गरजते और बरसते बादलों के बीच
क्या इस देश में शासन इतनी चरमरा गयी है की हमें बदलाव के लिए क्रांति की आवश्यकता है?
यूँ तो रोशनी के लिए एक दिया ही काफी है,
यदि किले में आग लगा दें तो क्या कमी?
अब इस देश को और क्या-क्या देखना है? उत्तेजना को कभी उत्सुकता का चोला नहीं पहनाना चाहिए. इस देश को संगम ही खाएगी. उत्तेजना, उत्सुकता, उत्सव और उदारता का संगम. इस देश का इतिहास बताता है कि यहाँ कभी क्रांति सार्थक नहीं रहा और ना ही सफल. इसके संस्कार कहें या मक्कारी की क्रांति को कुचल ही दिया जाता है. पिछले दो वर्षों में जो इस देश में आंदोलनो का अध्याय प्रारंभ हुआ है, उसका ध्येय क्या है? समाज परिवर्तन? आंदोलन ने बिल्कुल सही नब्ज़ पकड़ा था, इस देश की सबसे भीषण महामारी- भ्रष्टाचार. वहाँ से लेकर 4 अगस्त 2012 तक का सफर काफी सुहाना रहा है. करीब डेढ़ साल तक समाज परिवर्तन की बात करने वेल दल ने जिस तरह सत्ता परिवर्तन का रुख किया, कतई अचंभित नहीं करता. नीति और न्याय, किसी भी शासन के दो स्तंभ होते हैं, दल को अपने प्रयास के बदले दोनो ही नहीं मिले. फिर छ्न्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की वो लघुकथा याद आती है जिसमे वो कहते हैं की धर्मा एक घड़ी की तरह है, जैसे घड़ी ठीक करने के लिए घडिसाज़ होना जरूरी है, वैसे ही धर्म की खामियाँ धर्माधिकारी ही ठीक कार सकते हैं. यदि नलो की गंदगी साफ करनी है तो नाले में उतरना ही पड़ेगा, अच्च्हा है की ये दल पीछे नहीं हटा, हमारे कुलीन वर्ग की तरह कि शहर की गंदगी साफ करने में हाथ क्यूँ गंदे करें? गंदगी और प्रशासन को गली देने में क्या बुराई है?
क्या राजनीति में प्रवेश करना सच में इतना वीभत्स कार्य है? तब तो इसमे प्रवेश करना ही चाहिए. प्रश्न ये है की वो दल तो सत्ता परिवर्तन चाहती है हम क्या चाहते हैं? मूल्यांकन आवश्यक है, क्या घोटालों की वजह से हम सरकार से दुखी हैं, या बढ़ती महंगाई की वजह से. सरकार का तर्क ये है कि यदि समूचे शहर में बारिश हो रही हो तो एक घर अच्हूटा नहीं रह सकता. भले ही वो घर वॉटरप्रूफ क्यों ना हो? इस देश में कुछ तो अजन्म विरोधी रहें हैं, सत्या पर भी शक करना उनकी आदत है. क्या सच में विश्वा में फैली आर्थिक शोक की वजह से भारतिया अर्थव्यवस्था तंगी हुई है? क्यों प्रधानमंत्री महोदय मिश्रित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भी आप इस खस्ताहाल को ठीक नहीं कार पा रहें, किसकी गलती है?
नेया जाने क्यूँ, आज कल जब भी आँखें बंद करके, पिछले कुछ समय में हुए घटनाओं को याद करता हू तो चिल्लाती भीड़, गरगरती सरकार और मुस्कुराते मुद्दे ही नज़र आते हैं. आए दीं नये घोटाले सामने आते हैं और मुद्दा बाज़ार गरमा जाता है, भारतिया राजनीति की ऐसी क्या स्थिति हो गयी है, कभी गरजने-बरसने वाले मेघ अब बस आते हैं, घटा पर छा कार निकल जाते हैं. ये मेघ भी अब डरते हैं, कहीं बरसने से किसी घोटाले के उपर जमी धूल ना धूल जाए और एक और नया घोटाला सामने आ जाए. तभी तो इस मानसून में मॅढिया प्रदेश की घाटियों में बरसात हुई या राजस्थान के रेगिस्तान में. दिल्ली में बरसने का नाम नहीं लिया क्यूँकि उसे दर था पता नहीं क्या हो जाए? पूरी मानसून में आरोप ही बरसते रहे और नेता ही गरजते रहे.
इन गरजते और बरसते बादलों के बीच आम आदमी ट्रस्ट होता रहा. इन घोटालों से हमें क्या घ्ता? बहुत.. गिन कार देखिए.