मंगलवार, 18 नवंबर 2014

देख कबीरा रोये!!


बिग बॉस के घर में कबीर
                                          -         अंकित झा

मानव मानव में ये कैसा बैर, जो कानाफूसी करते सोये,
भेद नहीं कोई कैसा है, मन अब व्याकुल होए
इस विचित्र व्यवस्था को देख कबीरा रोये......


बहुत सुन रखा है, सोंचा हो ही आये एक बार को. जहां हीरो-हेरोइन से लेकर नेता, डकैत, कवि, खिलाड़ी और यहाँ तक कि स्वामी-साधू भी निवास कर आये हों. मैं तो कवि भी हूँ, और स्वामी-साधू भी. खिलाड़ी भी हूँ, और पथ-प्रदर्शक भी. जब मुझसे गृहप्रवेश का आग्रह किया था तो मैं इतना डर गया था कि  4 दिन तक अपने घर भी नहीं लौटा था, मेरी कलम विरह के आग में इतनी जलने लगी कि स्वतः चलने लगी और ना जाने किन हालातों में वो बेवफाई कर बैठी मुझसे. बिग बॉस वालों के आग्रह कागज़ पर उसने मेरे हस्त उकेर दिए, रात भर पंखे को देख कर यही सोंच रहा था, बिना डुलाये न डुले, जो पंखे का पैन. फिर समझ में आया कि गर्मी बहुत हो गयी है, पंखा डुला ही लिया जाए. उस घर में पंखा तो होगा न? मेरे चन्दन की कद्र तो होगी न? चलो रह कर देख ही लिया जाये. फुर्सत में लिख भी लिया जाएगा, सचिन तेंदुलकर के रनों का रिकॉर्ड तोडूंगा अपने दोहों से. कॉन्ट्रैक्ट वगैरह पर हस्त उकेर कर मैंने निश्चय किया कि घर के माहौल को देख कर ही अगला निर्णय किया जाएगा. और अपनी पोटली उठा कर मैं चल दिया बिग बॉस के घर में. मेरे लिए तो एक ही बिग बॉस है, वो चन्दन मैं पानी, वो दीपक मैं बाती, वो सूरज मैं तेज, वो जल और मैं शीतलता. किसी और बिग बॉस का आदेश मुझे पराई स्त्री के साथ सम्मोहन सा लग रहा था. धूम-धाम से मुझे चमचमाते सेट पर बुलाया गया, जब तक ना बुलाया गया, काले परदे के पीछे मुझे खड़ा रखा गया, हट्ठे-कट्ठे नौजवान प्रहरी की तरह इर्द-गिर्द गश्त लगाए थे. आज मैं घर बसाने जा रहा था, अपनी काशी से बहुत दूर, आने वाले किसी दुस्स्वप्न को जो मैं देख रहा था, उसे शब्दों में पिरो पाना मेरे लिए भी आसान नहीं है.

दरवाजा खसका, मैं भीतर, कलम ले जाने की अनुमति नहीं मिली. कहा जब ये खिलाड़ी बल्ला लेकर नहीं जा रहा तो आप कलम का क्या करेंगे? मैं चुप रहा, अपने स्वामी को याद किया और उनसे शुभाशीष लेकर पहला कदम किसी नवागंतुक वधु की भांति अन्दर रखा, चावल नहीं थे द्वार पर, अतः मैंने वहाँ उगे हुए घास को ही चावल का उपमा देकर कहा, “बिग बॉस बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, दीखता-विखता है नहीं, हुक्म दे जैसे हजूर”. ईश्वर को दिल में बसाये मैं घर में प्रवेश कर चूका था. घर में पहले से 7 लोग थे, मुझे देखकर थोडा आश्चर्य करने लगे, सोंचने लगे कौन है ये, नरहरि? सृष्टिकर्ता ने मुझे कुछ अलग तो निर्मित किया नहीं है, जैसे सब हैं, वैसे हम भी ठहरे. अब बस मेरे तुलसी के माले और माथे पर लगे चन्दन के लेप के कारन अलग क्यों बताया गया. तभी एक सुंदरी ने आगे बढ़कर मेरा अभिवादन किया, मैंने भी हंसकर उसे स्वीकार किया. एक एक कर सभी ने मुझे सादर संबोधित किया अमिने सभी का आभार प्रकट किया. अब जब घर में 13 मनुष्यों संग मैं वार्तालाप में लीन था, हुजूर-ए-आलम का पहला आदेश आया, उन्होंने हम सबका स्वागत किया तथा अपने हाल पर जीने को छोड़ दिया.

घर में 7 सुंदरियों, 5 नौजवानों के अतिरिक्त मैं और एक अन्य नौजवान है. उस नौजवान को मैं प्रारंभ से ही देख रहा हूँ, जो अब तक समझ में आया है वो ये है कि घोर कलयुग आ गया है. उसकी जो नज़र है वो क्रिकेटर पर अच्छी नहीं लग रही. उस सुन्दरी को देखिये, क्या उसे लग नहीं रहा कि उसके नितम्बों के वजन टेल उस आसन का दम निकला जा रहा है, इधर से उधर ढुलके जा रही है, परन्तु अक्ष नहीं बदल रही है, आसन की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जा रही. इस घर में जो ये मेरी पहली रात है बड़ी भयानक तथा अंतहीन सी लग रही है. मैं तो बैरागी ठहरा, दुनिया के झमेले से मुझे क्या लेना, मेरे पास जो सुंदरी आसन लिए बैठी है, दूसरी सुंदरी से कह रही है, ‘यू नो हर फर्स्ट वन डिच्ड हर एन शी टोल्ड मीडिया देट ही चीटेड ओन हर’. और वो बत्तीसी दिखा कर हंस दी. मुझे कुछ समझ नहीं आया अतः मैं मौन रहा. वह जो संदिग्ध नौजवान है, पुरुषों से अधिक स्त्रियों के साथ स्वाभाविक है. पुरुषों के प्रति उसकी आँखों में अनोखा सम्मोहन है, एक और सुंदरी है जो कसमसा कर चल रही है, उसके हर कदम के बाद नौजवानों की आह निकल रही है, कोई कह रहा है, अबे करीब से भी उतनी ही बम दिखती है, तो कोई इसी बात को किसी अन्य भाषा में कह रहा है. एक प्रौढ़ा भी हैं, परन्तु उनकी भी सुन्दरता की कोई सीमा नहीं है. मैं तो सोंचता था कि काशी की गलियां ही सबसे सुन्दर हैं, परन्तु यहाँ के रूप को कोई उपमान देना मेरे शब्दों की हैसियत नहीं. एक सुंदरी के केश यूँ एक दुसरे में उलझे हुए हैं मानों, बरसात के बाद कई झाड़ियाँ एक दुसरे से जा मिली हों, इतनी कोमल कि हरसिंगार की कलियाँ भी शरमा जाए. सौन्दर्य तथा नाजुकता के रस से परिपूर्ण. एक नौजवान आईना देखे जा रहा है, ऐसा लग रहा है जैसे स्वयं को आईने में देख कर ईश्वर की प्राप्ति हो रही हो, उन्हें क्या पता कि न वो काशी, न वो काबा, वो तो हैं विश्वास में. सभी लोग ऐसे लग रहे हैं, जैसे किसी आचे कार्य के लिए उन्हें एकत्र किया गया है और अब ये सभी राष्ट्ररक्षा हेतु यहाँ से कूच करेंगे. सुंदरियों का सौन्दर्य तथा नौजवानों की आँखों में बढ़ते सम्मोहन के मध्य मैं अकेला बैठा हुआ हूँ. जीवन के यथार्थ तथा रात के विडंबना के मध्य रात्रि के गुजरने की मैं बाट देखता रहा.

रात भर इनकी खुसुर-फुसुर जारी रही, समझ ही नहीं पा रहा था कि रात लम्बी होने से भला बातें थोड़ी ही बढ़ जाती हैं. मेरी कलम मेरे बिना विरह के जिस अग्नि में जल रही होगी, ये सोंच रहा था, कभी मेरे सुबह के नए गीत लिखने वाली मेरी साथी आज अकेली उदास सो रही होगी. आज सुन्दरता से बड़ा कोई आडम्बर नहीं है, ये रात के ढलते ढलते मेरे समझ में आ रहा था. संसार में सौन्दर्य को ढंकने की कला का विकास हो गया है. एक एक कर सभी ढ़लते चले गये, मैं, आँखें खोले रात भर सोंचता रहा ये कैसा जीवन है? इतने अपरिचितों के बीच, मैं खुदा से परिचित कैसे हो पाऊंगा भला! हुजूर-ए-आलम के अगले आदेश तक तो मैं तुच्छ, इन अपरिचितों की भीड़ में अकेला रह जाऊंगा. सुबह हो चुकी थी, प्रभात की पहली किरण के संग मेरे नए अध्याय का पत्रा खुला. सवेरे सही घर में गहमा गहमी है, कार्य आवंटित किये जा रहे थे, मुझे कोई कैसे काम दे सकता है, जब खुदा ने मुझे कोई काम नही दिया तो ये खुदा के सवाल कैसे दे सकते हैं? मैं भी संकोच में अपने कार्य की प्रतीक्षा करता रहा, कोई तो कार्य मिले करने को, ऐसे सोंचता रहा तो जान चली जानी है. कार्य के आवंटन में कोई रुकावट आ गयी है, दो नौजवानों में जुबानी जंग छिड़ गयी है, अब तो खुले में एक दुसरे को अपशब्द कहे जा रहे हैं, हम तो पर स्त्री के समक्ष ईश्वर को याद नहीं करते, ये क्या क्या बोले जा रहे हैं. चल, चल से शुरू हुई बात माता-भगिनी तक पहुँच गयी है, मेरे शब्द तथा अनुभव यदि बीच बचाव कर पाए तो मैं स्वयम को कृत्य समझूंगा. बीच बचाव करने मैं चला तो गया, परन्तु क्रोध ने मुझे भी नहीं बख्सा, जिस तरह मैं कभी गुलाब बन गया था, आज सोंचा नाग बन जाऊं, और सभी को अपने दंश में ले लूं, परन्तु मुझे ये शोभा नहीं देता. एक सुंदरी जो अब मेरे ज़माने की किसी विचित्र वनपरी सी प्रतीत हो रही थी, ने मुझे बीच में न आने का आदेश दिया, स्त्री से बात करने में सदा ही संकोच करता रहा हूँ मैं. फिर उस अप्राकृतिक आदमी ने मुझे सहारा देकर वापस अपनी तरफ खींच लिया, मैं खिंच तो गया परन्तु उस मध्य जो बिजली मेरे रोम-रोम में कौंधी उसका वर्णन मैं नहीं करना चाहता. धीरे धीरे सब शांत हो गया, दल बन गये, कोई वहाँ चोंच लगाये बैठा है, कोई कहीं ओर. सुंदरियां अपने वस्त्रों को कभी ठीक करती हैं, तो कभी जस की तस छोड़ देती हैं, इसे समाज निर्लज्जता की संज्ञा क्यों ना दे?

मुझे क्रोध आ रहा था, मैं अकेला छूट गया था. मेरे होंठ सूजे जा रहे थे, भभक रहे थे, आँखों के आगे काले बादल से छा रहे थे. आँखें कभी रुआंसी हो जाती तो कभी शांतचित्त. वो प्रौढ़ा इस उम्र में भी किसी कमसिन की तरह युवाओं के कलेजे को जला रही थी, मेरे भी. मैं वहाँ से उठ भगा, किसी की प्रतीक्षा किये बिना, कलम से जा मिला, लिपट के रो दिया. और लिखा:
कबीरा खड़ा बाज़ार में, देख कलम को राये,

कैसी पटकथा थी जिसमें मनुष्य अकेला सोये.

सोमवार, 17 नवंबर 2014

अंतर्मन से

जीना आया
-         मनीष झा



आज जब इस गुस्ताख़ मौसम में,
अपने घर से निकला तो एक ख्याल आया,
बादल की ओट से आंखमिचौली करता धूप,
मेरे होंठों पर ना जाने क्यों मुस्कान बिखेर रहा है,
आँखों को जो आदत थी, सपने बुनने की
ठीक वैसे ही चेहरे का ख्याल आया..

तेरी मासूम सी आँखों को देख..
मेरे दिल को सुकून आया
बेजान सा पडा हुआ था मैं,
तुम्हें देखा तो जीने का ख्याल आया,
क्या होती है आशिक़ी
ये तुमने मुझे बताया।।

सो चुकी थी ज़िन्दगी मेरी...
जिसे तुमने फिर से जगाया।
नम पड़ी मेरे आँखों को..
तुमने फिर से है हँसना सिखाया।।
जी रहे थे गफलत की ज़िन्दगी अब तक,
तुम्हारे एहसास ने दिल को धड़कना सिखाया,
क्या होती है आशिकी..
ये तुमने मुझे बताया।।

यूँ बदलते हुए देख मेरा नसीब, खुदा भी सोंचता रहा,
सोयी रातों में जागे जागे मुस्कुराता रहा,
मैं शुक्रगुजार हूँ उन लम्हों का,
जब तुम्हारा दीदार पाया था मैंने,
खुदा का, कि उसने तुम्हें बनाया
क्या होती है आशिकी..
ये तुमने मुझे बताया।।

वो हलकी सी तुम्हारी मुस्कान, ..
होठों के पास तिल का यूँ सिकुड़ना,
नज़ाकत तुम्हारी अदाओं का जो है,
जादू सा है मुझपे चलाया।।
लब्ज़ ना थे जिसे कुछ कहने को..
उसे शायर है तुमने बनाया।।
क्या होती है आशिकी...
ये तुमने मुझे बताया।।

बुधवार, 12 नवंबर 2014

फिल्म रिव्यु

समाज के सिद्धांत तथा शैतानियों का अवशेष है शौक़ीन

                                                  -         अंकित झा

जब तक समाज अपनी सनकियों से पार नहीं पा लेगा, तब तक समाज में ग्रंथियां व्याप्त रहेगी. मानवीय विकार तथा अधूरे सपने, या फिर कहें कि अधूरी ग्लानियां सदा से ही समाज में बढ़ते वहशीपन का कारण रही है. जब समाज में अनुभव तथा मर्यादा के प्रतीक कहे जाने वाले वृद्ध कभी अपने अरमान पूरे करने निकल पड़े तब क्या हो? इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि शैतानी किस उम्र में हो रही है, परन्तु यदि उस शैतानी में किसी की अस्मिता तथा मर्यादा खतरे में पड़ती है तो वह गलत है. अपनी फिल्म तेरे बिन लादेन में अंतर्राष्ट्रीय शांति का सन्देश देने वाले अभिषेक शर्मा ने जब 80 के दशक की सफल फिल्म शौक़ीन को पुनः बनाने की सोंची होगी तो क्या उनके सामने समाज के मानदंड नहीं आये होंगे? अपने राजनीतिक तथा सामाजिक उद्देश्यों को उजागर करने वाले तिग्मांशु धूलिया जब ये फिल्म लिख रहे होंगे तो क्या उन्हें समाज में व्याप्त गंद नहीं दिखा होगा? परन्तु हर विषय को नज़रंदाज़ कर दिया गया, फिल्म के प्रथम दृश्य से अंतिम दृश्य तक आज के समाज के सबसे बड़े प्रश्न का ख्याल किसी को नहीं आया, पता नहीं कैसे? हालाँकि फिल्मों से हमें ऐसी अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए परन्तु अब जब सिनेमा समाज में दखल दे रहा है तो ऐसी अपेक्षाएं गलत कैसे हो सकती हैं. तीन बूढ़े, 2 शादीशुदा परन्तु वो उच्चाहट अभी समाप्त नहीं हुई, 1 विधवाश्रम चलाता है परन्तु उसका आश्रम की विधवाओं के संग किया जाने वाला व्यवहार अनुचित ही नहीं अश्लील लगता है.


अनुपम खेर, पियूष मिश्र तथा अन्नू कपूर तीनों ही अभिनेता अपने किरदार में अच्छे लगते हैं, पियूष मिश्रा को पहली बार ऐसा पात्र अभिनीत करते देख अच्छा लगा. इसके पहले वो तेरे बिन लादेन तथा रॉकस्टार में सार्थक अभिनय कर चुके हैं, अन्नू कपूर को विक्की डोनर के बाद फिल्म मिलने लगे हैं. अनुपम खेर हर शुक्रवार को ही दिखाई देते हैं तो उनके प्रति ऐसी कोई उत्सुकता नहीं दिखी. क्वीन के बाद अभिनेत्री लिसा हेडन से काफी उम्मीदें होनी लगी थी, वह व्यर्थ था. अक्षय कुमार इस बार वो कर रहे हैं जो फराह खान तथा साजिद खान बेहतरीन तरीके से करते हैं, अपने अरमान को किरदार के नज़र से पेश करना. यह कोई छुपी बात नहीं कि अपने 22 वर्ष के करियर में अक्षय कुमार ने एक भी सफल संजीदा फिल्म नहीं की है और ना ही कोई सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीता है. वहीँ उनके सबसे नज़दीक के साथी रहे सुनील शेट्टी ने रेड जैसी फिल्म कर चौंका दिया था, इससे अक्षय के स्टारडम पर कोई फर्क नहीं पडा है, और न ही वो बुरे अभिनेता हैं. जॉन अब्राहम जैसे अभिनेता भी ‘विरुद्ध, मद्रास कैफ़े’ जैसी संजीदा फिल्म कर चुके हैं, पूरी फिल्म को फराह खान तथा रोहित शेट्टी नुमा हास्य से सजाय गया है. फिल्म में गलत के नाम पर यह है कि यहाँ वो हो रहा है जो हम नित्य और शायरियों में सुनते रहे हैं. कौन कहता है कि बूढ़े इश्क नहीं करते. हालाँकि बूढों की मासूमियत हंसने पर विवश करतीहै परन्तु एक समय के बाद वो मासूमियत हवस सी प्रतीत होने लगती है, तत्पश्चात हंसने के लिए किसी स्थिति विशेष की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. कहानी इतनी स्पष्ट है कि कोई भी आसानी से समझ जाए आगे क्या होने वाला है. कहानी में ट्विस्ट के नाम पर अक्षय कुमार के प्रति एक लड़की की दीवानगी को दर्शाया गया है. ऐसा लगभग होता है, 70 के शुरुआत में आई हृषिकेश मुख़र्जी की जया भादुरी अभिनीत “गुड्डी” इसका सबसे अनुपम उदाहरण है. फिल्म में फूहरता के लिए जगह है परन्तु परिवार दर्शकों के लिए उसे कम करने की कोशिश की गयी है. बीते कुछ समय में आई सभी हास्य फिल्मों से इस फिल्म में फूहरता कम है, लेकिन है अवश्य. एक अंतहीन अंत, तथा एक धरातलरहित नींव फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है. निर्देशन के लिए कुछ विशेष करने को था नहीं परन्तु अपना काम अभिषेक बखूबी करते हैं. अभिनय सभी का अच्छा है, यदि लिसा हेडन को छोड़ दिया जाए. अक्षय कुमार चित परिचित अंदाज़ में हैं, उन्ही के तरह के गाने भी हैं जिसमें वो 50 से भी अधिक बार थिरक चुके हैं. तीनों वरिष्ठ नागरिक फिल्म को बचाने की कोशिश करते हैं, अनु कपूर का सबसे उम्दा काम है, पियूष मिश्र भी खूब समां बांस्ते हैं. अनुपम खेर कुछ स्पष्ट नहीं कर पाए.
शौक़ीन कतई एक विशेष फिल्म नहीं है, यह ना ही एक सार्थक हास्य है और ना ही सार्थक सामाजिक कथा. यदि कुछ है तो निरर्थक सिनेमा. कला फिल्मों के प्रति अक्षय कुमार का रुझान हमें याद दिलाता है कि इस समय कितनी आवश्यकता है कि बड़े अभिनेता कुछ सार्थक करें. लेखक के नज़र से ना सही अपनी ही नज़र से इस फिल्म को एक कटाक्ष के रूप में अवश्य देखा जाए.

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

अंतर्मन से

पहचान
-          मनीष झा
भर ले नई उड़ान,
बना ले तेरी पहचान।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।

तेरे इरादे है महान,
मत बन खुद से तू अनजान।
कर जा तू कुछ ऐसा काम,
जग बन जाए तेरा कद्रदान।।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।

अपने मन की बात तू मान,
हौसलों को  चढ़ा तू परवान।
तू मनुष्य है क्षमतावान,
ईश्वर को भी है तुझपे गुमान।।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।

तुझसे कहता है ये नादान,
अकेला खुद को ना तू जान।
तू हम सबका है अभिमान,
तुझे है जीतना ये जहान।।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।