बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

प्रतिबिम्ब

चुनौती 
               - अंकित झा 
क्या कह दोगे कुर्सी पर बैठकर,
कहने को कभी धरातल पर आओ। 
क्या लूट लोगे हरियाली तुम कानन की,
कभी लूटने को मरुस्थल में आओ।
                                    पग-पग पर जब जग हंसेगा, 
                                    त्राहि-त्राहि से करते फिरोगे।
                                     मूक मानव कह उठेगा,
                                     कभी तो कुछ करके दिखाओ।
खूब दागे तोप तुमने शान में अपने,
किलकारियों को सुनने का समय नहीं। 
कर लिए चंद वर्ष में पूरे वो सपने,
कभी हमरे सपने पूरे करके दिखाओ।
                                    कहते हो स्वयं को सम्राट तुम,
                                    हो सरल, अविरल, विरत ह्रदय के।
                                    खूब नेता बनाने की चाहत लिए हो,
                                    कभी तो तुम मनुष्य बनके दिखाओ।।।
    

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

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अगर तेलंगाना अलग हुआ तो:-
- अंकित झा 

यदि इस आन्दोलन ने तेलंगाना  को आंध्र से अलग कर दिया तो पृथकतावाद की आग, आन्दोलन का ईंधन  लिए, समूचे राष्ट्र  को ज्वलित कर देगा और यदि अलग नहीं हुआ तो नित्य लहू की धरा देश में राजनीतिक भवंर पैदा कर देगी।

देश की स्वाधीनता ने मनुष्यता व प्रशासन के पराभव को नए आयाम दिए। जब देश स्वतंत्र हुआ तो देश को राजनैतिक एकीकरण करने का प्रश्न खड़ा था। सरदार बल्लभ भाई पटेल ने सैकड़ों  (५६५) रियासतों को एकीकृत किया व भारत को पुनर्गठित किया। परन्तु हैदराबाद के निज़ाम सदैव ही इससे हिचकिचाते रहे, फिर सितम्बर, 1948 में भारत सरकार ने "ऑपरेशन पोलो' के द्वारा 'हैदराबाद' को पुलिस कार्रवाई के द्वारा शामिल  कर लिया। 1953 में जब राज्य पुनर्गठित हुए तो मद्रास, बॉम्बे से कुछ हिस्से लेकर व हैदराबाद को सम्मिलित कर 'आंध्र प्रदेश' को नए राज्य के रूप में स्थापित किया व हैदराबाद इसकी राजधानी बनी। परन्तु हर नई चीज़ शुद्ध नहीं होती। उसी समय से 1,14,840 वर्ग किमी  का क्षेत्र जो कि 3,52,86,757 (2011) के जनसँख्या को समाहित करता है, जिसमें १ जिले आते हैं, और जिसे 'तेलंगाना' का नाम दिया गया है, को अलग इसी नाम से अलग राज्य बनाने की मांग की जा रही है। यदि तेलंगाना का शाब्दिक अर्थ निकल जाये तो वो मिलता है, 'तेलुगु भाषियों की धरा।' 1969 से ही अलग राज्य बनाने की मांग ने जोड़ पकड़ लिया था जिसके 40 वर्ष पश्चात  2009 में सरकार ने अलग राज्य बनाने का मसौदा तैयार किया परन्तु तटीय आन्ध्र के विरोध के कारण उसे हरी झंडी नहीं दी गयी। जिसके कारण हैदराबाद, अदिलाबाद  सहित  कई  जिलों  में बंद, प्रदर्शन व रक्तरंजित  विरोध  नित्य होते  रहते है।  3 वर्षों  से कोई कार्य आगे  बढ़ता  नहीं  दिखता राजनीतिक  विवशता  ये है कि  आंध्रप्रदेश  के विधानसभा  के 11 9  सीट तेलंगाना  में है  तथा  भाषा व वोट इस देश की शुरू  से ही विवशता  रही  है।                                        
            भाषायी आधार  पर पृथक राज्य  की मांग का पूरा करना अर्थात  देश को और काटने  की आग को हवा देना।  यदि इस आन्दोलन ने तेलंगाना  को आंध्र से अलग कर दिया तो पृथकतावाद की आग, आन्दोलन का ईंधन  लिए, समूचे राष्ट्र  को ज्वलित कर देगा और यदि अलग नहीं हुआ तो नित्य लहू की धरा देश में राजनीतिक भवंर पैदा कर देगी। यदि तेलुगु भाषियों को तेलंगाना मिल जायेगा तो बिहार में मिथिलांचल, गुजरात में सौराष्ट्रा, महाराष्ट्र में विदर्भ, पश्चिमबंग  में गोरखालैंड, राजस्थान में पश्चिम राजवाडा, उत्तरप्रदेश में बुंदेलखंड, कर्नाटक में मैसूर की मांग को लेकर भी तो जोड़ पकड़ेगा। छोटे राज्यों को लेकर राजनीति पहले भी गरमाई है व बिहार से झारखण्ड, उत्तरप्रदेश से उत्तराखंड व मध्यप्रदेश से छतीसगढ़ अलग हुए थे। तर्क यह दिया जाता है  कि छोटे राज्यों में प्रशासन आसान रहता है जिसके उदहारण  है -गोवा, केरल, हिमाचल प्रदेश वहीँ बड़े राज्यों में नियंत्रण थोडा मुश्किल होता है जैसे  महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश व जम्मू और कश्मीर। तो क्या सुगम प्रशासन के नाम पर भाषा को आधार बनाकर देश के टुकड़े कर दिए  जाये।  यदि ऐसा हुआ तो 2040  तक भारत में 61 राज्य  हो जाएँगे ( दैनिकभास्कर, 10 फरवरी)। जरुरी भाषा  के आधार  पर नए राज्य स्थापित करने का नहीं वरन देश के विकास पर है। यदि मिथिलांचल अलग हुआ तो कोसी व गण्डक और मज़फ्फरपुर के अलावा कुछ नही रह जायेगा, वही महाराष्ट्र  से विदर्भ अलग हुआ तो भुखमरी, सूखे खेत व नागपुर के संतरों के अलावा कुछ और नहीं ला पाएगी और यदि उत्तरप्रदेश से बुदेलखंड अलग हुआ तो बंजर खेत, बीहड़ व झाँसी के किलों के अलावा कुछ और खास  नहीं ला पायेगा।
 अत: यह स्पष्ट है की छोटे राज्य तभी सफल सिद्ध  होते है जब उनके पास संसाधन हो जैसे गोवा व केरल की दार्शनियता, झारखण्ड के खनिज व फैक्ट्रीयां  व छतीसगढ़ का पर्यटन व फैक्ट्रीयां व कृषि  आन्दोलन से दुबककर कोई फैसला लेने से अच्छा होगा कि औचित्य व स्वायत्ता को पैमाना मानते हुए निर्णय लिए जायं ताकि कोई भी राज्य उसका दंड ना भुगत पाए।



बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

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The Aftermaths of Hanging
                                                                                                - Ankit Jha
Was the hanging of a treacherous so unfortunate that experienced a country-wide criticism? if his master plan didn't include any provision of a last meet with family, why must government have provided him that?

What does a weekend mean to anyone? A lazy morning & then a yawning afternoon but last saturday was not one of those, it witnessed  one of India's most influential verdict (in my view) in 21st century, to tread on the verdict of supreme court of India& the rejection of Mercy plea by President of India. An ice cool saturday turned out to be a Tandoor hot saturday when the treacherous Terrorist, Mastermind of 13/12 Parliament Attack of 2001, was hanged till death & buried in Tihar Jail of Capital. This whole process was performed so calmly & secretly that even didn't emanate to many of the government ministers.
                                      This act of 'Tit for Tat' is becoming so polemical that it seems like not a terrorist but one of a devout or patriot has been hanged. A holy just for the Parliament attack martyrs is turning out to  be opprobrium for government. There are few questions that the government has been left to answer;
The very first one of those is that why did government not inform the family of Afzal Guru for the adieu meet at least?
The secret act of government is being criticised all around. Home Ministry led by Mr. Sushil Kumar Shinde is still silent & delivering only clue taht they posted a letter via Speed Post(Which reached 2 days after the he was stung). Let me ask to those who are raising this question- Was the hanging of a treacherous so unfortunate that experienced a country-wide criticism? if his master plan didn't include any provision of a last meet with family, why must government have provided him that? Is the Human Right of a terrorist more precious than the justice to the martyrs who lost their lives in the security of Sacristy of Indian Democracy? These strayed minded Human Roght Activists must take care of a simple difference between the humans & the monsters.
The very next question is of the timing of hanging, why was Kasab, the only arrested terrorist of 26/11 Mumbai Attack, hanged just before winter session in the month of November & Afzal Guru has been hanged a week few days before the Budget Session scheduled to kick-off in February? Isn't this a politics of hanging? or is this wedges on the wellworns? This question must be left unanswered as it doesn't include any big debate as 2014 shall answer it. 
Third & most crucial question is of the sensitisation of the verdict; 9, the time when Afzal Guru was hanged till death in the Tihar jail(after 24 long years in this jail) of Delhi, & Curfew was called in Kashmir Valley. Many parts including Spore, the paternal place of accused, witnessed some disturbances. This is socially & legally crime to abuse or critique any religion but my question is on the sensitiveness of this issue. The malaise among the groups is unveiling nothing but vie to achieve nothing. That old tedious fight of getting independent from independence. What will a hanging change in the nation? What has gone so wrong that JKLF chief needed to sit adjacent the head of another Terror group? Every question arises many more?
It leaves me with nothing but the fury of aftermath of any act in this unfortunate country. Although not mentally but politically Kashmir is a part ofIndia * will be untill we are not going to leave it.......
Jai Hind...