सोमवार, 31 मार्च 2014

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चुनाव विशेष 

व्यक्ति विशेष तथा आम से आदमी का संघर्ष 
                                         - अंकित झा 

अमन बिक रहा है, चमन बिक रहा है,
गरीबों के नसीब का कफ़न बिक रहा है.
कोई शर्म नहीं है कहने में कि,
इन रहनीतिक दलालों के हाथों,
ये हमारा वतन बिक रहा है.”
-    एक आम राजनीतिक कार्यकर्त्ता.

12 वर्ष बीत गये उस त्रासदी को, लपट आज तक बरकरार है, इतिहास कितना महत्वपूर्ण हिस्सा है हमारी ज़िन्दगी का अब पता चल रहा है. चुनावी सरगर्मियां अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है, हर और तीखे बयान, आरोप-प्रत्यारोप, अपनी शेखी, बड़ी बड़ी डींगे, तो वही घिसे पिटे चुनावी वादे. यही यही दिख रहे हैं, आपके अपने उम्मीदवार, आपके बीच से, आपकी सेवा के लिए, आपके समर्थन हेतु उपलब्ध है, बस मतदान तो कीजिये और छोड़ दीजिये देश अगले कुछ समय के लिए इनके हवाले. आप अगले 5 साल इन्हें अपने मत की गरिमा का मुखौल उड़ाते देखिये. कभी संसद में, कभी प्रेस वार्ता में, कभी अलग अलग सभाओं में तो कभी टीवी साक्षात्कार में. कहीं प्रयोग है, कहीं कुर्सी का सुयोग है, कहीं कुर्सी जाने का वियोग है, कहीं अपने शक्ति का विलक्षण उपयोग है. हर ओर एक अजीब सा दावानल है, धधकती आशाएं और आकांक्षाएं, नित्य अंकुरित होते स्वप्न और धराशायी होती साख.
यह चुनाव एक चुनाव मात्र नहीं है, यह एक आइना है, अपनी औकात दिखाने हेतु, अपना चेहरा दिखने हेतु, आगे का मार्ग प्रशस्त करने हेतु, ग़ालिब का शेर है, “तू न देख कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे, तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे”, अबकी चुनावी मौसम में सटीक बैठता है. जनता के आगे अपना रंग देख लें नेता जि, आपकी यही औकात है, ये बिगड़ गयी तो कुर्सी के पाए तोड़ देगी. उदहारण देख लीजिये कभी जिस सीट से रिकॉर्ड जीत हासिल कि थी, उसी सीट से हार का सामना करना पीडीए था केन्द्रीय मंत्री रहे राम विलास जी पासवान को. ये जनता है, कुछ भी कर सकती है, कमोबेश अपने मन में हो, और अपने मन का करना चाहती हो. जनता मुद्दा नहीं देखती, यदि ऐसा होता तो ६५ साल से, 4 मुद्दे देश के चुनाव तय नहीं करते, बिजली, पानी, सड़क और आरक्षण. इस बार रोटी, भ्रष्टाचार से मुक्ति, रोजगार, कुछ नये सपने और बहुत कुछ नया नया आ गया है. सच तो ये है कि इस बार नया पुराना समागम है. हाँ, ये चुनाव अलग है, ऐतिहासिक है, अलौकिक है, ऐसा चुनाव पहले कभी नहीं हुआ. इस चुनाव में मुद्दा नहीं है, मॉडल है, मोदी है, कोई मोदी के समर्थन में है तो कोई उसके विरुद्ध. परन्तु हर जगह मोदी है, हर हर मोदी घर घर मोदी. कोई अराजक कहे, कोई बडबोला परन्तु सुनने को सब तैयार हैं. ये चुनाव आम चुनाव नहीं है, ये मोदी चुनाव है, आम चुनाव में आम बात नहीं होती, यहाँ तो समूचा माहौल ही आम है, मोदी कि आम बातें तथा मोदी के आम समर्थक. मोदी पर लगने वाले आम आरोप, आम से प्रत्यंच तथा आम से प्रलोभन. हर चीज़ आम है, सिर्फ एक व्यक्ति को छोड़कर. वो विशेष हैं, मोदी. ये चुनाव मोदी विशेष हैं. अतः ये विशेष चुनाव है.  
मानव इतिहास इस बात कि साक्षी रही है कि जब जब ऐसा कुछ हुआ है, किस तरह परिवर्तन होते होते रह गया है, आगे क्या होने वाला है कोई नहीं जानता, सिर्फ इतना पता है, कुछ अलग होगा, इतनी उम्मीदें एक साथ गलत नहीं हो सकती, नहीं कतई नहीं. दिल्ली में क्या हुआ? क्या हुआ? उम्मीदें टूटी न? कैसे धराशायी हुई इतनी उम्मीदें, इतने उम्मीद के साथ नवाज़ा था सत्ता, एक आम से आदमी को. कितने सपने दिखाए थे, इन आँखों ने अच्छे समाज पर विश्वास करना प्रारंभ कर दिया था फिर कैसे अगले डेढ़ महीने हमारे उम्मीदों से खिलवाड़ किया गया. वसुंधरा के कुछ लड़कों ने वसुधा को लूटने की कोशिश तो नहीं की परन्तु हमारी उम्मीद लूट के ले गये. अब विश्वास करने का मन नहीं करता किसी पे, सब बहकावा ही लगता है, सब खोखले वादें लगते हैं. ये सबका कहना है. परन्तु जो सब कहें आवश्यक नहीं कि वो सच ही हो, राजनीती और शतरंज में यही तो समानता है कि पहले प्यादों को मरने का मौका दिया जाता है, बड़े नेता के विरुद्ध छोटा उम्मीदवार. ताकि नेता भी न हारे, और हम पर ये इलज़ाम भी न आये कि हमने कोशिश नहीं की. परन्तु ये पार्टी अलग है, बड़े नेता के विरुद्ध बड़ा नेता उतरना जानती है, अर्थात राजनीती से इत्तेफाक नहीं रखती. जीत कि मोह नहीं, हार की चेष्टा नहीं. कजरी दिल्ली से, गाजियाबाद से, हिसार से, राजस्थान से, किसी भी बड़े शहर से लड़ सकते हैं, जीतने की उम्मीद कर सकते हैं, वाराणसी ही क्यों? ताकि उन्माद कम हो, विशेष आदमी का प्रचार भी विशेष हो. मुघालते में न रहे, जैसे शीला दीक्षित रह गयी थी. वो दौर थोडा अलग था, झाड़ू तब नई थी, अब थोड़ी पुराणी है, और सफाई करते करते थोड़ी गन्दी भी हो गयी है, और कुछ मैले होने का इल्ज़ाम भी लग गया है. फिर भी राजनीती में दाग़ अच्छे हैं. राहुल गाँधी के विरुद्ध कविवर का खड़ा होना. राजनीती में दर पर जीत ही, असली जीत है. शत्रुघ्न सिन्हा के सामने शेखर सुमन की क्या बिसात, फिर भी १५००० से भी कम वोट से हारे, क्योंकि घबराये नहीं. ऐसा ही होता है और ऐसा ही होना चाहिए. देश को जितनी आवश्यकता मोदी की है, उतनी ही आम से आदमी की भी. आलोचक कुछ भी कहे, दिल पे हाथ रख के नहीं कहेंगे कि मोदी पूरे साफ़ हैं और आम से आदमी पूरे गंदे. यही साख है, अपने चरित्र पर दाग़ लग जाए परन्तु आत्मा पर दाग़ न लगने पाए. उम्मीद है, देश आम से आदमी को मौका देगा, सरकार बनाने की न सही परन्तु संसद में अपनी बात रखने की, सत्ता का मोह तो वैसे भी इन्हें नहीं है, होता तो दिल्ली की कुर्स क्यों जाने देते, लोकसभा में प्रचार के लिए. नहीं, ऐसा सोंचते हैं तो राजनीतिक समझ बढाइये. कजरी कतई गलत नहीं हैं ये कहने में कि एक सरपंच या एक पार्षद भी ये हिम्मत कर सकता है कि वो हाथ आये सत्ता को इस तरह छोड़ दे. मुख्यमंत्री तो बहुत बड़ी बात है, प्रधानमंत्री को देखिये, इतिहास बनाने और मिसाल बनने के कई मौके गवांये. १०० दिन में महंगाई कम तथा अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने का वादा, विफल हुए, कोयले का दाग़ लगा, डटे रहे, विफल हुए, भ्रष्टाचार के आरोप सरकार पर लगते रहे, चुप रहे, विफल हुए. एक बार भी अगर दिल पे हाथ रख के, इस्तीफा देने की बात भी कर देते मिसाल बन जाते कि वो दुखी थे, सरकार पर लगने वाले दागों से, परन्तु विफल रहे. ऐसी दुखद विदाई की कल्पना किसने की होगी, इतने होनहार व्यक्ति की.  

अब की बार जिसे भी वोट दें परन्तु वोट अवश्य दें. कोई भी जीते, लोकतंत्र की जीत आवश्यक है. कब तक वोट की अहमियत ख़त्म होती रहेगी, इस बार स्वयाम्भुओं को दिखा ही दें कि वोट की कीमत क्या होती है. और इससे खिलवाड़ की कीमत क्या होती है, अपने सपनों को कवाब और साड़ी पे बिकने मत दीजिएगा, यदि ऐसा हुआ तो कोई नेता विशेष या आम सा आदमी देश नहीं बचा पायेगा. तीसरे को तो उल्लेखित ही नहीं करना चाहुंगा, इतिहास उन्हें सजा देगी, 10 वर्षों तक किये गये पापों की सजा. फिर जब समय आएगा तब उन्हें भी मौका दिया जायेगा. इस बार तो इन दोनों में ही विकल्प ढूंढा जाए. कुछ और भी हैं जो अपनी आदर्शवादिता के स्वयं ही शत्रु बन बैठे हैं, कुछ समाजवादी, कुछ साम्यवादी, तो कुछ सिर्फ अवसरवादी. देश इनके साथ साथ अपने ओर भी देख रहा है, अब परिवर्तन आएगा शायद.  

रविवार, 30 मार्च 2014

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असहिष्णु अस्तित्व के अवतारी
-          अंकित झा

पूज्यनीय कौन है? जो कभी पूजे जाने की चाह न रखता हो. आदरणीय कौन है? जिसके लिए आदर स्वतः ही निकल जाये, कभी यूँ भी होता है कि आदरणीय बनाने की श्रृंखला सी लग जाती है, आदर उसे मिले जिसे इसकी इच्छा व अपेक्षा न हो. बीते दिनों अहमदाबाद जाना हुआ, (वृत्तान्त अलग से उपस्थित है) साबरमती आश्रम में गाँधी संग्रहालय के बाहर लगे गाँधी के प्रतिमा पर तरह तरह से तसवीरें खिंचवाने की होड़ लग गयी. किसे फुर्सत थी कि जरा ध्यान देकर एक बार को ये सोंच ले कि क्या कर रहे थे. मेरी एक काल्पनिक मित्र है जो दिल्ली के ही नामी कॉलेज में अध्ययनरत है, उसके कॉलेज की ही कुछ लड़कियां हमारे हत्थे चढ़ी थी, एक ने तो हमारे कैमरे पर इतना जोरदार प्रहार किया था कि टूटते टूटते बचा. कोई गाँधी के सर पे हाथ फेर रहा है, कोई कंधे पे हाथ डाले बैठा है, कोई चश्मा पहना रहा है, कोई माला खींच रहा है, तो कोई गोद में बैठने को आतुर है. यह नए समाज की नयी नस्ल है, ये गाँधी विरोधी हैं या नही ज्ञात नहीं परन्तु ये नयी अंकुरण ज्ञान के शून्य हैं ये तय है. 
इसी बात पर मेरी उस मित्र से बात हुई, उसने कहा हाँ लड़कियों ने गलत किया परन्तु गाँधी इतने भी कोई सम्मान के हक़दार नहीं थे. सम्मान, सहिष्णुता व समझदारी एक बात नहीं होती. परन्तु न मानने का अर्थ अपमान करना तो नहीं होता. हां मैं कोई गाँधी समर्थक नहीं हूँ, परन्तु इस नयी पिशी के गाँधी-विरोधी होते जाने के क्या कारण हैं. ये पीढ़ी उनके विचारों से लेकर उनके कृत्य तक हर विषय पर उनके विरोध में खड़ी है. ये पीढ़ी गाँधी से बड़ा आदर्श उनकी हत्या करने वाले हिन्दू राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे को मानने लगी है. यह घृणा है, या फिर सिर्फ समर्थकों कि कमी या फिर समय की करवट मात्र? भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस तथा बाबा साहब आंबेडकर समेत सरदार पटेल को आज की पीढ़ी नायक के रूप में देखती है तो वहीँ गाँधी, नेहरु को दरकिनार करने का एक मौका नहीं गंवाती. क्या आज की पीढ़ी के लिए पकिस्तान का बंटना गलत था या फिर नेहरु का प्रधानमंत्री बनना, या फिर गाँधी का पकिस्तान को 55 करोड़ देने के पक्ष में भूख हड़ताल पर बैठने के फैसले से नाराज़ है? नहीं ऐसा कुछ नहीं लगता, कुछ तो खिलाफत आन्दोलन के समर्थन को गलत मानते हैं, तो कुछ उनके असहयोग आन्दोलन को वापस लेने के फैसले से आहात होते हैं आज तक. कुछ उनके मुस्लिमों के पक्षधर होने के कारण उनसे नाराज़ होते हैं तो कुछ उनके इरविन पैक्ट पर हस्ताक्षर करने के फैसले पर. सिद्धांत व सत्य में एक अंतर निहित है, ये अंतर ये है कि सिद्धांत को सिद्धि की आवश्यकता होती है तथा सत्य को स्वीकृति की. अतः सिद्धि व स्वीकृति के मध्य गाँधी की दार्शनिकता अटक के रह जाती है, गाँधी की दार्शनिकता सिद्धांत है, जिसे सिद्ध करने की आवश्यकता है, ये सत्य नहीं हैं जैसा कि अब तक दर्शाया जाता रहा है, यहाँ पे इतिहास विफल हो जाता है. इतिहास आज किसी के लाठी, धोती और यिनक की ग़ुलाम बन बैठी है, गाँधी परम सत्य कतई नहीं हैं. ऐसी कतई व्यसनें हैं जो गाँधी को गाँधी अर्थात परम इतिहास बनने से रोकती है, कई कारण विश्व को ज्ञात हैं तो कतई अब तक कहीं छुपी हुई या कहें छुपाई हुई. उस मित्र से मेरी बहस का अधर ये था कि उसका कहना था गाँधी को लेकर देश अपनी आँखें मूंदें हुए है, गाँधी को आवश्यकता से अधिक सम्मान प्राप्त हो चुका है, जैसा कि नहीं होना चाहिए था. कहा जाता है कि गाँधी अनुभूति पर विश्वास नहीं करते थे, वो अनुभव में विश्वास करते थे, इस अनुभव के लिए वो प्रयोग किया करते थे. किवदंतियों के अनुसार ब्रम्हचर्य में स्खलन के बचाव हेतु वो कई बार पर स्त्रियों के साथ हमबिस्तर होते थें, यहाँ तक कहा जाता है कि उनकी पौत्री मनु को भी कई बार उनके साथ एक ही बिस्तर पर, नग्न अवस्था में सोते देखा गया था. गाँधी त्याग में विश्वास रखते थे, वे स्वाबलंबी थे, कस्तूरबा को उन्होंने कुलीन रिवाज़ छोड़कर स्वयं पखाना साफ़ करने के लिए प्रेरित किया था. परन्तु एक सत्य यह भी है कि वो कई बार आश्रम की स्त्रियों के सामने नग्न घुमा व स्नान किया करते थे, स्त्रियों के कंधे थाम कर चला करते थे. महाराष्ट्र से आये उनके एक शिष्य के चिट्ठी से ये खुलासा होता है. साथ ही साथ गाँधी वध के दोषी नाथू राम गोडसे द्वारा दिए गये अदालत को कारण जिसे कि एक पुस्तक के रूप में संकलित किया गया, (जो कई वर्षों तक प्रतिबंधित भी रहा था) के अनुसार भी गाँधी को मारने के 6 प्रयास हुए थे, खिलाफत के बाद से उनके संहार तक. हालाँकि गोडसे के कुछ कारण उनके मंशा को कमजोर कर देते हैं परन्तु अधिकांश कारण चीख चीख कर यह कहते हैं कि गाँधी परम सत्य नहीं थे, ग़ुलाम देश में उन्हें इतनी आजादी कहाँ से प्राप्त हो गयी थी कि वो जो चाहें प्रयोग कर सकते थे. सबसे बड़ा दोष है आश्रम से नित्य आने वाली करुण रुदन की दयनीय आवाज़. गाँधी आश्रम स्वच्छ नही था, ये दूषित था, यहाँ सिद्धांत के साथ साथ दुर्व्यसन भी पलता था, इसे जो नाम दे दिया जाये वो सही. गाँधी अपने अहिंसा के कारण प्रसिद्द थे, आश्रम में किसी भी तरह का हिंसा वर्जित था, यहाँ तक कि यौन सम्बन्ध बनाने पर भी रोक थी, क्योंकि ये भी एक तरह का हिंसा है परन्तु बा के साथ हुए हिंसा का क्या? गाँधी के प्रयोग के दौरान होने वाले हिंसा का क्या? गाँधी ने भगत सिंह के बम काण्ड को दमनकारी तथा पागलपन कहा था, उसी भगत सिंह ने 63 दिवस ताज हक़ के लिए भूख हड़ताल किया था तथा अंग्रेजी हुकूमत कि जडें काँप गयी थी, २३ वर्षीय भगत सिंह के समाजवादी सिद्धांत 70 वर्षीय गाँधी के सिद्धांतो को आसानी से टक्कर देते थे, गाँधी सकारात्मक सोंच वाले, आस्तिक तथा कौमी एकता को मानने वाले थे, उनपर अध्यात्म की छाप उनकी माता पुतली बाई के समय से ही था. आश्रम में सुबह शाम भजन गूंजा करते थे, सारे विषों-विपदाओं को काटने वाले भजन. “वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पेड परे जाने रे”, परन्तु गाँधी से यूँ भगत के माता-पिता व देश के युवाओं का दर्द क्यों नहीं देखा गया, यह रहस्य है. पर्दा उठाना नामुमकिन सा है. सिर्फ गाँधी, उस फांसी को रोक सकते थे. परन्तु ऐसा नहीं हुआ. देश के सपूत हंसते हंसते फांसी को चूम गये, गाँधी मौन रहे. सदा की तरह उनमे बौखलाहट नहीं दिखी. गीता में लिखा है कि जिस समय सारे तर्क विफल हो जाते हैं, उस समय शस्त्र उठाना ही पड़ता है, परन्तु गाँधी के शस्त्र ना उठाने की जिद्द देश को कई वर्ष पीछे ले गयी. न देश तब तैयार था और न वास्तविक आजादी के समय. और देश को ऐसे प्रधानमंत्री का तौफा दिया कि देश के मुकूट को ही विश्व समस्या बना कर रख दिया.  

कारण कईं हैं, परन्तु गाँधी कौन है ये कोई नहीं जान पाया. और न जान पायेगा य इतिहास उसे जानने नहीं देगा. क्योंकि कलम सिर्फ उनकी जय बोलता है जिनकी स्याही किसी के सजदे झुक गया होता है और इतिहास सिर्फ उनकी गवाही देता है जो अपने नाम को बेचना जानते हो. कभी फिर बहस छेड़ेंगे, अनशन पर बैठकर गाँधी के लिए न सही तो गाँधी के विचारों ही के लिए सही पर एक बार को आँखें जरुर मूँद लेंगे और कहेंगे “आज फिर से किसी माँ की कोख में हलचल सी मची है, शायद ये नए क्रांति के अंकुरण का समय है.”     

सोमवार, 10 मार्च 2014

Movie Review

आधुनिकता व यथार्थ के रस से बनी है 'क्वीन' 
                                          - अंकित झा 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर दो फिल्में रिलीज़ हुईं, दोनों ही महिला केन्द्रित तथा दोनों ही छोटी बजट की बड़ी अपेक्षाओं वाली फिल्में. आज के दौर में जब हर ओर स्त्री विमर्श का बोलबाला है, उस समय ऐसे मौके पर फिल्म के रिलीज़ होने का अर्थ है, मुनाफा. मैं भी किसी एक फिल्म को देखना चाहता था, एक ओर समकालीन शीर्ष अभिनेत्री रह चुकी दो महाभिनेत्रियाँ(माधुरी दीक्षित तथा जूही चावला) थी तो दूसरी ओर नित्य संघर्षरत नई त्रासदी साम्राज्ञी बनने जा रही अभिनेत्री (कंगना रानौत). एक ओर शीर्ष कलाकारों से अलंकृत फूहड़ संवादों वाली यथार्थ के करीब वाली काल्पनिक कहानी थी तो दूसरी ओर निम्न ही सही परन्तु अध्ययनरत कलाकार के परिश्रम का परिणाम. एक ओर वो फिल्म थी जिसके मुख्य कलाकार की पिछली फिल्म मेरे सर्वकालीन पसंदीदा फिल्मों में शुमार है तो दूसरी ओर के फिल्म के कलाकार की पिछली फिल्म को मैं जल्द से जल्द भूल जाना चाहता हूँ, रज्जो तथा कृष3. फिर ऐसा क्या था जो मुझे गुलाब गैंग की जगह क्वीन देखने को जी चाहा? उत्तर तय है, फिल्म का ट्रेलर, संगीत तथा निर्माण से जुड़े लोग; अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवाने, अन्वित्ता दत्त, अमित त्रिवेदी तथा विकास बहल जैसे लोगों का नाम जिस फिल्म से जुड़ा हो उसे यूँ ही तो नहीं जाने देना चाहिए. उस पर से कंगना रानौत की विलक्षण प्रतिभा को दर्शाता मनमोहक ट्रेलर.
अमित त्रिवेदी का संगीत तथा लभ जुनेजा की आवाज से अलंकृत गीत से फिल्म की शुरुआत तथा गीत के ठीक बाद आने वाले मोड़ और कहानी का नित्य बढ़ते रहना. फिल्म एक अद्भुत यात्रा है, मनुष्य का स्वयं में विश्वास तथा स्वयं के साथ सहवास का. साथ ही साथ यह एक कटाक्ष है, हमारे समाज पर जहां आज भी कहीं न कहीं मायेके की गुडिया बनाकर ही बेटियों को खुश कर दिया जाता है, जो कि फिल्म के एक गीत की पंक्तियाँ ज़ाहिर करती हैं, “बाबुल के अंगना में, अमवा के तले, मैहर की दुलारी नाजों से पले”. फिल्म की मुख्य पात्र ‘रानी’(कंगना) एक छोटे से कॉलेज से गृह विज्ञान पढ़ रही है, कॉलेज किस क्षेत्र में है यह भी वो ठीक ठीक नहीं जानती, पूछने पर वह पूरा पता बता देती है, परन्तु जगह नहीं बता पाती. किसी के इज़हार-ए-इश्क का उत्तर देना भी नहीं जानती, i love you का उत्तर वो धन्यवाद कह कर देती है. विदेश जाने पर अपना पता वो दिल्ली नहीं राजौरी बताती है. राजौरी गार्डन से उठकर पेरिस व अम्स्तेर्द्रेम का सफ़र मनमोहक व संघर्षपूर्ण है. एक लड़की जिसे शादी के २ दिन पहले लड़का केहता है, वो उससे शादी नहीं कर सकता, कारण नहीं बताता. कारण साफ़ है कि लड़की उसके ओहदे से मेल नहीं खाती. समाज भी तो दुष्ट है, भोलेपन को बेवकूफी समझ लेता है. विजय(राजकुमार) के संग अपने सपने सजा चुकी रानी, ये सुनते ही बिखर सी जाती है. परन्तु बहुत जल्द वो खुद को संभालती है व फिर शुरू होती है एक अद्भुत यात्रा. रानी परिवार से अनुमति लेकर निकल जाती है, अपने सपनों के शहर पेरिस के लिए, अपने हनीमून पर, अकेले.
अजनबी शहर, नए लोग, अनजान भाषा, अलग संस्कृति तथा चिंता व कुंठा. रानी परेशान हो जाती है. एक-एक सपनों को वो अपने सामने टूटते हुए देखती है. परन्तु परदेस में उसे किसी अपने की तलाश समाप्त होती है, जब उसकी मुलाकात होती है, विजय लक्ष्मी(लिसा) से. लक्ष्मी के साथ रानी की मित्रता उसे नए राह पर ले जाती है, जहां वो अपने लज्जा से मुक्त होती है, खुलने को दिल करता है, तो hindi गानों पर थिरकने को विवश हो जाती है, और फिर पूरे क्लब को नचा देती है. कभी शराब पीकर अपने दिल की व्यथा लोगों से कहती है. फिर उसका ये कहना कि हमारे यहाँ तो लड़कियों को डकार करना अलाव ही नहीं है, वहाँ पर तो बहुत कुछ अलाव नहीं है. यहाँ पर तो सब कुछ कर सकती हैं, झकझोरता है. और स्त्रिविमार्षकों के दिल में चिंगारी लगता है. कभी घर से अकेले भी नहीं निकलने वाली परदेस में 3 अजनबी विदेशी लड़कों के साथ एक ही कमरे में रहती है. एक जापान से है, एक रूस से तो एक फ्रांस से. चारों अम्स्तेर्द्रेम की गलियों को नापते हैं व अपने जिंदगी को खुशियों से भर लेना चाहते हैं. सभी की अपनी व्यथाएं हैं जो कहानी को बल प्रदान करता है, जापानी लड़के के हंसी के पीछे छुपी है, २०१२ में आये सुनामी में अपने मात-पिता को खोने का दर्द, तो ओलेक्जंदर की ख़ामोशी व गुमनाम कलाकारी के पीछे किसी क्रांति के निमंत्रण की चेष्टा है. सभी एक दुसरे की ख़ुशी में हँसते हैं, सभी छिपकली से डरते हैं, सभी एक दुसरे के लिए रोते हैं, भावनाओं की इस उतार चढाव के बीच हम अपने आप को उनके बीच पाते है. फिल्म को इतनी सुन्दरता से नियंत्रित किया गया है कि यह कागिन भी बनावटी नहीं लगती. गोलगप्पा खा कर मुंह जलना हो या मछली के आँख निकलने पर डरना और इफेल टावर से घबरा कर भागना, हर चीज यथार्थ के करीब ही लगती है. मानवीय मुस्कान के पीछे छुपे दर्द को ज़ाहिर करती दो लड़कियां जो रानी की जिंदगी में स्वतः ही आती हैं व उसके जिंदगी का हिस्सा बन जाती हैं. लक्ष्मी का खुलापन रानी को अटपटा अवश्य लगता है परन्तु वो उसे स्वीकार करती है, वहीँ हॉलैंड में रुखसार का एक सेक्सवर्कर के रूप में कार्य करना उसे पसंद नहीं हैं परन्तु उससे भी अपनापन जता जाती है. ये सब किरदार हमें सोंचने पर मजबूर करती हैं तो कुछ दृश्य हमें खिलखिलाने के लिए विवश कर देते हैं.
यह एक लाजवाब फिल्म है, भावनाओं के उतार चढाव को काफी कुशलता से निर्देशक ने सजाया है, जिससे ये फिल्म याद रखने लायक बन जाती है, साथ साथ चलने वाला अमित त्रिवेदी के संगीत का जादू. नज़र व कान दोनों ही हटाने को जी नहीं करता. कहानी, संगीत व निर्देशन से भी अधिक यदि यह फिल्म याद रखी जायेगी तो वो है, कंगना रानौत के शानदार अभिनय के लिए. कंगना ने रानी को परदे पर जीवंत कर दिया. कुछ कुछ दृश्यों में उनके चेहरे के भाव को इतनी सुन्दरता से बदलते देखा कि लगा मनो यह फिल्म कोई और नहीं कर सकता. चोर से भिड़ने का दृश्य हो या hindi गाने पर आँखों में आंसू आने के बावजूद झूम उठने को तैयार होना, इतनी ख़ूबसूरत अदायगी है कि शब्द नहीं है बयां कर पाने को. लिसा व राजकुमार भी अपने चरित्र को बखूबी निभाते हैं तथा विदेशी कलाकार भी अपने चरित्र के साथ इन्साफ करते हैं.
यह एक और इंग्लिश विन्ग्लिश है, शायद उससे अधिक सार्थक तथा नवीन. कुछ आधुनिकता से भरी व कुछ युवापन से जुडी. यहाँ अंतर्वस्त्र से खेल है, तो वहीँ विजयलक्ष्मी पर रानी के पिता व भाई की नज़र. कुछ दृश्य गुदगुदाते हैं, कुछ भावुक कर देते हैं, कुछ आँखें चुराने को भी मजबूर करते हैं खासकर पेरिस में लक्ष्मी व रानी के बीच के कुछ दृश्य. परन्तु यह सब कतई अश्लील नहीं लगता, फिल्म है फिल्म के प्रभाव में यह बहते चले जाते हैं. ऐसी और भी फिल्में बनेंगी और बनी भी है परन्तु इसे कतई भी किसी के साथ तुलना न किया जाये वरना इसकी मार्मिकता मर जाएगी और इसका दोष भी समाज पर ही आयेगा.
क्वीन आपके दिलों पे राज कर लेगी, देखने जरुर जाएँ.  

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

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इंसानियत के कंकाल तले
              
                                 -    अंकित झा

ज़िन्दगी महान बनने के कईं मौके देती है परन्तु मिसाल बनने के लिए सिर्फ एक. और ये मौका छीनना पड़ता है. मनुष्य अब केवल महान बनने की होड़ में लग गया है, मिसाल बनने की जिद्द अब कहीं पीछे छूट गयी है, जिसके पार जाना असंभव सा लगता है. खेल, मानव ज़िन्दगु का हिस्सा है. खेल परिश्रम से लेकर प्रतिज्ञा तथा मनोरथ से मुखरता सब कुछ सिखाता है. दिमागी कसरत हो या शारीरिक चपलता खेल के कुछ अभिन्न अंग हैं, साथ ही साथ खेल से जुड़ा होता है, सहनशीलता. सबसे महत्वपूर्ण व सबसे नाजुक. इसका दामन छूटने पर खिलाडी जीवन का दमन भी संभव है. परन्तु कईं बार ऐसे वाकये हो जाया करते हैं जब खेल भावना पर किस्सागोई भावना प्रबल हो जाती हैं व कब मनुष्य अपने कंकाल को पूजने लगता है पता ही नहीं चलता. खेल से देश की समृद्धि भले ही न जुडी हो परन्तु साख जुडी होती है, दुसरे देश के सामने घुटने टेकने का अर्थ क्या उस देश के समक्ष सर्वस्व समर्पण होता है, समझ में नहीं आता. खेल में नतीजे आते हैं, नतीजे या तो सुखद हो सकते हैं या दुखद परन्तु विध्वंशक तो कतई नहीं होते. फिर ऐसा क्या घट गया कि मेरठ के एक निजी विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों के जश्न पर इतनी बड़ी साहसिक पटकथा लिख दी गयी व नया वाद-विवाद शुरू हो गया. यह कतई नयी बात नहीं है कि भारत में क्रिकेट मैच का अर्थ क्या है व जब मुकाबला भारत व पाकिस्तान के मध्य हो तो उसका अर्थ क्या होता है. क्या ये शत्रुता खेल व खेल भावना से ऊपर हो जाती है. कैसी शत्रुता? ये कोई शत्रुता तो नही कि हम उनके मसाले खाते हैं, हमारे हर गोर चेहरे पर मुल्तानी मिटटी का प्रभाव है तो हर पाकिस्तानी चिकन मसाला में भारतीय प्याज. ये कैसा बैर है? ये सिर्फ वहम है कोई बैर नहीं. परन्तु कैसे खेल आर ये बैर भारी पड़ा इसका ताज़ा उदाहरण है, 2 मार्च को संपन्न हुए एशिया कप के भारत-पाकिस्तान मुकाबले के बाद का. मैच का अंतिम ओवर, जीत और हार के मध्य खड़े शाहिद अफरीदी. 2 लगातार छक्के और जीत भारत की झोली से फिसलकर पकिस्तान के आँचल में जा लिपटा. 27 वर्ष पुराना वाकया सबके ज़ेहन में उतर आया जब मियांदाद ने चेतन शर्मा को अंतिम गेंद पर छक्का जड़ा था. इस जीत के साथ ही भारत ख़िताब के दौर में पिछड़ गया. परन्तु एक ऐसी घटना घटी कि भारत मनुष्यता की कसौटी पर भी फिसल गया.
भारत की हार के पश्चात जहां देश भर में निराशा थी वहीँ कुछ कश्मीरी छात्र कथित तौर पर जश्न मनाने लगे. ये जश्न किस लिए मनाया गया, इसे जानने की चेष्टा किये बगैर ही सजा सुना दी गयी. यह जश्न भारत की हार पर था या पकिस्तान की जीत पर या फिर किसी तीसरे कारण से. प्रतिद्वंदिता में कोई न कोई पिछड़ता ही है, यह जग जाहिर है, इस पर जश्न कसा और मातम कैसी. परन्तु जब उल्लास उन्माद का रूप धारण कर ले, तो हालात बिगड़ना तय है. हुआ भी ऐसा ही. कुछ 65 कश्मीरी छात्रों को निलंबित कर दिया गया. हालात इतने बिगड़ गये कि यह राष्ट्री मुद्दा बन गया व अगले ही दिन कश्मीर के विधान सभा सत्र में इस पर विरोध प्रदर्शन भी हुए. हालात और बिगड़े तथा उन छात्रों के विरुद्ध एफ़आईआर दर्ज करवाई गयी तथा उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की गुहार की गयी है. यह मुद्दा कहाँ से कहाँ बढ़ता जा रहा है, इसे देख कर नयी बहस छिड़ रही है, एक गुट उनके समर्थन में आ खड़ा हुआ है तो कुछ लोग विश्वविद्यालय के कदम को सही बता रहे हैं.

मैं इस पर मौन रहना चाहता हूँ, कुछ भी कहना नहीं चाहता हूँ, इस नुद्दे पर कुछ कहने का अर्थ है कि या तो मैं समर्थन में हूँ या फिर विरोध में. ना ही मैं पाकिस्तान के विरोध में हूँ और न ही इस कृत्य के समर्थन में. कुछ भी कहने के लिए बाध्य नहीं होना चाहता हु. बस इतना पूछना चाहता हूँ कि पाकिस्तान से ही बैर क्यों, श्रीलंका और चीन हमारे लिए बड़ी समस्याएं पैदा करते रहे हैं. पाकिस्तान से ये सौतेला व्यवहार क्यों? अचरज की बात है कि इतने बड़े देश की ऊँगली एक ओर जा के थम जाती है. आफरीदी के छक्को का कोई मोल नहीं रह जाता, यदि भारतीय गेंदबाज को मारे गये हो परन्तु कैलिस का बिदाई शतक प्रशंसनीय लगता है, कारण समझ में नहीं आता. जब भारतीय खिलाडी ही फिक्सिंग में पकडे गये हो तो पाकिस्तानी खिलाडियों से परहेज क्यों? यह हमें रोग लग गया है नफरत और भेदभाव का. यह कुछ और नही बल्कि राष्ट्रिय भेदभाव है. सभी लफ्ज़ खामोश हो जाते हैं जब बात पाकिस्तान पर हो, ऐसा क्यों है. किसी अमन की आशा कि वकालत नही करता हूँ परन्तु ये भेदभाव पसंद नहीं है. ये बैर नहीं मनोरोग है, जो की लाइलाज़ है. कितनी ही मासूम जिंदगियां बेखता होने के बावजूद इस मनोरोग का शिकार हुई हैं. सरबजीत याद नहीं, इसी मनोरोग की भेंट चढ़ गया था. सत्य से सभी अनभिग्य हैं, व सत्य को मानव अपने कंकाल में छुपा के रखने लगा है. नग्न आंखों से इस सत्य को देख पाना असंभव है, इंसानियत का कंकाल ढूंढने की आवश्यकता है जिसके नीचे ये सत्य छिपा हुआ है कि गुनाह क्या था उन छात्रों का जो वो पढाई छोड़कर अपने घर लौट गये हैं व अपने सुरक्षा की भीख मांग रहे हैं.