शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

परिवर्तन से परे

ओला-ऊबर नहीं समस्या बहुत विकट है

- अंकित झा 

निर्मला सीतारमण कहती हैं कि ओला, उबर और मेट्रो के उपयोग के बढ़ने के कारण लोग अब कार और उसके ईएमआई वाले मामले में नहीं फंसना चाहते। ये बात ठीक उस दिन आयी जब कोर्ट के आदेश से गुड़गांव के रैपिड मेट्रो का कार्यकाल और बढ़ाया जा रहा है।
क्या ये बात सही है? मेरे ख्याल से बिल्कुल नहीं। भारत के कितने शहरों में ओला-उबर की सेवा उपलब्ध है? 63 और 29 में। कितने में मेट्रो है? 9 में। भारत मे कुल 6 लाख से अधिक ग्रामीण और करीब 4500 शहरी क्षेत्र हैं। फिर क्या इतनी बड़ी जनसँख्या इतने बड़े गिरावट को प्रभावित कर सकती है? पता नहीं।
फिर आते हैं तीन अहम मुद्दे।
पहला गाड़ियों की पार्किंग।
दूसरा सड़क की व्यवस्था।
और तीसरा भारत का औसत परचेसिंग पावर।
पहले पर आते हैं, 2 सितंबर को सर्वोच्च न्यायलय ने एक मामले में कहा कि हमारे देश मे 2 प्रतिशत से भी कम लोगों के पास गाड़ियां हैं। लेकिन उन गाड़ियों को पार्क करने हेतु स्थान का भयंकर अभाव है। आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में प्रति 150 वर्ग मीटर के प्लाट पर 8 गाड़ियां हैं। फिर सवाल ये कि लोग रहे कहां और गाड़ी पार्क कहाँ करें। उस आदेश की समीक्षा में ये भी कहा गया है कि दिल्ली में पार्किंग क्षमता से 130 गुना अधिक गाड़ियां हैं। और ये बात सिर्फ दिल्ली की है, दिल्ली की तरह भारत मे 9 और बड़े शहर हैं और उसके अलावा कितने ही अन्य शहर। यदि गाड़ी खड़ी करने की जगह नहीं होगी तो गाड़ी खरीद के उसे कहां पार्क करेंगे? जहां ओला उबेर वाले पार्क करते हैं? और कहीं भी पार्किंग शहरी आधारभूत संरचना के सबसे आवश्यक संरचनाओं में तो है नहीं कि वो चाहिए ही। हर बार सरकार केवल अमीरों के लिए जमीन क्यों उपलब्ध करवाए? पार्किंग का उपलब्ध ना होना भी एक कारण हो सकता है।
दूसरा है सड़कों की पर्याप्तता। 2018 के नवम्बर में भारत के 154 शहरों में किये गए एक शोध के अनुसार भारतीय सड़कों की औसत रफ्तार 24 किमी प्रति घण्टा है जो कि पीक ऑवर में घट के 10 के आस पास रह जाता है। जब सड़कों पर रेंगना ही है तो गाड़ियां होने से क्या फायदा? सड़क से अधिक क्षमता की गाड़ियां आ गयी हैं। जितने हम तैयार हैं उससे बहुत ज्यादा। हो सकता है युवा आबादी दौड़ना चाहती हो, उड़ना चाहती हो, गिरना चाहती हो, फिर उठना चाहती हो, लेकिन ट्रैफिक अर रुकना और रेंगना नहीं चाहती है।
अब है तीसरा, भारतीय नागरिकों की औसत परचेसिंग पावर। इसे परचेसिंग पावर पैरिटी से कंफ्यूज ना किया जाए। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि इस समय एक औसत भारतीय की क्या इतनी कमाई है कि वह गाड़ी खरीद सके?
उससे भी जरूरी है समझना गाड़ी खरीदने की आवश्यकता।
हमें गाड़ियां क्यों खरीदनी है? ताकि हम शान से अपनी निजता का जश्न मनाएं, या मौसम की मार से बचने के लिए, या अपनी खुशियों की चाभी घर लाने के लिए, या इसलिए कि सिर्फ अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ानी है। हमने हमारे देश में कभी भी सार्वजनिक वाहनों का सम्मान नहीं किया। हम सब निजता पसंद लोग हैं और दिखावटी भी। ई एम आई भर के गाड़ी खरीदना लोग नहीं चाहते क्योंकि नौकरी को लेकर वो असमंजस में हैं।
ख़ैर, कुछ भी लिख दें, क्या ही फायदा। राम जी का नाम लीजिये, गाय को रोटी खिलाइये, मोदी जी सब ठीक कर देंगे।

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

मित्र के नाम

युद्ध और शांति 

- अंकित झा  


युद्ध और शांति,
दोनों के मध्य छिपा होता है
एक वर्ग।
एक वर्ग जो नहीं चाहता
इनमें से एक।
कई बार एक ही झेलते हैं
दोनों अपने अंदर
युद्ध और शांति।
युद्ध स्वयं से कि इस में हम कहां खड़े हैं
शांति कि अंदर यह युद्ध चल रहा है।
मित्र तुम्हारी इस लड़ाई के साथ
मैं रोज़ यह झेलता हूँ
युद्ध और शांति अपने अंदर।
तुम चाहो तो हमे युद्ध की बधाई दो,
हम शांति के लिए लड़ते रहेंगे
एक पिता के लिए कि वो वापस
आये अपने छोटी सी क्रांति मशाल के पास
एक भाई के लिए जो
अपनी 'प्रिय' को फिर से पढ़े।
एक जीवनसाथी के लिए जो
हाथ थामे अपनी सताक्षी का
और दोनों एक दूसरे को देख कर
कुछ यूं मुस्कुराये कि
युद्ध शर्म से शांति के सामने घुटने टेक दे।।