शनिवार, 26 जुलाई 2014

फिल्म समीक्षा


एक अपेक्षित त्रासदी है "किक"
                         
                                                                                                            - अंकित झा 

फिल्म में समाज की आत्मा से खिलवाड़ किया गया है, सामाजिक चिंता की संज़ीदगी का मुखौल उड़ाया गया है. सलमान खान को अब एक किरदार की तरह नहीं, समाज में बसे किसी दैवीय शक्ति की तरह दिखाया जाने लगा है. फंतासी के नाम पर ऐसे खेल को यथाशीघ्र बंद कर देना चाहिए.  


सलमान खान क्या है? कौन है?कैसे है? इस प्रश्न का उत्तर सभी फिल्म जानकार सहित सिनेमा हॉल जाने वाले प्रबुद्ध वर्ग के लोग ढूंढ रहे हैं. एक फिल्म के अन्दर किसी भी अभिनेता के इतने विराट स्वरुप को कभी नहीं दर्शाया जाता था, जितना कि सलमान के किसी भी फिल्म में उनके किरदार को दिखाया जाने लगा है, एक युग में मिथुन चक्रवर्ती के किरदारों को भी कुछ ऐसे ही लिखा जाता था, परन्तु वो किरदार केवल अन्याय से लड़ने वाला हुआ करता था तथा इतनी कमजोर निर्देशन से उन फिल्मों को बनाया जाता था कि बस एक ग्रामीण अंचल में बसा उनका प्रशंसक वर्ग उन्हें देख के आनंद उठा सके. कई बार तो शर्ट के रंग का भी ध्यान नहीं रखा जाता था, एक ही सीन में 4 अलग रंगों का शर्ट पहन कर डिशुम डिशुम किया करते थे. यही कुछ हाल अमिताभ का था, यही हाल रजनीकांत का रहा और यही हाल आज कल सलमान खान का है. अमिताभ उस समय उभरे जब समाज राजनैतिक उथल पुथल तथा सामाजिक उत्थान के मध्य भारत का निम्न वर्ग उभरने की कोशिश कर रहा था, रजनीकांत ने किसी धर्म की तरह अपने प्रशंसक बनाये. परन्तु अब ऐसे समय में जब सामाजिक चिंतन अपने चरम पर है, कैसे फंतासी को सत्य के ऊपर रख दिया जाए.

ईद के मौके पर रिलीज़ हुई सलमान खान की फिल्म किक एक बेवजह सामाजिक चिंतन वाली फिल्म है. अपने पिछले फिल्म "जय हो" की ही तरह यहाँ भी सलमान सामाजिक सन्देश देते फिरते हैं. हालाँकि एक अच्छे इरादों से बनायीं गयी सलमाननुमा फिल्म की सांसें काफी जल्द रुकने को उतावली होती जा रही है. 'वांटेड' तथा 'दबंग' के पश्चात् सलमान के पुनर्रुत्थान के कयास लगाये जाने लगे. वांटेड रीमेक थी परन्तु सार्थक थी. दबंग अतुलनीय था, सलमान के करियर की सबसे उत्तम पेशकश. परन्तु आने वाले वर्षों में सलमान के उसी घिसे पिटे फोर्मुले को बार बार दिखाया जाने लगा. एक छोटी से कहानी, एक सुंदर सी लड़की, एक विलेन, बहुत सारे सामाजिक समस्याएं, तथा एक सलमान खान. पहले दृश्य से अंतिम दृश्य तक सलमान पुराण का विधिवत उच्चारण. 'किक' भी कोई अलग नहीं है. कहानी और चित्रण तो आपको कोई भी फिल्म समीक्षक बता देगा. यहाँ फिल्म के औचित्य की बात करते हैं. क्या किक की आवश्यकता थी? सलमान खान के लिए, हाँ. राजनैतिक चिंतन से जूझ रहे देश के युवा वर्ग के लिए, नहीं. कब तक देश में इस तरह के महामानववादी विचारों को पनपने दिया जाए, एक अभिनेता समाज में व्याप्त इतन बुराइयों से लड़ता है, देख के अच्छा लगता है, परन्तु उस भीड़ के बारे में सोंचिये जो इस कारनामे पर तालियाँ पीटती है, सीटियाँ मारती है. कहीं न कहीं ये भीड़ अपने समस्याओं का समाधान वहां खोजती है. फिल्म देखते समय रजनीकांत अभिनीत "शिवाजी: द बॉस" की याद आ गयी. एक समस्या से लड़ने के लिए बड़े धनवानों के पास जाना, ठुकरा दिया जाना, 1 रु का सिक्का ले के वापस आना, फिर लड़ने की सोंचना, सब कुछ उस जैसा ही है. हां बस समाज में बढती महंगाई की वजह से 1 रु अब 100 रु का रूप ले चुकी है. एक रोमांच की तलाश में भटकता आम आदमी कैसे अलग अलग कार्य करता है परन्तु सामाजिक कार्य में उसे वो रोमांच मिलता है. अच्छा सन्देश है. 40 की उम्र में सलमान खान ही भारतीय पुलिस में सीधे एसपी बन सकते हैं. और कोई नहीं. परन्तु देवी लाल का दुष्टों से बदला लेने हेतु डेविल बनना गले से नही उतरा. चूंकि देवीलाल ने सामाजिक कल्याण हेतु डकैती शुरू की वो भी बस उन्हीं के घर जिसने उसे ठुकराया था, तो अपना नाम डेविल क्यों रखा? खैर, सलमान खान के फिल्मों में इतना दिमाग लगाने से कुछ ख़ास प्राप्त नहीं होता है. सलमान एक सामाजिक अभिनेता है, अपनी फिल्म में अपने ट्रस्ट का प्रचार भी उन्होंने बाकायदा करवा ही लिया है.
Picture Courtesy: Indianexpress.com
फिल्म असहनीय पीड़ा देने वाली फिल्म है, कहानी नहीं, संवाद की कोई मर्यादा नहीं. सलमाननुमा फिल्मों में फूहड़ता कभी नहीं होती जोकि प्रशंसनीय है. इस फिल्म में सलमान खान ने अपने चित परिचित अंदाज़ में अभिनय किया है, वही जनता के लिए किया जाने वाला अभिनय. जहां उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता. फिल्म में 3 अन्य किरदार हैं, जिसमें रणदीप हुडा को काफी समय मिला, जिसे वो बिलकुल भुना नहीं पाए. उनके अभिनय में उनकी क्षमता तथा प्रतिभा निखरती हुई नज़र नहीं आती. जैकलिन सुंदर दिखती हैं, अच्छा डांस कर लेती हैं, चेहरे पर भावनाओं को आने से बखूबी रोकती हैं. बस संवाद बोलते समय बता देती हैं कि भारतीय नहीं हैं. परन्तु सलमान के अतिरिक्त जो किरदार छोटे से ही समय में सबसे ज्यादा उभरा वो है, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी. इस में कतई दो राय नहीं कि नवाज़ एक अद्वितीय अभिनेता हैं. सलमान की ही तरह. एक अलग धरा के. फिल्म में उनका किरदार बहुत छोटा है. लेकिन जितने देर भी वो रहे, परदे पर छाये रहे. सलमान के समय हलके भी पड़े, मुआ पटकथा जो न करे. लेकिन इस बन्दे में दम है. सवा दो घंटे लम्बी इस फिल्म में वही सब है जो हम पहले भी देख चुके हैं, कुछ दृश्य दिल को छूने वाले हैं, बाकी सब भुला दिए जाने वाले.

किक मेरे लिए एक अपेक्षित फिल्म थी. एक ऐसी फिल्म जिसके बारे में नुझे पहले से ज्ञात था कि यह एक त्रासदी होगी, अतः यह एक अपेक्षित त्रासदी की तरह थी मेरे लिए. दिल्ली व पोलैंड के बीच फंसी पटकथा, डॉन संस्कृतियों के बीच ही कहीं दम तोड़ देती है. फिल्म की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसमें कुछ भी वास्तविक नज़र ही नहीं आता. सब कुछ दिखावे की तरह है. नकली. पुरानी दिल्ली की गलियाँ कभी इतने निर्दयी तरीके से नही फिल्माए गये थे. छायांकन में पैनापन नहीं दिखा, तभी तो वॉरसॉ तथा दिल्ली की गलियों में कोई अंतर ही नहीं कर पा रहा था. फिल्म के अंतस में बसा सामाजिक चिंतन भी "अनझेलेबल" था. फिल्म में समाज की आत्मा से खिलवाड़ किया गया है, सामाजिक चिंता की संज़ीदगी का मुखौल उड़ाया गया है. सलमान खान को अब एक किरदार की तरह नहीं, समाज में बसे किसी दैवीय शक्ति की तरह दिखाया जाने लगा है. फंतासी के नाम पर ऐसे खेल को यथाशीघ्र बंद कर देना चाहिए. इससे पहले कि सलमान खान विष्णु के अगले अवतार के रूप में किसी फिल्म में आये, उन्हें अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए. उनका दर्शक वर्ग इस समय वर्ग संघर्ष से अनभिज्ञ है, उन्हें बताया जाए कि ये क्या होता है. जिस तरह अमिताभ के फिल्मों में वो सामाजिक समस्याओं से स्वयं पीड़ित होते थे. जिस तरह रजनीकांत समस्याओं के भंवर में फंसे होते थे. कुछ उसी तरह सलमान को भी करना चाहिए. उनकी अगली फिल्म "प्रेम रतन धन पायो" है जिसे सूरज बर्जात्या बना रहे हैं. उनसे तो ऐसे फिल्मों की उम्मीद हम नहीं कर सकते, परन्तु सलमान रुपी देवता किस तरह उस प्रसाद को बंटवाएगा देखना दिलचस्प होगा. किक को देखना ना देखना एक समान है, न कुछ नया है, न किसी पुराने की कद्र.        

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

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क्या नाम दूं इस कहानी को 
                                                                                                   
                                                                                        - अंकित झा

सावन एक उपहार है, स्त्री के विराट स्वरुप को. सावन का अर्थ है, प्रेम व श्रृंगार का महिना. सावन ही तो मास है, जब अप्सराएँ भी नृत्य कर्ट हुई भूमि पर उतर आती हैं, और धरती के कण कण में अपनी सुन्दरता की छाप छोड़ जाती हैं.

मौसम काफी अच्छा हो रहा है. सुबह से ही धूप बादलों संग आँखमिचौली कर रहा है, घटाएं रह रह कर अंगराई ले रही हैं, हवा के झोंके पायल की धून पर नृत्य कर रही हैं, समूचे वातावरण में जैसे कोई संगीत बज रहा हो. आज के ऐसे मौसम में किसी समस्या पर लिखने को दिल नहीं मान रहा है. सोंच रहा हूँ कुछ अच्छा अच्छा लिखा जाये. आज रूप-श्रृंगार की मादकता में लिप्त शायर बन जाने का मन कर रहा है, किसी पहलु में बैठकर सौन्दर्य का रसपान करने को दिल कर रहा है. चोरी-छुपे ही सही किसी के अंतर्मन में जा कर उसके विचारों से एक पुष्पमाला बनाने को दिल कर रहा है. बरसात और है क्या, किसी प्रेमी के उसकी प्रेमिका के हेतु सन्देश. यक्ष और यामिनी की अमरगाथा, मेघदूतम. बस कुछ दिन और, सावन आने को है. सावन धरती के उबटन श्रृंगार का समय, जब वसुधा के रूप को सींचा जाता है, हर ओर प्रेम ही महकता है, हवाओं की थिरकन से लेकर, वातावरण के यौवन तक तथा स्त्री के रूप से समां के मासूमियत के मधुपान का समय. सावन अर्थात स्त्री के रुपार्थ का चित्रण, स्त्री क्या है, स्वच्छंद वायु का एक झोंका, किसी नदी की अविरल जल प्रवाह, किसी कवि के कलम के स्वप्नलोक की शहज़ादी. जैसा कि लेखक लिखा करते हैं, स्त्री ईश्वर के पहले सुखनिद्रा में छोड़ी गयी निःश्वास है, बस उस श्वास एक शरीर मिल गया है. और शरीर  की बनावट भी ऐसी कि अपने कला पर ईश्वर इतराते न ठहरते हैं. किसी बोलने वाली गुडिया की तरह, किसी हंस सकने वाली पुष्प की तरह, किसी दौड़ सकने वाली सागर की तरह, स्नेह जता सकने वाले गगन की तरह, ममतामयी वृक्ष की तरह, जीने की वजह देने वाले सुधा की तरह, अपने यौवन से तड़पाने वाले हलाहल की तरह तथा आलिंगन कर सकने वाली संगीत की तरह. तसवुर में नित्य गाये जाने वाले ग़ज़ल की तरह स्त्री भी मानव मन की सर्वश्रेष्ठ कृति है. सावन एक उपहार है, स्त्री के विराट स्वरुप को. सावन का अर्थ है, प्रेम व श्रृंगार का महिना. सावन ही तो मास है, जब अप्सराएँ भी नृत्य कर्ट हुई भूमि पर उतर आती हैं, और धरती के कण कण में अपनी सुन्दरता की छाप छोड़ जाती हैं.

आज मन कर रहा है, प्रेम की कल्पना के गीत गाने को. अपने जीवन के कुछ मासूम कहानियों को शब्द देने का. दुनिया कहती है कि प्रेम का आनंद या तो उर्दू में है या अंग्रेज़ी में. अंग्रेज़ी में कल्पनाओं की कीमत होती है तो उर्दू में कल्पनाओं को शब्द देने की अद्भुत क्षमता. परन्तु परम सत्य तो ये है कि प्रेम का आनंद ख़ामोशी में है, जब कोई कुछ न कहे, सिर्फ आँखों और धडकनों पे छोड़ दे. भावनाओं के संचार को. वो समय कुछ ऐसा होता है जब सब कुछ थम सा जाये व प्रेमी की आँखें कहती रहे व प्रेमिका की आँखें सुनती रहें, बाकी समूचा वातावरण मौन रहे बस उनके ह्रदय के गति को सुनता रहे. वो गति जो कभी बढ़ रही है, कभी कम हो रही है, कभी उतावली हुए जा रही है, कभी बावली हुए जा रही है. समय जो रसपान कर रहा है, जो इतरा रहा है अपनी खुशकिस्मती पर. संसार जो कहीं विलुप्त हो गया है मंच से, सिर्फ  दो बचे हैं, नम आँखें, झुकी हुई पलकें, शांत लब, तथा धडकते दिल. दुनिया में ऐसा कोई नहीं जिसका दिल कभी किसी के लिए धड़का न हो. मेरे मित्र कहते हैं, जब आँखों में किसी के लिए प्रेम उमड़ आता है तो दोनों की आँखें एक दुसरे की जैसी हो जाती है. इस बात की सत्ययता के कोई प्रमाण मेरे पास नहीं है. लेकिन इतना अवश्य है कि प्रेमिका की एक नज़र से मौसम गुलज़ार हो जाया करते हैं. अब मैं कौन होता हूँ प्रेम की परिभाषा देने वाला, गरीबी और भ्रष्टाचार पे तो लम्बा संभाषण दे सकते हैं परन्तु प्रेम पे संज्ञान. असंभव. खैर, प्रयास करने में क्या बुराई है. अब मेरे किस्सागोई मस्तिष्क में भूओचल आ रहा है, चलिए अपने जीवन के कुछ मासूम घटनाओं को शब्द देने का प्रयास करता हूँ, हो सकता है आप इसे प्रेम समझें परन्तु मैं तो इसे घटनाएँ ही मानता हूँ. 

वर्षों पहले की बात है, उस समय मेरा घर मध्यप्रदेश के छोटे से शहर हरदा के श्यामानगर इलाके में हुआ करता था. था, की कहानी विस्तार से कभी बताऊंगा. खैर, सवेरे-सवेरे मेरी सवारी स्कूल की तरफ जाती थी. स्कूल भी हद दूर, घर से 3-4 किलोमीटर दूर. और सड़क ऐसी की कूल्हे टूट जाया करते थे मैं रोड आते आते. मैं रोड से पहले ही उसका घर आता था, सुबह के समय जब मैं स्कूल जाया करता था, वो अपने घर के बाहर पानी भर रही होती थी, एक सीधी सादी घरेलु लड़की. जिसके ज़िन्दगी से अपने कुछ सवाल होंगे, जिसके अपने कुछ अरमान होंगे, कुछ सपनें जिसे वो पूरा करना चाहती होगी. स्कूल जाते समय रोज़ उससे आँखें मिल जाया करती थी, सिर्फ आँखें मिलती, कभी बात नहीं हुई उससे. पर वो कहते हैं न, भावनाएं आँखों के माध्यम से संचारित होती हैं, आँखों से ही मैं उसे नमस्त कहा करता. वो भी उसका जवाब आँखों से ही दे दिया करती. करीब 5-6 महीनों तक ये नमस्ते का दौर चला होगा. बस ये बात नमस्ते की ही नहीं थी, ये कुछ और भी था, जिस भी दिन बिल्ली रास्ता काट देती थी, मुझे आते देख मुझसे पहले मेरे लिए रास्ता साफ़ कर देती. अब इसे क्या कहेंगे मुझे पता नहीं. मुझसे काफी बड़ी थी, हर लिहाज़ से. फिर वो घर भी छोड़ना पड़ा और वो रास्ते भी. अब वही स्कूल था, पर उतनी दूरी नहीं थी. कम दूरी में किसी के नमस्ते की प्रतीक्षा करती मेरी आँखें थक चुकी थी. तब समझ में आया कि  कवि गलत नहीं कहा करते हैं, 'इश्क का मज़ा तो गफ़लत में है, यार की बाँहों में जो बीते वो शाम कैसी'.

 कहानी उस समय की है जब इटारसी स्टेशन पर मैं घंटों ट्रेन की प्रतीक्षा में बैठा रहता.  ट्रेन घंटों देरी से आती थी, कुछ करने को नहीं होता था, किताबें ही पढ़ा करता, और किताबें भी ऐसी कि ऊब के अलावा और कुछ नहीं देती, उसी दौर में सचिन गर्ग और रविंदर सिंह की गप्पों वाली प्रेम कहानी की किताबें पढ़ी थीं, साहित्य के नाम पर शर्म. ऐसे ही एक दिन, रविंदर सिंह की 'कैन लव हैपन ट्वाइस' पढ़ रहा था, बेल्जियम में दो भारतीयों की प्रेम कहानी चल रही थी, ट्रुथ एंड डेयर का खेल. तभी अचानक एक आवाज़ मेरी बायीं ओर से आई, इसकी फर्स्ट इन्सटॉलमेंट कितनी इमोशनल है ना? मेरी तो आंसू आ गयी थी. मुझे नहीं लगा था कि आधुनिक 150 रु. वाले लेखक भी पाठकों के आंसू निकाल सकते हैं. मैं उस आवाज़ की तरफ मुड़ा, अपनी आँखों पर एक पल आश्चर्य हुआ कि आखिर मैं देख क्या रहा हूँ. खैर अपनी आँखों को समझा कर मैंने कहा- हो सकता है, लेकिन ऐसे लिटरेचर पढ़कर मेरे आँसू तो निकलते हैं. ह्म्म्म, मतलब आप बड़े स्ट्रिक्ट रीडर हो? उससे ऐसे ही बात चलती रही, बातों बातों में परिचय हो गया, झाँसी जाना था उसे. मौसी के यहाँ इटारसी आई थी, इसी साल ग्वालियर के आईआईआईटीएम् से ग्रेजुएशन किया है. अब मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि हमारी बात क्यों हो रही है? पर वो होती रही, ट्रेन के आने तक, दोनों की ट्रेन भी एक ही थी. पर सीट अलग अलग थी. उस ट्रेन से कई सुखद यादें जुडी हैं. उन यादों को पुनः जीना तो चाहता तो हूँ, पर जब से घर बदला है नॉएडा में, इतनी दूर सराय रोहिल्ला जाने का दिल नहीं करता. बस वो याद बहुत आती है कभी कभी, उसका वर्णन कभी फुर्सत में करूँगा. काफी मजेदार बातें की थी उसने. एक और मासूम रिश्ता, जो बनने से पूर्व ही खंडित हो गया. वो शायर बड़े गुमान से कहा करते हैं न, 'इश्क तो वो मंजिल है जहां हसरतें अधूरी रह जाएँ, जहाँ जीत मिल जाए उसे तो खेल कहते हैं'.

कई और कहानियां हैं अंतस में. घटनाएँ जिसने लेखक बनने पर विवश कर दिया, वो पात्र जो मुझे ऐसे मिले जैसे कथा स्वतः ही मुझसे मिलने को आयी हो. हर सफ़र में मुझे कई ऐसे पात्र मिले हैं जिनका मेरे जीवन पर प्रभाव है, फिर वो मेट्रो का अनाद्मायी सफ़र हो या फिर बस का ऊबा देने वाला सफ़र या ट्रेन का अंतहीन सफ़र. मेरी आँखें सदैव एक कहानी ढूँढती है, जीवन के इस आपाधापी में सच्चे प्रेम को ढूँढती है. वो प्रेम जो किसी बरसात में छाते के नीचे होता है, कॉलेज से बस स्टॉप जाने के दरम्याँ, तेज़ बारिश में तेज़ चलने वाली सांसें. उन सांसों में होने वाली बात जो सिर्फ सच कहा करती हैं. इस प्रेम में मैंने दर्द को शामिल नहीं किया, मोहब्बत में कोई मंजिल नहीं हुआ करती है. यहाँ केवल रास्तें हैं, जहां कुछ भी निश्चित नहीं है. तभी तो इसे प्रेम कहते हैं, जहां विवशता भी स्वप्न का रूप धारण कर लेती है. सावन आगमन पर प्रेम की पराकाष्ठ को मेरा प्रणाम, आशा है मेरी कलम कई अफ़साने और रचेगी, परन्तु प्रेम में सामाजिक समस्याओं का समावेश, प्रेम को अमर कर देता है. और जो अमर हो जाए वही प्रेम होता है.

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

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अनुभूतिवश: संस्मरण के संग संग 

सचिन..... सचिन.....
            
                              - अंकित झा 

क्या आपने कभी सपना देखा है, उस आदमी ने मुझसे अचानक ही पूछ लिया. अपने किताब में खोया मैं असहज भाव से उसकी ओर देखने लगा. इस समय मेरे हाथ में मुंबई के सबसे बड़े डॉन के बनने की कहानी की किताब थी, उसे बंद किया. उसने फिर पूछा, क्यों आपने कभी सपना देखा है? कोई ऐसा सपना जिसे पूरा करने की ललक आज तक जिंदा हो? मैं सोंचने लगा, आखिर ये मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहा है? आखिर मेरे शहर से भोपाल की दूरी ही कितनी है? जो एक ट्रेन में मुझसे ये इतनी रहस्मयी प्रश्न का उत्तर जानना चाह रहा है. मैंने सिर हिला दिया, हाँ, देखा है. सब देखते हैं, पर पूरा कौन करता है? उसने मुस्कुराते हुए कहा, आपने नहीं किया तो क्या, कोई भी नहीं करता है. मैं थोड़ा चिढ़ा, माना कि मेरा सीट कन्फर्म नहीं है, और इसका है, ये अर्थ तो नहीं कि खुलेआम मेरे इच्छाशक्ति पर ये प्रश्न खड़ा कर दे. मैंने अपने भाव को सँभालते हुए, उससे पुछा, अच्छा कौन पूरे करता है अपने सपनों को? वो मुस्कुराया. उसके मुस्कुराने में एक तरह का अभिमान था, ऐसा अभिमान जो मुझे चिढ़ा रहा था. उसकी वेश-भूषा देख के कोई कह दे कि इस आदमी के सपने कभी पूरे भी हुए हों. छोटे बाल, मखमली शर्ट, लाल रंग की उसपर चित्रकारी, चेहरे पर इतने दाग कि लगता ही नहीं कि इसने कभी अपना चेहरा साफ़ किया भी होगा और उसपर से बिना किसी परिवार के वो सफ़र कर रहा था, मेरे ट्रेन में बैठते ही बताया था कि मानिकपुर जा रहा है. उसने मुस्कुराते हुए कहा, सचिन का नाम तो जानते ही होंगे, वो खिलाड़ी जिसे लोग क्रिकेट का ईश्वर कहते हैं. मैंने कटाक्ष की हंसी हँसते हुए कहा कि कौन नहीं जानता उन्हें? उसने कहा- 'फिर ठीक है, इ बात बहुत पुरानी नहीं है, एक बार मुंबई के स्टेडियम में सचिन जब आउट हुए तो सचिन को सब बुरा भला कहे थे, अपने ही दर्शकों से ऐसे बर्ताव की आशा न थी उन्हें, काफी दुखी हो गये थे. उसी दौरान हमें एक सपना आया कि सचिन ने संन्यास ले लिया है, वो मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में पकिस्तान के विरुद्ध आखिरी बार बल्लेबाजी कर रहे हैं, और हम स्टेडियम में बैठकर सचिन...... सचिन...... चिल्ला रहे हैं'. अब मुझे उसकी बातें कुछ रोचक लग रही थीं, सच बोल रहा है, या नहीं पता नहीं परन्तु देखें तो ऐसा क्या हुआ है इसके साथ. उसने फिर बोलना शुरू किया- 'जब हमारी आँख खुली तो हम अपने पत्नी को ये सब बताएं, उसने तो उलाहना कस दिया, 'हाँ, पेट में अन्न जाता नहीं और मैदान में बैठकर सचिन को खेलते हुए देख रहे हो. उस दिन मैंने तय किया कि सचिन जब भी अपना आखिरी मैच खेलेगा, हम सपरिवार वो मैच देखेंगे, मैदान में बैठकर. हम भी भीड़ के साथ सचिन...... सचिन..... चिल्लायेंगे. पूरे सात वर्ष प्रतीक्षा की हमनें उस दिन के लिए, इस बीच हमारा परिवार भी बड़ा हो गया, परन्तु जो ठान ली तो ठान ली. कम खायेंगे, पैसे बचाएंगे, जितना हो सके कम खर्च करेंगे लेकिन सचिन का आखिरी मैच देखेंगे'. मैं एक पल को सोंचने लगा की ये क्या चल रहा था यहाँ, सच था या सपना? वेस्टइंडीज के साथ था उनका आखिरी मैच, मुंबई में. वही मैदान जहां पर सात वर्ष पहले सचिन के साथ दर्शकों ने बुरा बर्ताव किया था, सब कुछ भूल जाया जाता है. इतने दिन कष्ट में जी कर हमनें पूरे 9000 रुपये इक्कट्ठे कर लिए थे, मुझे लगा कि ये तो काफी ज्यादा हैं, अब तो पक्के में आखिरी मैच देख पाएंगे. टिकटों की बिक्री जिस दिन शुरू हुई उस दिन से ही मैं लाइन में जा के लग जाया करता, पर इतनी भीड़ थी कि हिम्मत ही नहीं होती थी, आधी रात को उठकर जाते तो भी लाइन में पीछे ही लग के संतोष करना पड़ता. आखिर मैदान पर ईश्वर के आखिरी दिव्य स्वरुप का दर्शन कौन नहीं करना चाहेगा? धक्का मुक्की होने लगी, कोई कहता टिकट मिलना बंद हो गया है, तो कोई कहता की टिकट के दाम बढ़ा दिए गये हैं, टेस्ट मैच में तो कम कीमत होती है, टिकट की. एक आदमी मिला, मुझे परेशान देख के बोला, टिकट चाहिए? मैंने बिना कुछ सोंचे बोल दिया, और क्या यहाँ लंगर की लाइन में लगे हैं. उसने पूछा कितने? मैंने जवाब दिया 4. उसने कहा 2500 का एक है. मैंने कहा नहीं नहीं ऊपर के स्टैंड वाला चाहिए, कम कीमत वाला, धुप सह लेंगे, तूफ़ान सह लेंगे, पर मैच देखना है. उसने कहा वहीँ का 2500 का है, बाकी तो दसों हज़ार में बिक रहा है. 2500 का एक टिकट मतलब 10 हज़ार के 4. दिल टूट गया, एक पल लगा कि अब नहीं देख पाएंगे. मैंने आग्रह किया 9 हज़ार में 4 दे दोगे क्या? कुछ देर मना करने के बाद उसने हामी भर दी. 

फिर क्या था, मेरा पूरा परिवार वानखेड़े स्टेडियम में बैठकर सचिन के उनके पुण्य भूमि पर दिव्य स्वरुप के दर्शन करने आ गयें. पूरे मैदान में सचिन..... सचिन..... का शोर मन में उत्साह भर रहा था, आज का ये पल कभी समाप्त न हो, बस यही गुजारिश थी. मेरी दोनों बेटियाँ मुझसे भी ज्यादा उत्साहित होकर चिल्ला रही थीं, मेरी पत्नी सचिन की बैटिंग आते ही आँखें बंद कर लेती, हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगतीं. सचिन...... सचिन....... आज भी मेरे कान में एक जोश भरता है, मेरे सपने की नींव वहीँ से डली थी, आज कोई भी सपना हो एक सचिन का नाम लेके कार्य शुरू कर देता हूँ, आशा रहती है कि पूरा हो जाएगा.' उसकी आँखें भर आयीं थी, मेरी भी, मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे, ऐसा लग रहा था मानों किसी देव के अवतार को देख लिया हो. ना जाने कब घाटी समाप्त हो गयी. हबीबगंज आ गया था. मैं ट्रेन से उतर गया. पर कान में अभी भी सचिन..... सचिन...... ही गूँज रहा था. सपना,,, पूर्णता,,,, सचिन,,,, दिव्य स्वरुप,,,, नींव.