बुधवार, 6 मार्च 2013

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अपराजिता! तुम उत्थान कर गयी। 
- अंकित झा 
वह अपराजिता! अपनी शहादत को वोट बैंक बनाकर ही सही, बाकी बची अपनी कौम का कल्याण अवश्य करवा जाओगी। तुम्हे भले ही किसीने देखा न हो परन्तु अब हर नारी अपने अन्दर एक अपराजिता को ढूँढती है, द्वारका में दुर्लभ फ्लैट के लिए नहीं अपितु अपनी आक्रोश की अगन को साकार करने हेतु। जब भी तुझे इस तरह कल्याणकारी योजनाओं का शीर्षक बनते देखता हूँ, मन मेरा यह प्रश्न अवश्य करता है- " ज़िन्दगी के साथ न सही ज़िन्दगी के बाद ही?" उन दुष्कर्मियों का सुध लेने को तो पुलिस व् प्रशासन दोनों बैठे हैं परन्तु तेरे पीछे छूट गयी तेरी प्रजाति को तो इस देश का नया वोट बैंक करार कर दिया गया। तेरी मौत ये तो अच्छा कर गयी कि अब तेरे नाम से नया फण्ड चलेगा। जिसमे प्रशासन अच्छे से प्रायश्चित कर लेगी। अरे! किस अपराध का? अपराध के लिए प्रायश्चित कैसा? यहाँ प्रशासन उत्सव मनाएगा, अपराजिता उत्सव। महिला सशक्तिकरण हेतु फण्ड, नया खास महाधनी। और क्या चाहिए?
अफ़सोस ये तो घाव को गरम सरिये से कुरेदना हुआ, अभी तो बहुत कुछ चहिये। इस देश को नया आन्दोलन नहीं चाहिए और न ही आरक्षण रूपी कोई नया धमाका चाहिए। बस इतना कर दो कि औरत को औरत समझना शुरू कर दिया जाये। क्या समाज में सामान चबूतरे का कोई मतलब ही नही। न उन्हें देवी समझो और न ही अबला। न काली समझो न नाजुक कलि। समझो तो सिर्फ मनुष्य। कैसी दया, कोई पीडिता है क्या? यह फटकार सिर्फ मर्दों को नही वरन महिलाओं को भी है कि ' सहानुभूति लेना किसी को ख़राब नहीं लगता।' परन्तु इसकी आदत हमें टुकडो पर जीने की लत लगा देती है और फिर फण्ड, बैंक और कानून जैसी वैशाखियां। कहते हैं कि समाज में मर्दों का प्रभुत्व है, ऐसा कतई नहीं है। आदमी अपनी सामान्य स्थिति में है वो तो नारी नित्य संवेदनशील व पीड़ित वर्ग होती जा रही है, और यह प्रभुत्व को हवा देता है।
अपराजिता ने औरत को औरत होने का एहसास दिलाया है। एक औरत क्या कर सकती है, इस हेतु मुझे महिला सशक्तिकरण पर निबन्ध लिखने की आवश्यकता नहीं है। अपराजिता हेतु मुझे आजीवन खेद रहेगा। बलिदान के पश्चात शहादत को सम्मानित करना कहाँ से उचित है? जिस धरती पर धरा से लेकर ज़रा तक सभी पूज्यनीय हैं वहां अपराजिता की मृत्यु क्यूँ? यह मृत्यु नहीं शहादत थी। एक विलक्षण शक्ति को जन्म दे गयी ये शहादत। एक आक्रोश को जिसने राष्ट्र को झकझोर दिया, अब इसका अंजाम जो निकले परन्तु आग़ाज़ तो सही दिशा में हुआ है, दिल्ली विश्वविद्यालय प्रांगण के पेड़ों पर निर्भया के बैच चिपके हुए हैं, ये सुखद अंत की शुरुआत है। और ये वाक्य एक आक्रोश के शुरुआत का अंत।।।।। 

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