्वाधिक डंसती है व इन बिचौलियों के जीविका का मूल ही आम आदमी की मजबूरी है। कोई करवाई नहीं होगी, रेल के इन दलालों पर, हर मर्ज़ की दावा है इनके पास।
रेलवे ही क्यों, कुछ दिनों पहले तक आरटीओ ऑफिस को ही ले। इन बिचौलियों के लिए बड़ी अच्छी बात कही गयी है-
"कलयुग की ये रीति सदा से चली आई,
अंडर द टेबल काम, ऊपर से खाए मलाई।।"
अतः हर काम का एक ही सूत्र आप मुझे अर्थ दो मैं आपको सुविधा दूंगा। अधर में अटका जन लोकपाल बिल एक सशक्त उपाय है, इन बिचौलियों पर लगाम लगाने का। परन्तु राजनीतिक पंगुता इसे सफल होने देगी तब न। तब तक तो यही विषाक्त बिचौलिया संस्कृति जनमानस की कमाई लूटती रहेगी, इनके मजबूरी के नाम पर। व हम सदा लुटते रहेंगे क्योंकि हम इसके आदी हो चुके हैं। कोई भी कानून हमें इनसे दूर नहीं ले जा सकती है क्योंकि सरकारी सुविधओं व आम आदमी क उस तक पहुँच के बीच फासला काफी बढ़ गया है, जिसके लिए बिचौलिया रूपी पुल पर चलना ही पड़ेगा। ये बिचौलिया राज समाप्त करना ही होगा भ्रष्टाचार को मिटाने हेतु, ये पुल गिरना ही होगा, एक समृद्ध समाज की स्थापना करने हेतु…
शुक्रवार, 3 मई 2013
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~ स्वपन, शारदा, सांत्वना ..... व सज़ा~
- अंकित झा
बंगाल में सपनों की कमी नहीं है, यही कारण है कि सपने टूटने पर बिखड़ जाने वालों की कमी भी नहीं है, कमी है तो उन सपनो को सही मार्ग दिखाने वाले दर्शन की। अक्सर यही होता है, पहले महाराष्ट्र में हुआ अब बंगाल में हो रहा है। जब किस्मत मनुष्य पर मेहरबान नहीं होता तो वो मृत्यु को अपना खुदा समझ लेता है।
कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
इहि खाए बौरात जग, इहि पाए बौराए।।।।।।।
कमबख्त पैसा। चीज़ ही ऐसी है। किसी को भी दीवाना कर देती है। याद कीजिये जरा 'श्री 420' के राज कपूर का वो संवाद "सुना था इंसान पहले कभी बन्दर था, आज तो पैसों की लालच ने इसे कुत्ता बना दिया है।" या फिर याद कीजिये नीरज वोरा निर्देशित 'फिर हेरा फेरी' का वो दृश्य जब 'लक्ष्मी चिट फण्ड' के हाथों लुटने के पश्चात तीनों सहचरी मारे-मारे फिरते हैं। चिट फण्ड से याद आया, आज कल चिट फण्ड घोटाला बड़े जोरों शोरो पर है। ये पुराना फ़साना है बस गुनगुनाया आज गया है। पश्चिम बंगाल के शारदा ग्रुप का पर्दा-फाश होना कटाई संजोग नहीं है वरन यह उस घड़े के फुटने के जैसा है जिससे पहले से ही पानी रिस रहा हो। धोखेबाजों का गुट जिसे गिरोह कहते हैं, एक दुसरे के प्रति बड़े ईमानदार होते हैं, परन्तु सिर्फ भंडाफोड़ तक। बाकि तो वे धोखेबाज़ हैं ही। क्या है कि आम जनता को ये कुछ हसीं सपने देखने वाले लोग बेवकूफ और कठपुतली समझने लगते हैं। लोग काम भी वैसा ही करते हैं। जहाँ पैसा बनाने का तरकीब सुझा, अपने कमाई झोंक दी। कहाँ, क्या, किस उद्देश्य से, पैसा लगाया कौन फ़िक्र करे। सिक्यूरिटी दी है अच्छा ब्याज मिलेगा। बंगाल जैसे समझदार प्राणियों के राज्य में ऐसा होता है, दुखद है। इसका कारण क्या है? क्षोभ, मोह, माया लालच, सपने या फिर मुक़द्दर। किसको दोष दें? स्वयं को, बच्चों को, इन धोकेबाज़ों को, दलालों को या सरकार को। अब क्या करें? भुगतें, लड़ें, या टूट के लटक जायें।
कई प्रश्न हैं, उनके उत्तर ढूंढने से भी नहीं मिल पते हैं। दीदी का ये बुरा दौर चल रहा है। उनका एक सांसद, इसी ग्रुप के एक समाचार एजेंसी का सीईओ था, तथा ऐसे दुस्साहसी कृत्य के बावजूद राज्य सरकार का रवैया संतोषजनक नहीं है। दीदी की दृढ जबान नित्य फिसलती जा रही है। उनकी जबान ठीक उसी तरह ढह रहा है जैसे पडोसी मुल्क (बंगला देश ) का राणा प्लाजा। पहले एसऍफ़आई के कार्यकर्त्ता के मृत्यु पर दिया गया वह बेतुका बयान, तत्पश्चात घोटालें में नुकसान के बाद उसके भरपाई हेतु तम्बाकू उत्पादों पर बढें कर के तर्क में दिया गया वह बचकाना बयान। पता नहीं दीदी की संजीदा सोंच कहाँ विचरण करने चली जाती है। बहरहाल, आते हैं चिट-फण्ड घोटाले पर। अब इस घोटाले की बारीकियां क्या समझाईं जाये, बंगाल के लोगों को लगता है मनो पैसा कमाना कितना आसान है। यदि बांग्लादेश में मोहम्मद युनुस का फोर्न्मुला चल सकता है तो बंगाल में पैसों से पैसा बनाने का क्यों नहीं। और बस यहीं वे भूल कर बैठते हैं। बंगाल के अधिकांश शहर यदि कोलकाता, मुर्शिदाबाद व हावड़ा को छोड़ दें तो काफी पीछडे हैं। यहाँ तक कि बर्धमान, दार्जीलिंग व मेदिनीपुर जैसे जिले भी। यह भी एक कारण है कि इन इलाकों में बैंकों की भी कमी है, जिस कारण ये अपनी कमाई ऐसे चिट-फण्ड में लगाने को विवश हैं। कोलकाता, जलपाईगुडी, मालदा जैसे शहरों में चिट-फण्ड की कंपनियाँ घात जमाये बैठी हुई है जो सुदूर ग्रामीण इलाकों से प्रस्थापित होकर आये लोगों के सपनो को अपना शिकार बनाते हैं। बंगाल में सपनों की कमी नहीं है, यही कारण है कि सपने टूटने पर बिखड़ जाने वालों की कमी भी नहीं है, कमी है तो उन सपनो को सही मार्ग दिखाने वाले दर्शन की। अक्सर यही होता है, पहले महाराष्ट्र में हुआ अब बंगाल में हो रहा है। जब किस्मत मनुष्य पर मेहरबान नहीं होता तो वो मृत्यु को अपना खुदा समझ लेता है। खुदा अर्थात सुख, शांति, सम्पन्नता, मोक्ष तथा इहलोक के दुखों का अंत।
क्या ऐसे लूटेरों की जालसाजी के लिए अपनी ज़िन्दगी समाप्त कर देना एकमात्र रास्ता है? हो सकता है कि लोग ये ही सोचते हो। क्या रास्ता बचता है फिर; वही बदनामी, शर्मिंदगी, पछतावा, आभाव व भूखमरी। जिनका कुछ लुटा वे बर्बाद हुए व जिनका सर्वस्व चला गया, वे भी बर्बाद हुए। यदि कोई आबाद हुआ तो वे हैं, ये जालसाज व इनके सहयोगी। क्या भुगत लेगा वो? कुछ वर्षों की जेल। जेल में भरपेट भोजन, ऐश-ओ-आराम। परन्तु जिनका सबकुछ चला गया, वो क्या करेंगे? लटकेंगे, विष का प्याला गटकेंगे और अगर थोड़ी हिम्मत होगी तो घुट-घुट के जियेंगे। अर्थात 'हेवन ऑन अर्थ।' वो मरने के बाद वहीँ जाते है न।
क्या होगा आगे? पता नहीं। कुछ और भंडाफोड़ होंगे। कुछ और सुदीप्त सेनगुप्ता मिलेंगे, कुछ और लुटेरी शारदा मिलेगी और मिलेंगे कुछ और मूर्ख पीड़ित। या लालची पीड़ित या कहेइह्न लचर लालची। जो बर्बादी हुई, उसका भरपाई हो जाएगा, हो जाये। अब भविष्य में ऐसा न हो बस ये ध्यान रहे। बड़े मुश्किल से ये देश साहूकार व सूदखोरों के चंगुल से बाहर निकला है कहीं फिर से उसी गर्त में न चला जाये।।।।।।
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