रविवार, 20 जून 2021

Movie Essay

"शब्द, शब्द के अर्थ, व अर्थ की परतों में छिपी है शेरनी की ताकत"

- अंकित नवआशा


"अगर 10 में से 6 लोग ये मानते हैं कि हत्या टाइगर ने की है तो हत्या टाइगर ने की है, लोगों की भावनाओं से बढ़कर आपके सबूत नहीं हैं"।
फ़िल्म शेरनी में यह संवाद तब आता है जब जंगल में एक शेरनी को ढूंढ़ने की जद्दोजहद है, क्योंकि वह मवेशियों के साथ अब इंसानों को भी मारने लगी है। वन मंडल अधिकारी विद्या विंसेंट व उनके दल कहते हैं कि अंतिम हत्या शेरनी ने नहीं बल्कि भालू ने की है, और जंगल में भालू भी है हम यह फ़िल्म के पहले 10 मिनट में ही देख लेते हैं। लेकिन अधिकांश लोगों को लगता है कि हत्या शेरनी ने की है, जबकि सच है कि हत्या भालू ने की है।
हम आज कल इसी "लगता है" और "सच ये है" की दौर से गुजर रहे हैं। अधिकांश को लगने वाले को ही सच बना कर परोसा जा रहा है ताकि हम दूसरे मामलों में न उलझ कर अपना एक दुश्मन एक लक्ष्य बना कर चलते रहे। फिर नतीजा जो भी हो। आप इस पर कई उदाहरण देख सकते हैं कि लोगों को क्या लगता है और सबूत क्या है में किसी तवज्जो मिली है। शेरनी भी यही है। सबूत है कि यह एक बेहतरीन फ़िल्म है, कहानी-पटकथा-संवाद-पार्श्व संगीत-अभिनय-निर्देशन-छायाचित्र सब कुछ बेहतरीन है लेकिन लोगों को लगता है कि यह फ़िल्म नहीं डॉक्यूमेंट्री है। तो लोग इसे निरा बकवास, उबाऊ डॉक्यूमेंट्री मानेंगे, लेकिन सच यह है कि यह फ़िल्म धीरे-धीरे चढ़ने वाले नशे की तरह है। जब आप पहली बार देखेंगे तो कहानी समझेंगे, दूसरी बार में संवाद और तीसरी बार मे मूल। अब नशे के लिए तीन बार देखना तो बनता है।
निर्देशक हैं अमित मसूरकर। इससे पहले सुलेमानी कीड़ा और न्यूटन बना चुके हैं। दोनों कमाल। न्यूटन कमाल से आगे की श्रेणी में है। न्यूटन व शेरनी में कई चीज़े समान हैं। जंगल, एक सरकारी अधिकारी, जंगल के लोग, चुनाव, सरकारी प्रक्रिया, और कुछ अनुभवी धुरंधर। लेकिन इन्हीं समानताओं में कूट कूट कर असमानताएं भी छिपी हैं जैसे न्यूटन में जंगल में रह रहे लोग अन्य युग के लोग थे, इस बार उनके पास मोबाइल है, कॉलेज जाने के सपने हैं, गाड़ी है और सबसे जरूरी सरकारी अधिकारियों के प्रति आक्रोश है। समान लेकिन असमान। मतलब जंगल में भी कई कहानियां हैं; जंगल में फंसने, भूत व डकैतों के परे। शेरनी जंगल के अंतस में छिपी सबसे जरूरी कहानी है। क्योंकि यह कहानी दो प्रजातियों के द्वंद्व के बारे में हैं। इंसान व जानवर।
इंसान को लगता जंगल उसका। जंगल को लगे जानवर उसके। जानवर को क्या लगे हम कैसे बताएं। यही मामला है पूरा। हम अपने हिस्से का भी सोच लेते हैं और जानवरों के हिस्से का भी। जैसे अमीर लोग गरीब के हिस्से का भी सोच लेते हैं, आदमी लोग औरत के हिस्से का भी और बड़े लोग बच्चो के हिस्से का भी। यह किसी और के हिस्से जा सोचना भी बड़ी दिक्कत वाली बात है, सब दिक्कत यहीं से आती है। मुझे शेरनी अद्भुत फ़िल्म लगी। कुछ लोग यह भी पूछ रहे हैं कि फ़िल्म का नाम शेरनी क्यों है जबकि हिंदी में बाघिन होता है। मेरे ख्याल से शेरनी से आशय भारतीय वन सेवा से निकली वन मंडल अधिकारी विद्या विंसेंट से है। क्योंकि शेरनी जंगल मे शेरों के बीच भी अपना वजूद बना कर रखती है। शेर के लिए भी शिकार वह खुद करती है जैसे फ़िल्म में अपने पति पवन की मंडी की मारी बिजनेस के बावजूद विद्या घर के लिये रोटी कमाती है। "यह मुझे लगता है, सच पता नहीं"।
जरूरी यह भी कि फ़िल्म का इस समय आना बहुत जरूरी था। बक्सवाहा में 2 लाख पेड़ काटने वाले हैं हीरे के लिए, मुम्बई में मैंग्रोव काट रहे कोस्टल रोड के लिए, नियमगिरि तो खत्म कर दी, उत्तराखंड में हिमालय काट रहे चार धाम यात्रा वाले एक्सप्रेस वे के लिए, गोआ में कोयला खदान के लिए पेड़ काटने को तैयार थे, मुम्बई से अहमदाबाद बुलेट ट्रेन में 50000 से अधिक पेड़ काटे जाने हैं और ना जाने कितनी ही जगह शेर, बाघ, हाथी, घड़ियाल, पक्षियों के पर्यावास के जंगल काट कर वहां तीर्थ स्थल, घूमने की जगह, आश्रम, कार्यालय, खदान, कारखाने, व बाँध इत्यादि बना दिये गए। और बदले में सी एस आर का लॉलीपॉप दे कर वहां के कुछ लोगों के लिये स्कूल खोल दिये, उनका संसाधन छीन कर उन्हें स्वयम पर आश्रित कर खाना खिला दिया और शौचालय के दीवार रंग दिए। हो गयी महानता। शेरनी में जंगल के बीच कॉपर के लिए खुदे खदान को देख कर सवाल जरूर पूछियेगा कि अगर शेरनी उस खदान में गिर गयी तो किसकी गलती होगी, रास्ते मे अगर वह किसी मनुष्य से टकराई तो किसकी गलती होगी।
फ़िल्म की तकनीक के बारे में बार बार बात की जा सकती है और अभिनय के तो क्या कहने। विद्या बालन पिछले दो दशक की हिंदी फिल्मों की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री हैं और इसमें कोई किंतु परन्तु की गुंजाइश नहीं। और बाकी कलाकार भी कमाल के हैं। उस पर बड़े बड़े धुरंधर लिख चुके हैं। लेकिन मैं फिल्मों के टेक्स्ट को पढ़ता हूँ, उसके लेखन को। वह भी जो वह कहना चाहती है, वह भी जो कह नहीं रही लेकिन कह दिया गया। 2018 में आई स्त्री के बाद यह दूसरी ऐसी फिल्म है जिसमें एक संवाद के कई मतलब है। सब अपने अपने हिस्से से उसका वर्णन करें। और इसीलिए मुझे फ़िल्म की लेखन जबरदस्त लगी। जब एक संवाद के कई मतलब होते हैं तब लेखक पात्र से अपने हिस्से की बात भी कहलवाता है।
चलिए, इस वाले में इतना ही। आप भी फ़िल्म देखिए। प्राइम पर है। थोड़ा खर्च कीजिये।
और जाते जाते फ़िल्म का यह गीत जरूर सुनियेगा जिसे लिखा है हुसैन हैदरी ने व संगीत है बैंडिश प्रोजेक्ट का। इस गीत के बोल (आप अपना मतलब जरूर निकाले इसका) ये हैं:
खिंची जो रोटी बीच बाज़ार
लड़ी दो बिल्लियां पंजे मार
तो आया बन्दर एक होशियार
वो बोला क्यो लड़ते हो यार
ये झगड़ा मैं सुलझाऊंगा
हल सुझाऊंगा
रोटी बांट करके
उठा तराजू
वो रोटियां बन्दर मज़े से कहा गया
बिल्लियां देखती ही रह गयीं
और वह दिनदहाड़े छल गयीं
बात यह चुटकुला ही बन गयी
कि खा गया रोटी उनकी बन्दर।
ईंट किसी की
माटी किसी की
और किसी का रोड़ा
भानुमति ने नाम से अपने
आकर कुनबा अपना जोड़ा
बंदरबांट का खेला
खेले में हैं झमेले बड़े।
हूक निकल जाए सारी
लेने के फिर देने पड़े,
नींद में होवे हजामत
उठे तो फिर तोते उड़े।
छली गयी बिल्लियां बीच बाज़ार तो
बोली हुआ है अत्याचार
लगाई जंगल मे गुहार
तो सबके अलग अलग उपचार
भेड़ बोले ये तो होत है
भोलेभाले को खा ही जात हैं सब,
भालू बोला कोई बात नहीं,
पेड़ पे चढ़ कर शहद खा लो अब,
सियार ने कथा सुनी और
हुआ हुआ करके ही रह गया
साँप ने फ़न उठाएं और
दोष बिल्लियों के ऊपर ही मढ़ दिया।
बिल्लियां देख के जान गई
बात मान गयी रे
कथा का सार हो न हो
बात तय रही कि
खा गया रोटी उनकी बन्दर
खा गया रोटी उनकी बन्दर।
बातें हवाई बनके बवंडर
धूल जो जग में उड़ावे
सच्ची कथा और झूठी कथा में
फर्क नहीं रह जावे।
बंदरबांट का खेला
खेले में हैं झमेले बड़े।।

बुधवार, 2 जून 2021

व्यंग्य में उमंग

चमगादड़

- अंकित नवआशा
मैंने टीवी में किसी चैनल पर
सिर के बल खड़े चमगादड़ को भी देखा है
बिल्कुल उल्टा।
वह रह रह कर
नई नई तरंगे छोड़ देता है,
उसको देख, उसके ही जैसे
हज़ारों इंसान भी चमगादड़ बने खड़े हैं
सिर के बल, उल्टा।
जैसे चमगादड़ों को दिखता-सुनता नहीं
सिर्फ तरंगे पकड़ते हैं
वैसे ही ये भीड़ सामने हो या
टीवी के इस पार
तरंगों को ही पकड़ती है,
देखने और सुनने की
ज़हमत नहीं उठाती।।