सोमवार, 22 अक्तूबर 2012


                कितने तैयार हैं बदलाव के लिए? 
परिवर्तन के नारे दागने से बेहतर होगा की सभी एक बार ये सुनिश्चित कर ले की ये बदलाव के लिए तैयार हैं या नहीं. 
'पार्टी वो भी है और इनका भी है, इनका अच्छा कैसा है, ये बताए वरना उनका तो हम अच्छे से जानते ही हैं.' कल मेट्रो में एक आदमी मिला उसने कहा मुझसे. उससे नाम एक्सचेंज हो गया था मेरा. बोला- अंकित भाई! ना वो बिल आने से हमारा भला होता ना इनके राजनीति में आने से, फिर हम इनके जलसे में क्यू नाच रहे हैं? 
घूमता-फिरता ही सही परंतु वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष की कुछ सच्चाई अवश्य व्यक्त करता है. बिल पास करने की माँग का पॉल-खोल राजनीति में परिवर्तित हो जाना यदि आश्चर्यचकित नाही करता तो बड़े घरनो के बड़े घपले क्यों आश्चर्य में डालेंगे? पुर देश की राजनीति तीन हिस्सो में बंटती जा रही है- प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष. एक है जो दूसरे पर आरोप लगता है, दूसरा अपना बचाव करता है और तीसरा उस पर रोटिया सेंकता है. हर रोज़ देश यही सहता है. सभी परिवर्तन की चाह देख रहे हैं, परंतु हमें असल में परिवर्तन चाहिए कहाँ? सरकार से, कॉंग्रेस से या राजनीति से? क्या सत्ता का रुख सीधे राजनीतिक दल से किया जा सकता है? क्या भारत सच में बदलाव की माँग कार रहा है? यदि हाँ, तो किस तरह का बदलाव? सत्ता परिवर्तन या आत्मा परिवर्तन. यदि सत्ता परिवर्तन से देश में संतुलन बनता है, सड़कें गड्ढेमुक्त हो जाती हैं, भूखे पीटो को रोटी मिल जाती है, बेरोज़गार नौकरी करते दिखते हैं, हूमें सरकारी कार्यालयों में पैसा मेज़ के नीचे से नहीं देना पड़े तो ठीक है कार दो सत्ता परिवर्तन. ले आयें किसी अन्या पार्टी को धरातल पर. और सौंप दे उन्हे इस देश का क्कर्यभर. किन्तु यदि सत्ता परिवर्तन से उपरोक्त कार्य ना हुए तो क्या होगा? क्या उस समय हम किसी पर आरोप लगा सकेंगे? 
अक्सर इस देश में मध्यस्थता को चापलूसी ही समझा जाता है. अतः मुझे वो भूल नहीं करना है. एक चाटुकार की संग्या से बेहतर होगा सदा ही भेड़चाल का हिस्सा बनें रहना. व्यवस्था परिवर्तन कोई नया शब्द नहीं है और ना ही इसके अर्थ से कोई भी अनभिग्या है. बस प्रश्णा इसकी उपयोगिता का है. देश में चल रहे क्रियाकलापो से ऐसा लगता हैकि एक देशव्यापी आंदोलन, सविनय अवगया में बदलती जा रही है. कैसे एक टोपिधारी क्रांतिकारी अपने आपको नेता सर्वनमीत करता है और पॉल-खोल की राजनीति प्रारंभ होती है. सड़क का यह आंदोलन संसद की रह पकड़ने के लिए अपने ही जुटाई भीड़ से ये कहता है की कब, कहाँ, और कैसे घेराव करना है? व्यवस्था परिवर्तन की माँग इतनी तेज़ आग पकड़ चुकी है की आम आदमी शौक से उसमे जौहर कर रहा है और वो भी अनजान बनकर.  
सभी मुद्दे जो देश के दरवाज़े पर दस्तक देती है और फिर अपना रुख बदल लेती है को दिशाहारा बना संसद बदलने का हथियार बना लेना बदलाव नहीं होगा वरन अपने अंदर की क्षमताओं को समझ कर देश के लिए उसे समर्पित करना बदलाव की चिंगारी में पहला आचमन होगा. परिवर्तन के नारे दागने से बेहतर होगा की हम ये सुनिश्चित कर ले कि अब परिवर्तन के लिए तैयार हैं. ये परिवर्तन की आग भी आ. सहसा ही नहीं उठी किन्तु यह तो रोजमर्रा के जीवन में आने वाली तकलीफों का बवंडर है जो नित्य ना सही कभी तो आएगा और लगता है वो रहा है. अक्सर आम आदमी की चिंताओं को मुद्दा बनाकर सिर्फ चुनाव जीता जाता है, अब शायद देश जागरूक हो रहा है और कहते हैं की हमारे उंगकी में वो ताक़त है की जो किसी भी हाथ को तोड़ सकती है और किसी भी कमल को मुरझाने पर मजबूर करसकती है. यह वो क्रांति है जिसमे इतनी तेज है कि स्वयंभुओं की सरकार को पिघला सकती है, किन्तु ये आग धधकति क्यों नहीं है? क्या सत्ता परिवर्तन के नारे सिर्फ नारों के रूप में ही अच्छे लगते हैं? सत्ता परिवर्तन के पास्चत मनुष्या को स्वयं को परिवर्तन के अनुकूल बना लेना आवश्यक है. इतिहास इस बात की साक्षी है की इस देश में बदलाव सभी के लिए अपच ही रहा है या ये कहें कभी उसके लायक ही नहीं रहे. "स्वयं को आ. में देखा, कुछ कमी लगी, चलो ठीक है, बाँकी तो इतना भी नहीं है." तो कैसे आएगा परिवर्तन? 
समाज में परिवर्तन , सत्ता परिवर्तन से अधिक आवश्यक है. भ्रष्टाचार कम करने के लिए कॉंग्रेस या भ.ज.प. को हटाना आवश्यक नहीं है. आवश्यक है कि उस शासन में अपनी ओर से क्या प्रस्तुत कार रहें हैं. यदि मिठाई के डिब्बे में पैसे जा. तो घुस कैसे कम होगी, यदि कार्य से पहले जाति आएगी तो अच्छा जनप्रतिनिधि कैसे आएगा, कार्चोरी होगी तो देश का विकास कैसे होगा, हाथ गंदी ना करवाने की परंपरा सफाई कैसे करवाएगी? अपने कर्तव्यों की अवमानना करके कैसे अपने अधिकारो के रक्षा की गौरानटी तय करवा सकते हैं? 
अतः परिवर्तन की ज्वाला भडकाने से अच्छा होगा कि पहले उसके लायक बने और फिर यदि प्रशासन हमारे लायक नहीं तो उन्हे हटाना अनुचित नहीं होगा. अपनी आंखो मेई अंगारे रखना उचित है परंतु हर कदम पर आग लगाना कदाचित् नहीं.

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