अगर तेलंगाना अलग हुआ तो:-
- अंकित झा
यदि इस आन्दोलन ने तेलंगाना को आंध्र से अलग कर दिया तो पृथकतावाद की आग, आन्दोलन का ईंधन लिए, समूचे राष्ट्र को ज्वलित कर देगा और यदि अलग नहीं हुआ तो नित्य लहू की धरा देश में राजनीतिक भवंर पैदा कर देगी।
देश की स्वाधीनता ने मनुष्यता व प्रशासन के पराभव को नए आयाम दिए। जब देश स्वतंत्र हुआ तो देश को राजनैतिक एकीकरण करने का प्रश्न खड़ा था। सरदार बल्लभ भाई पटेल ने सैकड़ों (५६५) रियासतों को एकीकृत किया व भारत को पुनर्गठित किया। परन्तु हैदराबाद के निज़ाम सदैव ही इससे हिचकिचाते रहे, फिर सितम्बर, 1948 में भारत सरकार ने "ऑपरेशन पोलो' के द्वारा 'हैदराबाद' को पुलिस कार्रवाई के द्वारा शामिल कर लिया। 1953 में जब राज्य पुनर्गठित हुए तो मद्रास, बॉम्बे से कुछ हिस्से लेकर व हैदराबाद को सम्मिलित कर 'आंध्र प्रदेश' को नए राज्य के रूप में स्थापित किया व हैदराबाद इसकी राजधानी बनी। परन्तु हर नई चीज़ शुद्ध नहीं होती। उसी समय से 1,14,840 वर्ग किमी का क्षेत्र जो कि 3,52,86,757 (2011) के जनसँख्या को समाहित करता है, जिसमें १ जिले आते हैं, और जिसे 'तेलंगाना' का नाम दिया गया है, को अलग इसी नाम से अलग राज्य बनाने की मांग की जा रही है। यदि तेलंगाना का शाब्दिक अर्थ निकल जाये तो वो मिलता है, 'तेलुगु भाषियों की धरा।' 1969 से ही अलग राज्य बनाने की मांग ने जोड़ पकड़ लिया था जिसके 40 वर्ष पश्चात 2009 में सरकार ने अलग राज्य बनाने का मसौदा तैयार किया परन्तु तटीय आन्ध्र के विरोध के कारण उसे हरी झंडी नहीं दी गयी। जिसके कारण हैदराबाद, अदिलाबाद सहित कई जिलों में बंद, प्रदर्शन व रक्तरंजित विरोध नित्य होते रहते है। 3 वर्षों से कोई कार्य आगे बढ़ता नहीं दिखता राजनीतिक विवशता ये है कि आंध्रप्रदेश के विधानसभा के 11 9 सीट तेलंगाना में है तथा भाषा व वोट इस देश की शुरू से ही विवशता रही है।
भाषायी आधार पर पृथक राज्य की मांग का पूरा करना अर्थात देश को और काटने की आग को हवा देना। यदि इस आन्दोलन ने तेलंगाना को आंध्र से अलग कर दिया तो पृथकतावाद की आग, आन्दोलन का ईंधन लिए, समूचे राष्ट्र को ज्वलित कर देगा और यदि अलग नहीं हुआ तो नित्य लहू की धरा देश में राजनीतिक भवंर पैदा कर देगी। यदि तेलुगु भाषियों को तेलंगाना मिल जायेगा तो बिहार में मिथिलांचल, गुजरात में सौराष्ट्रा, महाराष्ट्र में विदर्भ, पश्चिमबंग में गोरखालैंड, राजस्थान में पश्चिम राजवाडा, उत्तरप्रदेश में बुंदेलखंड, कर्नाटक में मैसूर की मांग को लेकर भी तो जोड़ पकड़ेगा। छोटे राज्यों को लेकर राजनीति पहले भी गरमाई है व बिहार से झारखण्ड, उत्तरप्रदेश से उत्तराखंड व मध्यप्रदेश से छतीसगढ़ अलग हुए थे। तर्क यह दिया जाता है कि छोटे राज्यों में प्रशासन आसान रहता है जिसके उदहारण है -गोवा, केरल, हिमाचल प्रदेश वहीँ बड़े राज्यों में नियंत्रण थोडा मुश्किल होता है जैसे महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश व जम्मू और कश्मीर। तो क्या सुगम प्रशासन के नाम पर भाषा को आधार बनाकर देश के टुकड़े कर दिए जाये। यदि ऐसा हुआ तो 2040 तक भारत में 61 राज्य हो जाएँगे ( दैनिकभास्कर, 10 फरवरी)। जरुरी भाषा के आधार पर नए राज्य स्थापित करने का नहीं वरन देश के विकास पर है। यदि मिथिलांचल अलग हुआ तो कोसी व गण्डक और मज़फ्फरपुर के अलावा कुछ नही रह जायेगा, वही महाराष्ट्र से विदर्भ अलग हुआ तो भुखमरी, सूखे खेत व नागपुर के संतरों के अलावा कुछ और नहीं ला पाएगी और यदि उत्तरप्रदेश से बुदेलखंड अलग हुआ तो बंजर खेत, बीहड़ व झाँसी के किलों के अलावा कुछ और खास नहीं ला पायेगा।
अत: यह स्पष्ट है की छोटे राज्य तभी सफल सिद्ध होते है जब उनके पास संसाधन हो जैसे गोवा व केरल की दार्शनियता, झारखण्ड के खनिज व फैक्ट्रीयां व छतीसगढ़ का पर्यटन व फैक्ट्रीयां व कृषि आन्दोलन से दुबककर कोई फैसला लेने से अच्छा होगा कि औचित्य व स्वायत्ता को पैमाना मानते हुए निर्णय लिए जायं ताकि कोई भी राज्य उसका दंड ना भुगत पाए।