बुधवार, 20 मार्च 2013

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बिहार विशेष 
                               - अंकित झा 
 यह एक अधिकार की मांग भर थी या फिर एक जिद्द का आह्वान, जिस के बिसात पर 2014 के चुनाव में जेडी (यु ) शह और मात का खेल खेलेगी। क्या बिहार विशेष बन पायेगा या फिर राजनीतिक खेलों का अवशेष बनकर रह जायेगा? 

" कौन बनता है समाज ? इतिहास बनता?
उत्पादन के यंत्र, वास्तु संपत्ति बनती?
तर्कबुद्धि, चिंतन, विचार, आदर्श बनाते?
रीति-निति नियमों के, जड़ सम्बन्ध बनाते?
दर्शन के सिद्धांत, भगवत मुल्य बनाते?
या आवश्यकता, रक्षा का बोध बनाते?
                                                                                                           - सुमित्रा नंदन पन्त (रश्मिबंध)

रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में नीतिश कुमार द्वारा (जेडी (यु ) द्वारा) बिहार को विशेष राज्य के दर्जे की मांग हेतु अधिकार रैली का आयोजन किया गया। पिछले वर्ष जिस मांग को लेकर नितिश शक्ति प्रदर्शन कर चुके थे, अब वो दिल्ली में करने जा रहे थे। ' बिहार को विशेष राज्य का दर्ज मिले' कुछ यही मांग है उनकी। यह दर्जा हिमाचल, उत्तराखंड, व  कुछ पूर्वोत्तर राज्यों को प्राप्त है, व उनकी प्रगति सूचक है इस मांग की। परन्तु बिहार के लिए ही क्यों? क्योंकि तृणमूल कांग्रेस सर्कार से हाथ खींच चुकी है, करुणानिध लंका के मुद्दे पर नित्य धमकाते रहते हैं, लेफ्ट भी खफा है सरकार से और राइट की तो बात ही जुदा है। अर्थात जेडी (यु ) पूरा अधिकार जता सकती है, 'अधिकार रैली' के आड़ में। नीतीश खुद कह चुके हैं, ये दर्ज अभी दें या 2014 के बाद, जो भी दे हम उसी के ही हो लेंगे। कोई पला हुआ पुत्र क्या कभी अपना हुआ है भला? क्या सांप ने भी कभी सपेरे को कन्धा दिया है भला? जैसे ही दांत आते हैं सपेरे को काट जरुर लेता है। कहीं मुस्लिम छुट न जाये इसलिए मोदी नहीं चाहिए और सत्ता न चली जाये इसलिए विशेष राज्य का दर्ज चाहिए। नीतीश बाबु का जवाब नहीं, जब बिना किसी दर्जे के बिहार में बहार ल दिया तो क्या आवश्यकता है किसी दर्जे की? कैसा बहार लायें हैं नीतीश बाबु इस पर भी जरा ध्यान दे दें। बिहार के लोग बड़े भोले हैं, सड़कों के निर्माण को प्रगति मान लेते हैं, ये सडकें केरल, महाराष्ट्र, गुजरात में 70-80 के दशक में बन गए थे, परन्तु प्रगति के पथ तो तैयार करती ही सडकें ताकि १ ० करोड़ की जनसँख्या को यातायात में तकलीफ न हो। एक राष्ट्रिय प्रौद्योगिक संसथान है, उसके लिए पटना मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, भागलपुर, समस्तीपुर, दरभंगा आदि में कोचिंग की लाइन लग गयी है, इंजिनियर खूब उत्पादित करते हैं परन्तु अच्छे इन्सान नहीं, तभी तो तमंचा रखना शान समझते हैं व मारपीट करना सम्मन। कोसी के उज्दों को बसेरा नहीं मिला है, सूबे की सर्कार हर द्वार खटखटा चुकी है परन्तु जो गंगा उजाड़ रही है उसका क्या? नालंदा विश्वविद्यालय फिर से शुरू होने जा रहा है परन्तु पटना विश्वविद्यालय, मिथिला विवि व एन आई टी तथा एम् आई टी की सुध लेने वाला कोई नहीं है। बिहारी बड़े गर्व से कहते फिरते हैं की हम कहाँ नहीं है, अफ़सोस कि ये बिहार में क्यों नहीं हैं। प्रचुरता किसे कहते हैं, बिहार इससे अनभिग्य है।दिल्ली में रिक्शा से श्रीहरिकोटा व कोलंबिया के राकेट तक बिहारियों की पहुँच है तो बिहार विशेष क्यों?
    जगत की संदरता का चाँद 
    सजा लांछन को भी अवदात 
सुहाता बदल, बदल दिन-रात 
नवालता ही जुंग का आह्वान।।
बिहार को क्या चाहिए? नीतीश कोम्क्य चाहिए? क्या इन दोनों की एक ही मांग है? ऐसा नहीं लगता। नीतीश एक समझदार मुख्यमंत्री हैं। उनको राजनीति व कूटनीति खूब आती है, अंधों को कागज़ के फूल में इत्र  छिड़ककर सुंघा देना चाहते हैं ताकि वो इसे गुलाब समझ ले। नीत्श के लिए ये एक बड़ा मौका था, ट्रेन कार्यकर्ताओं से भरे हुए आयें, दिल्ली स्थित बिहार भवन को रैन बसेरा बनाया गया तत्पश्चात रामलीला मैदान को राजनीतिक रंगभूमि। नीतीश कतई लालू प्रसाद की तरह वाक्चातुर्य व्यक्तित्व के नहीं हैं, अतः अधिकार रैली को कतई आदिकर के लिए नहीं मन जा सकता। यह एक अधिकार की मांग भर थी या फिर एक जिद्द का आह्वान, जिस के बिसात पर 2014 के चुनाव में जेडी (यु ) शह और मात का खेल खेलेगी। क्या बिहार विशेष बन पायेगा या फिर राजनीतिक खेलों का अवशेष बनकर रह जायेगा? 
 जिस तरह मुख्यमंत्री जी बोले उससे तो दूसरी बात की संभावना ज्यादा लग रही है। बस दर इस बात का है कि प्रगति के पहिये कहीं पंचर न हो जाये वरना मंत्री जी तो गिरेंगे ही प्रदेश भी न बच पायेगा।
पत्थर में परस, पक्षी में सारस 
मौसम में बहार की बात ही कुछ और है। 
दुनिया में एशिया, एशिया में भारत 
भारत में बिहार की बात ही कुछ और है।।

गुरुवार, 14 मार्च 2013

प्रतिबिम्ब

अथ यात्रा 
- मनीष पोसवाल 
मरू मन घूमता है जैसे,
मृगतृष्णा के भंवर में
उसी तरह मानव का मनोरथ
चलायमान है।
सत रज तम से निर्मित डगर में
इस रथ का प्रत्येक पहिया
भरा है भिन्न-भिन्न
भावों के भार से
तभी तो न्याय
नगण्य हो चुका है।
मत्स्य न्याय के शिकंजे में
तड़पते संसार से
इसी जीवन के विभिन्न पहलु
कभी चमकते हैं पीली धूप से
कभी करते हैं
जल की याचना।
तमसावृत्त अंधकूप से
शाश्वत सत्य ये भी है।
जीवन जड़ नहीं चेतन है,
स्थिर नहीं गतिमान है
सफ़र है ये सुन्दर संघर्षों का
पंचतत्व में सांसे
जब तक विद्यमान है
अंततः हम कह ही दे
की जीवन अथक यात्रा है।
सृजन का उत्सव है
नामानों का निरीक्षण है
पथरीले पथों का
आगामी अनुभव है।।।। 

बुधवार, 6 मार्च 2013

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अपराजिता! तुम उत्थान कर गयी। 
- अंकित झा 
वह अपराजिता! अपनी शहादत को वोट बैंक बनाकर ही सही, बाकी बची अपनी कौम का कल्याण अवश्य करवा जाओगी। तुम्हे भले ही किसीने देखा न हो परन्तु अब हर नारी अपने अन्दर एक अपराजिता को ढूँढती है, द्वारका में दुर्लभ फ्लैट के लिए नहीं अपितु अपनी आक्रोश की अगन को साकार करने हेतु। जब भी तुझे इस तरह कल्याणकारी योजनाओं का शीर्षक बनते देखता हूँ, मन मेरा यह प्रश्न अवश्य करता है- " ज़िन्दगी के साथ न सही ज़िन्दगी के बाद ही?" उन दुष्कर्मियों का सुध लेने को तो पुलिस व् प्रशासन दोनों बैठे हैं परन्तु तेरे पीछे छूट गयी तेरी प्रजाति को तो इस देश का नया वोट बैंक करार कर दिया गया। तेरी मौत ये तो अच्छा कर गयी कि अब तेरे नाम से नया फण्ड चलेगा। जिसमे प्रशासन अच्छे से प्रायश्चित कर लेगी। अरे! किस अपराध का? अपराध के लिए प्रायश्चित कैसा? यहाँ प्रशासन उत्सव मनाएगा, अपराजिता उत्सव। महिला सशक्तिकरण हेतु फण्ड, नया खास महाधनी। और क्या चाहिए?
अफ़सोस ये तो घाव को गरम सरिये से कुरेदना हुआ, अभी तो बहुत कुछ चहिये। इस देश को नया आन्दोलन नहीं चाहिए और न ही आरक्षण रूपी कोई नया धमाका चाहिए। बस इतना कर दो कि औरत को औरत समझना शुरू कर दिया जाये। क्या समाज में सामान चबूतरे का कोई मतलब ही नही। न उन्हें देवी समझो और न ही अबला। न काली समझो न नाजुक कलि। समझो तो सिर्फ मनुष्य। कैसी दया, कोई पीडिता है क्या? यह फटकार सिर्फ मर्दों को नही वरन महिलाओं को भी है कि ' सहानुभूति लेना किसी को ख़राब नहीं लगता।' परन्तु इसकी आदत हमें टुकडो पर जीने की लत लगा देती है और फिर फण्ड, बैंक और कानून जैसी वैशाखियां। कहते हैं कि समाज में मर्दों का प्रभुत्व है, ऐसा कतई नहीं है। आदमी अपनी सामान्य स्थिति में है वो तो नारी नित्य संवेदनशील व पीड़ित वर्ग होती जा रही है, और यह प्रभुत्व को हवा देता है।
अपराजिता ने औरत को औरत होने का एहसास दिलाया है। एक औरत क्या कर सकती है, इस हेतु मुझे महिला सशक्तिकरण पर निबन्ध लिखने की आवश्यकता नहीं है। अपराजिता हेतु मुझे आजीवन खेद रहेगा। बलिदान के पश्चात शहादत को सम्मानित करना कहाँ से उचित है? जिस धरती पर धरा से लेकर ज़रा तक सभी पूज्यनीय हैं वहां अपराजिता की मृत्यु क्यूँ? यह मृत्यु नहीं शहादत थी। एक विलक्षण शक्ति को जन्म दे गयी ये शहादत। एक आक्रोश को जिसने राष्ट्र को झकझोर दिया, अब इसका अंजाम जो निकले परन्तु आग़ाज़ तो सही दिशा में हुआ है, दिल्ली विश्वविद्यालय प्रांगण के पेड़ों पर निर्भया के बैच चिपके हुए हैं, ये सुखद अंत की शुरुआत है। और ये वाक्य एक आक्रोश के शुरुआत का अंत।।।।।