शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

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~इस आक्रोश की हद कहाँ तक ~
       -- अंकित झा 
"अब तो उस उंगली पर भी शर्म आती है, जो इन अहेरियों पर उठें, यह चोट मनुष्यता पर है। हर माँ की कोख पर है, जिसने ऐसे बेटें पैदा किये, हर बाप की कमाई पर है, जिसने ऐसे बेटों को पाला और हर बहन की राखी पर है जिसने अपनी रक्षा हेतु ऐसे भाइयों की कलाईयों को राखी से सजाया।"

उस खिड़की से फिर वेदना की करुणामयी आवाज़ आयी है, इस बार और शर्मिंदगी और प्रताड़ना को संग लिए। फिर इस देश की मनुष्यता ताड़-ताड़ हुई है, पुनः एक चीख़, मर्दानिगी के कान फाड़ रही है। इस बार ये सब राजधानी में दरिंदगी, इंसानियत पर भारी पड़ गयी। ऐसी घटनाओं को भाषित कर अपने कलम का अपमान क्यों करूँ? राजधानी में ये कोई बात नहीं है। और न ही उस दिन की ये इकलौती घटना होगी। यहाँ प्रश्न तवज्जो की नहीं है परन्तु प्रश्न हैवानियत की है। ये उन घटनाओं में से है जब किसी मासूम की अस्मिता को ही रुसवा नहीं किया गया वरन समाज के तमाशबीनॉ तथा इसके कुलीन वर्ग की चोली खिसकाई है। इन हर घटनाओं से ये अहेरी और ताकतवर होते जाते हैं, इनके हाथ जिस्म के और नजदीक आ जाते हैं। हर एक घटना देश की बेटियों पर लांछन मढ्ती और बेटों पर उलाहना। ये पितृ सत्ता का ही दुष्परिणाम है कि जहाँ पति परमेश्वर है और पत्नी का स्थान पति के चरणों में। इतने पवित्र क्यों होते हैं ये स्थान? यह आज की बात नहीं है, अनादी काल से चला आ रहा है। भूत को वर्तमान से बेहतर मानता हूँ, यदि भ्रूण हत्या रोककर, ऐसी हत्याएं करना है तो भ्रूण हत्या ही होने दो। जीने दो इन दरिंदों को ही। स्थापित करने दो इन्हें ही अपना अधिपत्य, पर वो जमेगा नहीं। खिलौना बनाकर रख छोड़ा है स्त्रीजाति को, दिल बहलाने का साधन भर बना दिया है। आँखें नम हो जाती है जब कुलीन घर के बेटों को पहले कोठों पर मज़े लुटते देखता था और अब इन्टरनेट पर। प्रकृति के नियमों को अपने पैरों से कुचल-कुचल कर कहीं मिट्टी में मिला दिया और वो मिट्टी तो कब की क्षरित हो गयी होगी। यदि औरत बहती नदी है, जिसकी सीमाएं तय है, उद्गम भी और समाप्ति भी तो फिर मर्दों को रियायत क्यों? क्यों मर्दों को रत्नाकर बना छोड़ा है, जिसके लहरों की कोई सीमा तय नहीं है। जब चाहे उतनी लम्बी लहर मार ले। इन नियमों को भुगत रही है, नयी पीढ़ी। जहां का एक हिस्सा वहसी बन चुका है और एक हिस्सा निर्बल। 
इस घटना ने समूची प्रणाली को झकझोर के रख दिया है। घटना की निंदा सडक से संसद व संसद से समुदायों तक हो रही है। संसद में सभापति, नेता प्रतिपक्ष, पूर्व महिला आयोग की अध्यक्षा, महिला सांसदों इत्यादि सभी ने पुरजोर निंदा की। लगभग 3 दिन से दिल्ली की युवा पीढ़ी सड़क पर उतर आई है, इण्डिया गेट से लेकर मुख्यमंत्री निवास तक हर जगह हाथों में बैनर लिए, चेहरे पर आक्रोश लिए व होठों पर मांग लिए अपना वजूद तलाश रहे थे। एक से बढ़कर एक बैनर, एक से बढ़कर एक हल। कोई कहे शोषण की सजा सिर्फ फांसी है, किसी ने कहा इसका एक ही हल है लड़कों को नामर्द कर दो, किसी ने बीच चौराहे पर मुंह काला करने की बात की तो किसी ने 'इंसाफ का तराजू' का हल बताया, कोई 'मृत्यु तक पीटते रहने' की बात कर रहा था।!!!!!
क्या इन सजाओं से उस पीडिता को कुछ मिलेगा? बिलकुल नहीं सिवाय सुकून के और समाज को एक सन्देश के। आजीवन सजा तो उस लड़की को मिला है जो फिर कभी अच्छे से खा नहीं पायेगी, उन दरिंदों को फंसी भी उसे ठीक कर सकता। फिर क्या सजा मिले? कोई सजा क्या बिगाड़ लेगी उनका और क्या रहत दे देगी उस मासूम को। 
अब तो उस उंगली पर भी शर्म आती है, जो इन अहेरियों पर उठें, यह चोट मनुष्यता पर है। हर माँ की कोख पर है, जिसने ऐसे बेटें पैदा किये, हर बाप की कमाई पर है, जिसने ऐसे बेटों को पाला और हर बहन की राखी पर है जिसने अपनी रक्षा हेतु ऐसे भाइयों की कलाईयों को राखी से सजाया। ये चोट नहीं गाली है, बद्दुआ है। इन राखियों के रेशम की भी वो परवाह नहीं करते, काश एक दिन राखियाँ कलाई पर नहीं बल्कि गले पर बांधी जाये और हर बहन ये भूल कर बैठे। रक्षाबंधन वही होगा। हर दूसरे लड़की की रक्षा हो जाएगी उस कृत्य से। फिर कोई लड़की समाज मेइओन अकेले निकलने से नहीं डरेगी। और राखी की लाश भी रख ली जाएगी।
" ये हो नहीं सकता, मेरा ये आलेख जितनी लडकियां पढ़ेंगी उन सबसे मैं माफ़ी मांगना चाहूँगा, क्योंकि किसी एक के गलती की सजा पूरे कौम को भुगतना पड़ता है। धधकते अंगारों को आँखों में लिए व ज्वाला को दिल में छुपाये आपके सामने नत्मस्तक --
अंकित झा।

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

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सोमवार, 10 दिसंबर 2012

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 Perils of Carols                                                                                               

-Ankit jha
Oh! This defame. If I utter is an abuse, what of my fame? Every day it happens, Now Mr. bond is also on sky fall  & My Bella is breaking Dawn
“Make some noise for desi boyz,1,2,3,4.” Isn’t Pritam smarter enough in welsh , Humbug ! Anu malik was more. What about Lahiri  & Reshamiya ? Full of wedgeds. What do they do ? other than composing chart busters, mmm try to sing , although horrible. Indeed, This world is full of the copycats. What the cat is doing here? How are your rhymes created that you chant on, play on, abuse on, props on, disgrace on, gibes on, repudiate on, rejuvenate on and much more. Its fulcrum sits in tectonic mind, just say A.R. Rehman quoted in a t.v. show that he dreamt  of ‘Khwaja mere Khwaja’, one of his best composition. The opus of a new music comes out of the care of imagination & social scanning .Sneha khandwalkar, the emerging Mozart of desi music attributes that she makes music out of drops of tea in cup to the neighs & bursts in cloud. Her music can touch the sole & even ripple toe to swell of breats. The crucial most part of any commercial Indian movie is delicately arranged, conceived & chanted initially. Then it thrives to the stage of instrumentalisation. Many maestros altogether exalts the new born music (many a time scrabbled from somewhere). This crude is then processed to the lyricist. Based on the various ‘Ragas, Shrutis & Chhands’, a masterpiece is penned down. With the synergy of social happenings, literature, situation, story & stars a full lyrics is written down. Here the prudential of a lyricist is tested. Then it’s the onus of these two to weave a beautiful voice from it, which needs real mozart. Many a times they have to flounce but not now, every time, there are some available. Take, Retake & then various takes finally the final take. Beautiful! After the long agony, a beautiful & new melody is created.                                                                                                                                                              There are various perils of carols. Like, Fan following. Oh! This defames. If any music composer composes some super melody once, it is expected a lot from him. One can not bring out the best every time but trials should always be admired. Albeit debilitation is everywhere, here it must not be scourged. ‘if I utter, this is abuse, then what of my defame’ said once a well known artist on singing many numbers in an year. Every industry faces a downfall but this faces an imaginative & creative downfall. Otherwise Mr. Bond is on a Sky fall & My Bella is breaking dawn again

रविवार, 4 नवंबर 2012

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Reshuffle: Safal or Asafal???
-         Ankit Jha
Promotion, Demotion, Motivation, Innovation, Emotion & Electoral Persuasion; Is this the ministry that shall lead the scion to the ‘Sinhasan’?
“Sonia Rajeev Gandhi, the so called Godmother, being the chief of alliance that rule at the center, with the big vessel beside her & in front of her stands the various leaders from their respective states with a bowl in their begging palms,” this is what the cartoon inscripted in one of the NCERT book of Political Science I read few years back. Though scenario has been changed, neither the distributors have changed nor the over-obliged Banal MPs. Only strengths & motives have been upgraded. Let’s move to ’10, Janpath’, the sacristy of Congress, From where the fate of government & nation is decided simultaneously. Oct 28, the first chilly Sunday of year, which was heated by the news of reshuffle in the ministries as 6 old goons already have resigned from various utmost important portfolios with the likes of External Affairs, Information & Broadcasting etc. around an hour after noon clutched the process commenced & profundity of all the news for the day kicked off.
 I shall not fill the pages by taking the names of new & changed ministers as you all must have gone through that. The biggest & least probable, but the most bizarre was the post of ‘External Affairs’ that was gifted to the brutally alleged of now a days ‘Salman Khurshid’  Although, no one doubt his calibers for the post but this proved that congress really doesn’t mind the allegation led by some streetmarked leaders. The distribution was really very incroyable as interfarance of Rahul Gandhi also lessen  the avg. ministry age by just few month  If 64 years can br said the young council of minister then hard to think of the old one. Govt. has emphasized on the coming elections of two states & later in 5 states in coming year Gujarat,Himachal Pradesh, Rajasthan , chhatisgarh , Delhi, Madhya Pradesh are the states which election is to take place within  an year  this reshuffle was nothing new from  that congress used to do, the perils of losing governance doesn’t allow them to take revolutionary steps. Also, they have to prepare a flowery highway for the prodigy of Gandhi family who is chairless but still rank no.2 in the party. Promotion, Demotion, Motivation, Innovation, Emotion, &  Electrol  Persuasion ; Is this the ministry that shall lead Scion to the Sinhasan?                                                                                                             
                                             Dr. Singh, who almost wishes to retire in the next gen election & wants to inject some young blood in the party shouts for the bristling steps to be considered in coming years. What effect does this rejig poss in the country, if ministers are moralized enough to be demoralized….

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

आलेख


                                 गरजते और बरसते बादलों के बीच
क्या इस देश में शासन इतनी चरमरा गयी है की हमें बदलाव के लिए क्रांति की आवश्यकता है?
     यूँ तो रोशनी के लिए एक दिया ही काफी है,
     यदि किले में आग लगा दें तो क्या कमी?
अब इस देश को और क्या-क्या देखना है? उत्तेजना को कभी उत्सुकता का चोला नहीं पहनाना चाहिए. इस देश को संगम ही खाएगी. उत्तेजना, उत्सुकता, उत्सव और उदारता का संगम. इस देश का इतिहास बताता है कि यहाँ कभी क्रांति सार्थक नहीं रहा और ना ही सफल. इसके संस्कार कहें या मक्कारी की क्रांति को कुचल ही दिया जाता है.                                                                                                                                                                                   पिछले दो वर्षों में जो इस देश में आंदोलनो का अध्याय प्रारंभ हुआ है, उसका ध्येय क्या है? समाज परिवर्तन? आंदोलन ने बिल्कुल सही नब्ज़ पकड़ा था, इस देश की सबसे भीषण महामारी- भ्रष्टाचार. वहाँ से लेकर 4 अगस्त 2012 तक का सफर काफी सुहाना रहा है. करीब डेढ़ साल तक समाज परिवर्तन की बात करने वेल  दल ने जिस तरह सत्ता परिवर्तन का रुख किया, कतई अचंभित नहीं करता. नीति और न्याय, किसी भी शासन के दो स्तंभ होते हैं, दल को अपने प्रयास के बदले दोनो ही नहीं मिले. फिर छ्न्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की वो लघुकथा याद आती है जिसमे वो कहते हैं की धर्मा एक घड़ी की तरह है, जैसे घड़ी ठीक करने के लिए घडिसाज़ होना जरूरी है, वैसे ही धर्म की खामियाँ धर्माधिकारी ही ठीक कार सकते हैं. यदि नलो की गंदगी साफ करनी है तो नाले में उतरना ही पड़ेगा, अच्च्हा है की ये दल पीछे नहीं हटा, हमारे कुलीन वर्ग की तरह कि शहर की गंदगी साफ करने में हाथ क्यूँ गंदे करें? गंदगी और प्रशासन को गली देने में क्या बुराई है?
क्या राजनीति में प्रवेश करना सच में इतना वीभत्स कार्य है? तब तो इसमे प्रवेश करना ही चाहिए. प्रश्न ये है की वो दल तो सत्ता परिवर्तन चाहती है हम क्या चाहते हैं? मूल्यांकन आवश्यक है, क्या घोटालों की वजह से हम सरकार से दुखी हैं, या बढ़ती महंगाई की वजह से. सरकार का तर्क ये है कि यदि समूचे शहर में बारिश हो रही हो तो एक घर अच्हूटा नहीं रह सकता. भले ही वो घर वॉटरप्रूफ क्यों ना हो? इस देश में कुछ तो अजन्म विरोधी रहें हैं, सत्या पर भी शक करना उनकी आदत है. क्या सच में विश्वा में फैली आर्थिक शोक की वजह से भारतिया अर्थव्यवस्था तंगी हुई है? क्यों प्रधानमंत्री महोदय मिश्रित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भी आप इस खस्ताहाल को ठीक नहीं कार पा रहें, किसकी गलती है?
नेया जाने क्यूँ, आज कल जब भी आँखें बंद करके, पिछले कुछ समय में हुए घटनाओं को याद करता हू तो चिल्लाती भीड़, गरगरती सरकार और मुस्कुराते मुद्दे ही नज़र आते हैं. आए दीं नये घोटाले सामने आते हैं और मुद्दा बाज़ार गरमा जाता है, भारतिया राजनीति की ऐसी  क्या स्थिति हो गयी है, कभी गरजने-बरसने वाले मेघ अब बस आते हैं, घटा पर छा कार निकल जाते हैं. ये मेघ भी अब डरते हैं, कहीं बरसने से किसी घोटाले के उपर जमी धूल ना धूल जाए  और एक और नया घोटाला सामने आ जाए. तभी तो इस मानसून में मॅढिया प्रदेश की घाटियों में बरसात हुई या राजस्थान के रेगिस्तान में. दिल्ली में बरसने का नाम नहीं लिया क्यूँकि उसे दर था पता नहीं क्या हो जाए? पूरी मानसून में आरोप ही बरसते रहे और नेता ही गरजते रहे.
         इन गरजते और बरसते बादलों के बीच आम आदमी ट्रस्ट होता रहा. इन घोटालों से हमें क्या घ्ता? बहुत.. गिन कार देखिए.

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

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Of Mango Man & Mota Maall!!!
-         Ankit Jha
I nicely remember year 2009, when a Poll was conducted & which said that the most used & spoken word for that year was ‘Twitter’. If the same survey is conducted again in our country for this very year, what would be the most frequent or mode term; mmmmm……. Let’s think….. OK. We must revise, lets barge into the abattoir of dictions. From January to October… the list of words are- Lokpal, Anna, Tiger, Sedition, Corruption, Kingfisher, Scam & above all or say a word which means common & most commonly used by Indians i.e. ‘Aam Admi’. This year, when everything was used launched in new versions like Rishi Kapoor & Sanjay Dutt in Agneepath, Akhilesh Yadav as C.M. & Pranab Da as President etc. so the term ‘Aam Aadmi’ was well recycled as the term ‘Mango Man’. Say that Mango Cultivation was less this year. Another term that was introduced was ‘Mota Maal’ introduced by the Leader of Opposition in the lower house of Indian Parliament. Its really so capricious of our parliament.  These two terms, Mango Man & Mota Maal, all the way promulgated in the sacristy of Indian Constitution, spells the resilience of the constitutional vocabulary. The leader of opposition, in Parliamentary session accused the P.M. of earning ‘Mota Maal’ (i.e. Big Money) from the coal block allocation scam. So thoroughly spelled as Coalgate Scam, although the term remained vague after it was uttered, but this said the hemming  of the Political leaders.
 Both of these words have stirred the Indian Minds & said that ‘Why should electorates have all the fun?’ Parties also can scrabble such dictions on the Platform & enjoy their speeches. But nation is still thinking to get some pieces of Mota Maal & taste of the Mango that the Man is…. 

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

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The Chronic-les of Politics
-         Ankit Jha                                    
Posturing akimbo, akin the common man by R.K. Laxman, in front of the new cosmos of Politics.
“Media has mis interpreted my words, if you have any evidence then let’s leave it on Judiciary or I donot fear of investigation until I know I am free of guilt.” The viewers of Indian news channels & readers of National Dailies could not count on fingers that how many occasions they have spent going through these slogans ( so common) while doing the above mentioned stuff from the mouth of lately alleged politicians. India is a land of diversified culture, traits & traditions. We, the people of India, do have the tendency of giving birth to the fashion out of habits & culture out of fashion. We are the most serious clones of our traditions, take INC leaders standing infront of any allegations to National Son-in law. Politics is our biggest heritage left for us. Since ‘The epics of Mahabharata to the Shameful of Current Bharat’ if any word which has trotted in front of us or trotted ahead us has been of course is Politics. Politics, which is still swaying. The Ergophobiya of politicians, or more over Logophobiya of their minions which are the passed outs of India’s most reputated exams. What would be the suitable most title for these so called part of legislation of India or say ‘Neta’ the ‘Imperious’, the outré or the best ‘Obtruse’. I nicely remember ‘Counselor’ of my ward in Dist. Harda, she jinked to talk to me when I asked her to supplement the disaster management techniques well guided by the state government as one of the Article of Indian constitution (Directive Policy) allows her to do so. I continued my pester to her & finally directed the way to outside by her Acolytes.                                                                                                                                                                  “Bantadhar” is a word so common in Madhya Pradesh Politics. I feel, how many hours would “Ajay Singh ‘Rahul” the leader of Opposition in Madhya Pradesh Legislative Assembly, spent in chanting this very word, to throw on Government? Every politicians there must’ve used this word in their political career. ‘Kamalnath’, the Union Minister to Kailash Vijayvargiya the minister in M.P. govt. must have faced each other squibbed their bums by quoting that word. I would now like to unveil bit more tedious interests.                                                                                                                                                       Now  A days, I am brutally masticated between two power houses. I am none of the sycophants but when a person boasts of being so close to the local but nationally famed politicians of Uttar Pradesh & on the other side one is serious clone to the political giants of Bihar. What a gird around me? The ceaseless talks of their links, the monologues of their meeting & various astonishing prophecies of their to enter or not to enter their political realm even on their request. Huh! This is the worst chronic of politics that it entrenches its simple fellowship, even though its ignored by us. Let me mop up the mud-singed on politics, the gale’Khadee’ does not suit. If I get charged 124 (A) then, I do not have fame even to enter ‘Bigg Boss’. Any way one who is in simple touch to politics would try to condescend on the daunted like me, who even dislikes his M.L.A. for not being Benign to me in a debate competition. Politics is bit like a conduit through which flows the past, present & future of country, it also can chock tat conduit & spread the motile’s of epidemics  in society & say that ‘we are ready to be investigated’. Many a times, ‘ Posturing Akimbo, akin the Common man of R.K. Laxman in front of the new cosmos of Politics & hovered between the prelude & antiquity of politics….


                कितने तैयार हैं बदलाव के लिए? 
परिवर्तन के नारे दागने से बेहतर होगा की सभी एक बार ये सुनिश्चित कर ले की ये बदलाव के लिए तैयार हैं या नहीं. 
'पार्टी वो भी है और इनका भी है, इनका अच्छा कैसा है, ये बताए वरना उनका तो हम अच्छे से जानते ही हैं.' कल मेट्रो में एक आदमी मिला उसने कहा मुझसे. उससे नाम एक्सचेंज हो गया था मेरा. बोला- अंकित भाई! ना वो बिल आने से हमारा भला होता ना इनके राजनीति में आने से, फिर हम इनके जलसे में क्यू नाच रहे हैं? 
घूमता-फिरता ही सही परंतु वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष की कुछ सच्चाई अवश्य व्यक्त करता है. बिल पास करने की माँग का पॉल-खोल राजनीति में परिवर्तित हो जाना यदि आश्चर्यचकित नाही करता तो बड़े घरनो के बड़े घपले क्यों आश्चर्य में डालेंगे? पुर देश की राजनीति तीन हिस्सो में बंटती जा रही है- प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष. एक है जो दूसरे पर आरोप लगता है, दूसरा अपना बचाव करता है और तीसरा उस पर रोटिया सेंकता है. हर रोज़ देश यही सहता है. सभी परिवर्तन की चाह देख रहे हैं, परंतु हमें असल में परिवर्तन चाहिए कहाँ? सरकार से, कॉंग्रेस से या राजनीति से? क्या सत्ता का रुख सीधे राजनीतिक दल से किया जा सकता है? क्या भारत सच में बदलाव की माँग कार रहा है? यदि हाँ, तो किस तरह का बदलाव? सत्ता परिवर्तन या आत्मा परिवर्तन. यदि सत्ता परिवर्तन से देश में संतुलन बनता है, सड़कें गड्ढेमुक्त हो जाती हैं, भूखे पीटो को रोटी मिल जाती है, बेरोज़गार नौकरी करते दिखते हैं, हूमें सरकारी कार्यालयों में पैसा मेज़ के नीचे से नहीं देना पड़े तो ठीक है कार दो सत्ता परिवर्तन. ले आयें किसी अन्या पार्टी को धरातल पर. और सौंप दे उन्हे इस देश का क्कर्यभर. किन्तु यदि सत्ता परिवर्तन से उपरोक्त कार्य ना हुए तो क्या होगा? क्या उस समय हम किसी पर आरोप लगा सकेंगे? 
अक्सर इस देश में मध्यस्थता को चापलूसी ही समझा जाता है. अतः मुझे वो भूल नहीं करना है. एक चाटुकार की संग्या से बेहतर होगा सदा ही भेड़चाल का हिस्सा बनें रहना. व्यवस्था परिवर्तन कोई नया शब्द नहीं है और ना ही इसके अर्थ से कोई भी अनभिग्या है. बस प्रश्णा इसकी उपयोगिता का है. देश में चल रहे क्रियाकलापो से ऐसा लगता हैकि एक देशव्यापी आंदोलन, सविनय अवगया में बदलती जा रही है. कैसे एक टोपिधारी क्रांतिकारी अपने आपको नेता सर्वनमीत करता है और पॉल-खोल की राजनीति प्रारंभ होती है. सड़क का यह आंदोलन संसद की रह पकड़ने के लिए अपने ही जुटाई भीड़ से ये कहता है की कब, कहाँ, और कैसे घेराव करना है? व्यवस्था परिवर्तन की माँग इतनी तेज़ आग पकड़ चुकी है की आम आदमी शौक से उसमे जौहर कर रहा है और वो भी अनजान बनकर.  
सभी मुद्दे जो देश के दरवाज़े पर दस्तक देती है और फिर अपना रुख बदल लेती है को दिशाहारा बना संसद बदलने का हथियार बना लेना बदलाव नहीं होगा वरन अपने अंदर की क्षमताओं को समझ कर देश के लिए उसे समर्पित करना बदलाव की चिंगारी में पहला आचमन होगा. परिवर्तन के नारे दागने से बेहतर होगा की हम ये सुनिश्चित कर ले कि अब परिवर्तन के लिए तैयार हैं. ये परिवर्तन की आग भी आ. सहसा ही नहीं उठी किन्तु यह तो रोजमर्रा के जीवन में आने वाली तकलीफों का बवंडर है जो नित्य ना सही कभी तो आएगा और लगता है वो रहा है. अक्सर आम आदमी की चिंताओं को मुद्दा बनाकर सिर्फ चुनाव जीता जाता है, अब शायद देश जागरूक हो रहा है और कहते हैं की हमारे उंगकी में वो ताक़त है की जो किसी भी हाथ को तोड़ सकती है और किसी भी कमल को मुरझाने पर मजबूर करसकती है. यह वो क्रांति है जिसमे इतनी तेज है कि स्वयंभुओं की सरकार को पिघला सकती है, किन्तु ये आग धधकति क्यों नहीं है? क्या सत्ता परिवर्तन के नारे सिर्फ नारों के रूप में ही अच्छे लगते हैं? सत्ता परिवर्तन के पास्चत मनुष्या को स्वयं को परिवर्तन के अनुकूल बना लेना आवश्यक है. इतिहास इस बात की साक्षी है की इस देश में बदलाव सभी के लिए अपच ही रहा है या ये कहें कभी उसके लायक ही नहीं रहे. "स्वयं को आ. में देखा, कुछ कमी लगी, चलो ठीक है, बाँकी तो इतना भी नहीं है." तो कैसे आएगा परिवर्तन? 
समाज में परिवर्तन , सत्ता परिवर्तन से अधिक आवश्यक है. भ्रष्टाचार कम करने के लिए कॉंग्रेस या भ.ज.प. को हटाना आवश्यक नहीं है. आवश्यक है कि उस शासन में अपनी ओर से क्या प्रस्तुत कार रहें हैं. यदि मिठाई के डिब्बे में पैसे जा. तो घुस कैसे कम होगी, यदि कार्य से पहले जाति आएगी तो अच्छा जनप्रतिनिधि कैसे आएगा, कार्चोरी होगी तो देश का विकास कैसे होगा, हाथ गंदी ना करवाने की परंपरा सफाई कैसे करवाएगी? अपने कर्तव्यों की अवमानना करके कैसे अपने अधिकारो के रक्षा की गौरानटी तय करवा सकते हैं? 
अतः परिवर्तन की ज्वाला भडकाने से अच्छा होगा कि पहले उसके लायक बने और फिर यदि प्रशासन हमारे लायक नहीं तो उन्हे हटाना अनुचित नहीं होगा. अपनी आंखो मेई अंगारे रखना उचित है परंतु हर कदम पर आग लगाना कदाचित् नहीं.