बिग
बॉस के
घर में
कबीर
-
अंकित झा
मानव मानव में ये कैसा बैर, जो कानाफूसी
करते सोये,
भेद नहीं कोई कैसा है, मन अब व्याकुल
होए
इस विचित्र व्यवस्था को देख कबीरा रोये......
बहुत सुन रखा है, सोंचा हो ही आये एक बार को. जहां हीरो-हेरोइन
से लेकर नेता, डकैत, कवि, खिलाड़ी और यहाँ तक कि स्वामी-साधू भी निवास कर आये हों.
मैं तो कवि भी हूँ, और स्वामी-साधू भी. खिलाड़ी भी हूँ, और पथ-प्रदर्शक भी. जब
मुझसे गृहप्रवेश का आग्रह किया था तो मैं इतना डर गया था कि 4 दिन तक अपने घर भी नहीं लौटा था, मेरी कलम
विरह के आग में इतनी जलने लगी कि स्वतः चलने लगी और ना जाने किन हालातों में वो
बेवफाई कर बैठी मुझसे. बिग बॉस वालों के आग्रह कागज़ पर उसने मेरे हस्त उकेर दिए,
रात भर पंखे को देख कर यही सोंच रहा था, बिना डुलाये न डुले, जो पंखे का पैन. फिर
समझ में आया कि गर्मी बहुत हो गयी है, पंखा डुला ही लिया जाए. उस घर में पंखा तो
होगा न? मेरे चन्दन की कद्र तो होगी न? चलो रह कर देख ही लिया जाये. फुर्सत में लिख
भी लिया जाएगा, सचिन तेंदुलकर के रनों का रिकॉर्ड तोडूंगा अपने दोहों से. कॉन्ट्रैक्ट
वगैरह पर हस्त उकेर कर मैंने निश्चय किया कि घर के माहौल को देख कर ही अगला निर्णय
किया जाएगा. और अपनी पोटली उठा कर मैं चल दिया बिग बॉस के घर में. मेरे लिए तो एक
ही बिग बॉस है, वो चन्दन मैं पानी, वो दीपक मैं बाती, वो सूरज मैं तेज, वो जल और
मैं शीतलता. किसी और बिग बॉस का आदेश मुझे पराई स्त्री के साथ सम्मोहन सा लग रहा
था. धूम-धाम से मुझे चमचमाते सेट पर बुलाया गया, जब तक ना बुलाया गया, काले परदे
के पीछे मुझे खड़ा रखा गया, हट्ठे-कट्ठे नौजवान प्रहरी की तरह इर्द-गिर्द गश्त लगाए
थे. आज मैं घर बसाने जा रहा था, अपनी काशी से बहुत दूर, आने वाले किसी दुस्स्वप्न
को जो मैं देख रहा था, उसे शब्दों में पिरो पाना मेरे लिए भी आसान नहीं है.
दरवाजा
खसका, मैं भीतर, कलम ले जाने की अनुमति नहीं मिली. कहा जब ये खिलाड़ी बल्ला लेकर
नहीं जा रहा तो आप कलम का क्या करेंगे? मैं चुप रहा, अपने स्वामी को याद किया और
उनसे शुभाशीष लेकर पहला कदम किसी नवागंतुक वधु की भांति अन्दर रखा, चावल नहीं थे
द्वार पर, अतः मैंने वहाँ उगे हुए घास को ही चावल का उपमा देकर कहा, “बिग बॉस बड़ा
हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, दीखता-विखता है नहीं, हुक्म दे जैसे हजूर”. ईश्वर
को दिल में बसाये मैं घर में प्रवेश कर चूका था. घर में पहले से 7 लोग थे, मुझे
देखकर थोडा आश्चर्य करने लगे, सोंचने लगे कौन है ये, नरहरि? सृष्टिकर्ता ने मुझे
कुछ अलग तो निर्मित किया नहीं है, जैसे सब हैं, वैसे हम भी ठहरे. अब बस मेरे तुलसी
के माले और माथे पर लगे चन्दन के लेप के कारन अलग क्यों बताया गया. तभी एक सुंदरी
ने आगे बढ़कर मेरा अभिवादन किया, मैंने भी हंसकर उसे स्वीकार किया. एक एक कर सभी ने
मुझे सादर संबोधित किया अमिने सभी का आभार प्रकट किया. अब जब घर में 13 मनुष्यों
संग मैं वार्तालाप में लीन था, हुजूर-ए-आलम का पहला आदेश आया, उन्होंने हम सबका
स्वागत किया तथा अपने हाल पर जीने को छोड़ दिया.
घर
में 7 सुंदरियों, 5 नौजवानों के अतिरिक्त मैं और एक अन्य नौजवान है. उस नौजवान को
मैं प्रारंभ से ही देख रहा हूँ, जो अब तक समझ में आया है वो ये है कि घोर कलयुग आ
गया है. उसकी जो नज़र है वो क्रिकेटर पर अच्छी नहीं लग रही. उस सुन्दरी को देखिये,
क्या उसे लग नहीं रहा कि उसके नितम्बों के वजन टेल उस आसन का दम निकला जा रहा है,
इधर से उधर ढुलके जा रही है, परन्तु अक्ष नहीं बदल रही है, आसन की दुर्दशा मुझसे देखी
नहीं जा रही. इस घर में जो ये मेरी पहली रात है बड़ी भयानक तथा अंतहीन सी लग रही
है. मैं तो बैरागी ठहरा, दुनिया के झमेले से मुझे क्या लेना, मेरे पास जो सुंदरी
आसन लिए बैठी है, दूसरी सुंदरी से कह रही है, ‘यू नो हर फर्स्ट वन डिच्ड हर एन शी
टोल्ड मीडिया देट ही चीटेड ओन हर’. और वो बत्तीसी दिखा कर हंस दी. मुझे कुछ समझ
नहीं आया अतः मैं मौन रहा. वह जो संदिग्ध नौजवान है, पुरुषों से अधिक स्त्रियों के
साथ स्वाभाविक है. पुरुषों के प्रति उसकी आँखों में अनोखा सम्मोहन है, एक और
सुंदरी है जो कसमसा कर चल रही है, उसके हर कदम के बाद नौजवानों की आह निकल रही है,
कोई कह रहा है, अबे करीब से भी उतनी ही बम दिखती है, तो कोई इसी बात को किसी अन्य
भाषा में कह रहा है. एक प्रौढ़ा भी हैं, परन्तु उनकी भी सुन्दरता की कोई सीमा नहीं
है. मैं तो सोंचता था कि काशी की गलियां ही सबसे सुन्दर हैं, परन्तु यहाँ के रूप
को कोई उपमान देना मेरे शब्दों की हैसियत नहीं. एक सुंदरी के केश यूँ एक दुसरे में
उलझे हुए हैं मानों, बरसात के बाद कई झाड़ियाँ एक दुसरे से जा मिली हों, इतनी कोमल
कि हरसिंगार की कलियाँ भी शरमा जाए. सौन्दर्य तथा नाजुकता के रस से परिपूर्ण. एक
नौजवान आईना देखे जा रहा है, ऐसा लग रहा है जैसे स्वयं को आईने में देख कर ईश्वर
की प्राप्ति हो रही हो, उन्हें क्या पता कि न वो काशी, न वो काबा, वो तो हैं
विश्वास में. सभी लोग ऐसे लग रहे हैं, जैसे किसी आचे कार्य के लिए उन्हें एकत्र
किया गया है और अब ये सभी राष्ट्ररक्षा हेतु यहाँ से कूच करेंगे. सुंदरियों का
सौन्दर्य तथा नौजवानों की आँखों में बढ़ते सम्मोहन के मध्य मैं अकेला बैठा हुआ हूँ.
जीवन के यथार्थ तथा रात के विडंबना के मध्य रात्रि के गुजरने की मैं बाट देखता
रहा.
रात
भर इनकी खुसुर-फुसुर जारी रही, समझ ही नहीं पा रहा था कि रात लम्बी होने से भला
बातें थोड़ी ही बढ़ जाती हैं. मेरी कलम मेरे बिना विरह के जिस अग्नि में जल रही
होगी, ये सोंच रहा था, कभी मेरे सुबह के नए गीत लिखने वाली मेरी साथी आज अकेली
उदास सो रही होगी. आज सुन्दरता से बड़ा कोई आडम्बर नहीं है, ये रात के ढलते ढलते
मेरे समझ में आ रहा था. संसार में सौन्दर्य को ढंकने की कला का विकास हो गया है.
एक एक कर सभी ढ़लते चले गये, मैं, आँखें खोले रात भर सोंचता रहा ये कैसा जीवन है?
इतने अपरिचितों के बीच, मैं खुदा से परिचित कैसे हो पाऊंगा भला! हुजूर-ए-आलम के
अगले आदेश तक तो मैं तुच्छ, इन अपरिचितों की भीड़ में अकेला रह जाऊंगा. सुबह हो
चुकी थी, प्रभात की पहली किरण के संग मेरे नए अध्याय का पत्रा खुला. सवेरे सही घर
में गहमा गहमी है, कार्य आवंटित किये जा रहे थे, मुझे कोई कैसे काम दे सकता है, जब
खुदा ने मुझे कोई काम नही दिया तो ये खुदा के सवाल कैसे दे सकते हैं? मैं भी संकोच
में अपने कार्य की प्रतीक्षा करता रहा, कोई तो कार्य मिले करने को, ऐसे सोंचता रहा
तो जान चली जानी है. कार्य के आवंटन में कोई रुकावट आ गयी है, दो नौजवानों में
जुबानी जंग छिड़ गयी है, अब तो खुले में एक दुसरे को अपशब्द कहे जा रहे हैं, हम तो
पर स्त्री के समक्ष ईश्वर को याद नहीं करते, ये क्या क्या बोले जा रहे हैं. चल, चल
से शुरू हुई बात माता-भगिनी तक पहुँच गयी है, मेरे शब्द तथा अनुभव यदि बीच बचाव कर
पाए तो मैं स्वयम को कृत्य समझूंगा. बीच बचाव करने मैं चला तो गया, परन्तु क्रोध
ने मुझे भी नहीं बख्सा, जिस तरह मैं कभी गुलाब बन गया था, आज सोंचा नाग बन जाऊं,
और सभी को अपने दंश में ले लूं, परन्तु मुझे ये शोभा नहीं देता. एक सुंदरी जो अब
मेरे ज़माने की किसी विचित्र वनपरी सी प्रतीत हो रही थी, ने मुझे बीच में न आने का
आदेश दिया, स्त्री से बात करने में सदा ही संकोच करता रहा हूँ मैं. फिर उस
अप्राकृतिक आदमी ने मुझे सहारा देकर वापस अपनी तरफ खींच लिया, मैं खिंच तो गया
परन्तु उस मध्य जो बिजली मेरे रोम-रोम में कौंधी उसका वर्णन मैं नहीं करना चाहता.
धीरे धीरे सब शांत हो गया, दल बन गये, कोई वहाँ चोंच लगाये बैठा है, कोई कहीं ओर. सुंदरियां
अपने वस्त्रों को कभी ठीक करती हैं, तो कभी जस की तस छोड़ देती हैं, इसे समाज
निर्लज्जता की संज्ञा क्यों ना दे?
मुझे
क्रोध आ रहा था, मैं अकेला छूट गया था. मेरे होंठ सूजे जा रहे थे, भभक रहे थे,
आँखों के आगे काले बादल से छा रहे थे. आँखें कभी रुआंसी हो जाती तो कभी शांतचित्त.
वो प्रौढ़ा इस उम्र में भी किसी कमसिन की तरह युवाओं के कलेजे को जला रही थी, मेरे
भी. मैं वहाँ से उठ भगा, किसी की प्रतीक्षा किये बिना, कलम से जा मिला, लिपट के रो
दिया. और लिखा:
कबीरा खड़ा बाज़ार में, देख कलम को राये,
कैसी पटकथा थी जिसमें मनुष्य अकेला
सोये.