लव जिहाद: एक प्रेम कथा
- अंकित झा
मैंने हर दौर में हर
नस्ल के क़ातिल देखे हैं,
मैं मोहब्बत हूँ मेरी
उम्र कुछ बड़ी है.
कथा का प्रारंभ होता
है एक रेलवे स्टेशन से, बुर्के में बैठी एक स्त्री, उसके बायीं ओर चौकन्ने नज़रों
से प्लेटफार्म के चारों ओर नज़र दौरता एक बीस बैस वर्ष का लड़का. दोनों की आँखें
सहमी हुई हैं, बग़ावती नज़र आ रहे हैं, जब आँखें सहमी हो परन्तु चेहरे पर शिकन तक न
हो तो बग़ावत जन्म लेता है. एक एक कर सामने से कई ट्रेने गुजर चुकी हैं, परन्तु
जाने का मन नहीं कर रहाहै, कहीं जाना भी है या नहीं, ज्ञात नहीं.हर एक ट्रेन के
आगमन पर, वो उठती है, इस उम्मीद से कि ये ट्रेन पकडनी है, परन्तु वो लड़का मना कर
देता है, हर बार यही हो रहा है. फिर एक ट्रेन आई, दोनों उसमे बैठ गये, और चले गये,
लड़की की आंखें नम हैं, ऐसा लग रहा है मानो वो अपने कलेजे को देह से अलग कर रही हो,
छलक पड़े. लड़के ने धीर बंधाया. प्रेम है,
विवशता तो होगी. अपनों के लिए अपनों से दूर जाने की. किस अपने को चुना जाए? प्रेम
में यदि विवशता न हो तो अमरता की कसौटी को पार कैसे करेगी? ट्रेन चल पड़ी, अरमान, नए
सपनों के नयी ज़िन्दगी के चल पड़े. लड़की के गले में हाथ डाले उसे धीर बंधाता वो लड़का
प्लेटफार्म को निहारता रहा.
उस घर के बहार एक
लड़की बैठी है, कच्चा मकान है, दरवाजा उखड़ा उखड़ा सा है, घर के दीवार पर रंग का नाम
तक नहीं. आँखें सहमी हुई है, ये बग़ावत के अंत का समय है, पश्चाताप के आरम्भ का. जब
आँखें सहमी हो, तथा चेहरे पर पछतावे के निशान तो पश्चाताप जन्म लेता है. वो चुपचाप
वहाँ बैठी है, सामने से भीड़ गुजर रही है, कुछ नज़रें उसे देखती है और फिर चली जाती
है. कई बार वो कुछ कहने की कोशिश करती है, फिर स्वतः ही चुप हो जाती है. हर बार
यही हो रहा है. उसकी आँखें नम हैं, ऐसा लग रहा है, वो कटे हुए कलेजे को देह में
पुनः जोड़ने के असंभव प्रयास को करना चाहती हो, छलक पड़े. रह रह कर छलक जाते हैं. प्रेम
के हारे को ममता जगह नही देती. और जब प्रेम, ममता को तिरस्कृत कर चूका हो फिर तो
बिलकुल नहीं. आज उसने बुरका नहीं पहना, शर्म पहना है. बुर्के में शारीर को ढंक कर
जो निर्लज्जता की ओर कदम बढ़ाया था, उसे लेकर पछता रही है. क्या कसूर था, प्रेम
किया था. किससे. पूछना भूल गयी थी. सजा मिली. इतनी भयंकर कि समझ नहीं पा रही है. अंग
नुचे हुए हैं. सब कहते हैं, शादी कर ली थी इसने, फिर मंगलसूत्र कहाँ है? सुहागिनों
जैसा जूडा कहाँ है? माथे की बिंदी कहाँ है? मांग का सिन्दूर कहाँ है? किसी ने
बताया, धर्म बदल लिया था इसने. इस्लाम कबूला था, निकाह रचाया था इसने. पति बेईमान
निकला, छोड़ दिया, माँ भी बन चुकी है. फिर क्या मूंह लेकर बाप के घर के बाहर बैठी
है? जल जाए, पवित्र होगी तो बच जाएगी वरना वहीं राख हो जाएगी. प्रेम से राख बनने
तक की दास्तां एक बेईमानी मात्र के कारण. इसे बेईमानी नहीं बेवफाई कहते हैं,
खुदगर्ज़ी कहते हैं. और प्रेम के इस ढोंग को आज कल लव जिहाद कहते हैं. ये धार्मिक
अतिरेक का अपभ्रंश है, सामुदायिक कलह के अंकुरण का दूसरा नाम.
बुर्के वाली पड़ोसन और
जनेऊ वाला पडोसी, दोनों की नोकझोंक वाली प्रेम कहानी, शरारती मुस्कान, छत के ऊपर आँखों
ही आँखों में इशारों से समझे गए जीवन के गूढ़ रहस्य. सब निरर्थक. राजनैतिक गलियारों में प्रेम पुनः
बदनाम हो गया. वो उर्दू के शायर ने लिखा है, ‘होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को ना
जाने, शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है.’ प्रेम अँधा होता है, या दुनिया अंधी
है? प्रेम पाप है, या प्रेम पर शंका करना? किसकी तरफदारी करूँ? मैं ही क्यों? पहले
दुसरे जात का नहीं चलेगा, अब दूसरे धर्म का नहीं. कहीं तुम्हें बदल के अपनी
जनसँख्या बढ़ा ली तो? जनन्ख्या बढ़ जाएगी तो जानते हो क्या जुल्म हो जाएगा? क्यों
डराते हो महाशय? प्रेम से सामाजिक प्रेम बढ़ता है, जनसँख्या नहीं. परन्तु ऐसी बातें
उत क्यों रही हैं? किस परिपेक्ष में? कर्नाटक में 2008 में दो दिल मिले थे, बरसात
के मौसम में किसी छाते के नीचे शायद. उन बूंदों ने धर्म नहीं पूछा था, न छाते ने. न
उस समय दोनों के दिल ने. बरसात की बूंदों में प्रेम जगह बनता गया, फिर छज्जे छज्जे
का प्यार परवान चढ़ता गया. लड़का 25 साल का मुस्लिम, लड़की 19 साल की हिन्दू. प्रेम
कुछ भी कहे, बाबूजी की बात अटल होती है. परन्तु प्रेम तो प्रेम ठहरा, रति रस में
वात्सल्य का भाव कहीं पीछे छूट ही जाता है. और फिर जब वत्सला विद्रोह पर उतर आये
तो बाबूजी भी क्या करें. पाबंदियां. फिर उन पाबंदियों से छूटने की कशमकश. भाग गये,
जिस धर्म ने इतनी बंदिशे लगायी, बदल डाला, नम्म बदल लिया. बाबूजी के नाम को भी हटा
दिया. प्रेम के नाम पर कुछ भी, नाम बदलना पहले सजा थी, अब जीने का जरिया. माँ बनी,
जितना मेरा ख्याल है, गर्भ में पलने वाला वो मासूम धर्म के बारे में नहीं जानता. ना
ही वो रसायन कुछ धर्म वार्म समझते हैं. वो तो संसार में आने के बाद पता चलता है कि
किस घर में जन्म लिया है उन्होंने. वो भी 3 बच्चों की माँ बनी. हर परिवार में खटपट
होता है, वहाँ भी होने लगा. कहीं कहीं स्वाभिमान हावी होने लगता है, विवाद बढ़ गया,
इतना कि इश्क की फ़ज़ीहत हो गयी. लड़की ने पुलिस में शिकायत की, ये कुछ नए प्रकार का था.
शिकायत था, जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करने पर विवश करने का. अनंतकाल में इसी शिकायत
से जन्म हुआ लव जिहाद का. अर्थात प्रेम का सहारा लेकर एक धर्म विशेष के जनसँख्या
को बढ़ाने का हथकंडा.
इस पर क्या लिखा जाए,
सही है या गलत? क्यों लिखा जाए? सही हो या गलत क्या फर्क पड़ता है? इश्क तो यूँ भी
बदनाम है. ये दाग भी लग ही जाने दो. समाज भी बेवजह पड़ा हुआ है, इश्क को चैन से जी
लेने दो. और इश्क्जादों को भी. क़ाज़ी और पुरोहित के इशारे पर इश्क नहीं होता है,
साज़िश होता है, तो इसे लव जिहाद का नाम नहीं दिया जाए. हम प्रेम के वकीलों को इस
पर ऐतराज़ है. होना भी चाहिए, कुछ कहने का मन कर रहा है, ‘जब दाग धुल जायेंगे तो
बारिशों को याद किया करेंगे, इश्क में कुरबां हुए उन आशिकों को याद किया करेंगे. पिघलते
आसमां को जो अश्क कहा करते थे, आशिकी के उस मौसम को याद किया करेंगे.’ प्रेम में
साज़िश होते रहते हैं, होते रहेंगे. कोई रोक के दिखा दे, ये धर्म युद्ध किस लिए? राजनैतिक
महाभारत किसलिए? सामाजिक वर्ग संघर्ष किसलिए? लव जिहाद कुछ नहीं होता है, विश्वास
का टूटना होता है, कोई भी धर्म स्वयं के प्रति खूंखार नहीं हो सकता. कोई भी
धार्मिक मान्यताएं स्वयं के अनुयायिओं के प्रति संवेदनहीन नहीं हो सकती. अपनी
बेटियों, बहनों को हम क्या समझाएं, किसी लड़के से दिल न लगाना, चलो लगा भी लिया तो पता
कर लेना धर्म कौन सा है. अगर दूसरा धर्म निकले तो दिल को समझा लेना. ऐसी
गुस्ताखियाँ न किया करे. क्या सोचेंगे पंडित जी हमारे. यदि लव जिहाद कुछ होता है,
तथा यह गलत है तो प्रेम का पूरा प्रसंग ही गलत है. वो दौर कौन भूला है, जब नगर की
सबसे सुंदर कन्या विवाह न होने के सूरत में नगरवधू बन जाया करती थी, वह भी कोई षड्यंत्र
था क्या? किसका? किसके विरुद्ध? मुस्लिम तो नहीं थे उस समय हमारे देश में. कमी कहीं
स्वयं में है, ऊँगली को दूसरी ओर घुमा रहे हैं बस. देश में और भी महत्वपूर्ण
मुद्दे हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए. लव जिहाद के विरुद्ध दल बनाने से कई
बेहतर होता यदि कृषि समस्याओं तथा शैक्षणिक समस्याओं के विरुद्ध दल बनाये गये
होते. सार्थक होते. धर्म कभी भी भेदभाव करना नहीं सिखाता, मनुष्य में ये भावना
कहाँ से आ गयी? संसार ईश्वर ने बसाया, समाज को मनुष्यों ने. समाज में ये भेदभाव
कहाँ से आये, जब सभी एक अंश हैं तो फिर क्या चल रहा है ये?
हाँ, लव जिहाद एक
षड्यंत्र है, फिर से सामाजिक कलह करवाने हेतु. इसे जो कोई भी शुरू करना चाहता है, पापी
है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें