सोमवार, 17 जुलाई 2017

Articless

ये दौर वर्ग संघर्षों का है: परस्पर मध्य (भाग 1)
अंकित झा 

बेशर्मी क्या है? बेशर्मी है समाज के परिभाषाओं में दो वर्गों की संरचना और एक कमतर कमज़ोर वर्ग के विरोध पर अट्टहास लगाना। कल हुए IIFA अवार्ड समारोह में फ़िल्म इंडस्ट्री के तीन प्रतिष्ठित परिवारों से जुड़े मर्दों का एक अभिनेत्री के महीनों पुराने दिए गये उचित बयान पर तंज कसना और उसका उपहास करना दिखाता है कि वर्ग संघर्ष अब उच्च वर्गों को चुभने लगा है। निम्न वर्गों का आरोहण अब खटकने लगा है जैसे उच्च जाति के लोगों को नित्य आरक्षण चुभता है, सार्वजनिक परिवहन में स्त्रियों के लिए आरक्षित सीट खटकता है। ये समाज के विघटन के लिए अच्छा समय है। वर्षों से बने मिथकों के टूटने का ये अच्छा समय है। एक वर्ग का दूसरे वर्ग के प्रति विरोध और प्रभावशाली वर्ग का चिढ़ना ये दिखाता है कि चोट पहुँचना शुरू हो चुका है। 
दरअसल, कुछ समय पहले दो बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित फ़िल्म अभिनेत्री कंगना रनाउत ने फ़िल्म इंडस्ट्री ने भाई-भतीजावाद तथा परिवारवाद की बात की थी और शो कॉफ़ी विथ करन के होस्ट फ़िल्म निर्देशक और निर्माता करन जौहर कोपरिवारवाद के अग्रगणीतक कह दिया था। इसके बाद से ही बॉलीवुड में परिवाद के मुद्दे पर बहस ज़ोर पकड़ चुकी थी। यह एक सत्य भी है कि कैसे फ़िल्म सितारों के बच्चों को आसानी से फ़िल्म मिल जाते हैं वहीं कुछ मेहनती और प्रभावशाली अभिनेता/अभिनेत्री को एक फ़िल्म मिलने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। कई बार तो फ़िल्म मिलने के 5 साल पहले से ही उस अमूल पुत्र का प्रचार प्रसार शुरू हो जाता है, जैसा कि आज कल सैफ़ अली खान की बेटी को लेकर हो रहा है या शाहरुख़ खान के पुत्र को लेकर हो रहा है। बेशक अख़बारों को ये सितारे अच्छा ख़ासा पैसा चुकाते हैं अपने बच्चों की ख़बर के लिए वरना किसी आम भारतीय को इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि अमिताभ बच्चन की नातिन किन कपड़ों में किस अभिनेता के बेटे के साथ देखी गयीं। ये सब वर्ग संघर्ष का अहम हिस्सा है और ये चलता जाता है। 
मीडिया इसमें अहम किरदार निभाती है। ये मीडिया द्वारा बनायी गयी तस्वीर है कि फ़िल्मों में यदि किसी नेपाली सिक्यरिटी गार्ड की बात होती है तो उसका नाम बहादुर होगा, और वो दौर जब हर टीवी धारावाहिक के परिवार में एक रामू काका ज़रूर हुआ करते थे जो बच्चों को ख़ूब प्रिय हुआ करते थे। उस परिवार के एक हिस्से की तरह उन्हें सम्मान भी मिलता था। लेकिन बीते कुछ वर्षों में ये चित्रण बदला है और अब ये संघर्ष और भी क्रूर हो गया है। और इसका एक बड़ा कारण है घर में काम करने वाले लोगों का संगठित हो अपने अधिकारों के लिए लड़ना। सन 2008 से लेकर 2016 तक 3-4 क़ानून के मसौदे बन चुके हैं जिसमें से कटक के सांसद भारतूहरि महताब द्वारा लोकसभा में पेश किया गया बिल महत्वपूर्ण है। 

पिछले सप्ताह नॉएडा के रहवासी अपार्टमेंटमहागुणमें  घर में काम करने वाले प्रवासी वर्ग द्वारा किया गया विद्रोह यह दर्शाता है कि वर्ग संघर्ष अब अधिक दूर नहीं है। हर ज़ोर ज़ुल्म के टक्कर को अब कमज़ोर वर्ग अपने संघर्ष से झुकाने को तत्पर है। यहाँ पिछले 10 दिनों के भीतर उठे दो वर्ग संघर्ष महत्वपूर्ण है। एक घटना में बिना जाँच के कुछ भी कहना मुश्किल है कि क्या ज़ोहरा बीबी को ज़बरदस्ती घर में क़ैद कर के रखा गया था या उसे चोरी के कारण पीटा गया था। और दूसरी घटना जहाँ कुछ भी कहना बेकार है क्योंकि जिस तरह पूँजी और पूँजीवाद कला की आधारशिला पर बसे सिनमा में घुसा है और उसे अपने गिरफ़्त में किया है। बॉलीवुड अब उससे शायद ही उबर पाए। और इस पूँजीवाद ने जो जन्मा है वो है परिवारवाद। फ़िल्म इंडस्ट्री हमेशा से इससे पीड़ित रहा है, फिर वो कपूर का दबदबा हो या फिर 80 और 90 के दशक में एक एक कर परिवारवाद के अंडों से निकलते सितारे और अब उन सितारों की अगली पीढ़ी। हर दौर में बेहतरीन अदाकार मौक़े के लिए तरसते रहे और आज भी वो बेहतरीन कलाकार इन सितारों के बाज़ू में चरित्र भूमिकाए निभाते हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में ये परिवारवाद ही प्रबल नहीं है बल्कि सौंदर्य और मर्दानिगी की भी परिभाषा को बढ़ावा दिया जा रहा है। सुंदर अभिनेत्रियाँ फिर उनके पास अभिनय की विधा हो या ना हो, बड़े शरीर वाला अभिनेता फिर अभिनय के नाम पर शून्य क्यों ना हो। यह अजीब बात है कि मीडिया यह इतनी बार दिखाता है कि मानवीय विचार इन चीज़ों के प्रति ख़ुद को समर्पित कर चुका है। और यहाँ से सत्य और इस भ्रम का वर्ग संघर्ष ज़ोर पकड़ता है। 

बुधवार, 7 जून 2017

Parivartan se Pare

मीडिया पर नियंत्रण की साज़िशें अब क्यों चौंकाती नहीं है!
- अंकित झा

 आप जश्न मनाए देश का। सरकार प्रगति देख रही है। आप ग़म मनाए सैनिकों के मृत्यु का सरकार मामला देख रही है ना। आप क्रोधित हो उस बेवक़ूफ़ छात्र पर जो आदिवासियों के पक्ष की बात कर रहा हैसरकार देशभक्ति तय कर रही है ना। आप जिएँ लेकिन वैसे जैसे सरकार चाहती हैआप जाएँ तो मंदिर की ओर एक बार झुके ज़रूर। क्योंक्योंकि सरकार चाहती है। मान ले कि देश का अपना कौन है और पराया कौन।

सत्य। जनता। ख़बर। साहस। विश्वास। ये सब ऐसे शब्द हैं जो मीडिया हमें अपने नाम से परोसना चाहती है। मीडिया वाले भूल जाते हैं राष्ट्र मीडिया और सत्य से नहीं अपितु सरकार से बनती है। जो सरकार चाहे वही राष्ट्र है। फिर वो भारत हो या अखंड भारत या फिर हिन्दू राष्ट्र। हर साम्राज्य में चाटुकारों की एक पूरी जमात होती है और ये चाटुकार अपने आका के बारे में असत्य को यथार्थ बना कर परोसते रहते हैं। आज मीडिया वही चाटुकार है। ऐसे में असग़र वजाहत की वो लघुकथापहचानयाद आती है। यहाँ राजा हुक्म देता है कि सब अपनी आँख बंद करवा लें ताकीं उन्हें शांति मिले, काम अच्छे से होने लगा। फिर हुक्म आया कि कान में पिघला सीसा डलवा लें, और उत्पादन आश्चर्यजनक तरीक़े से बढ़ गया। तीसरा हुक्म आया कि  लोग अपने होंठ सिलवा लाइन क्योंकि बोलना उत्पादन के लिए आवश्यक नहीं। ऐसे ही कई तरह की चीज़ें जुड़वाने और कटवाने के हुक्म मिलते रहे और राज प्रतिदिन प्रगति करता रहा। एक दिन खैराती, रामू और चिद्धु ने आँखें खोल के प्रगति को देखना चाहा तो सिर्फ़ सामने राजा दिखायी दिया। ये कहानी हम सब की है। जिस जिस ने आँखें बंद कर रखी है उनके लिए समाज में शांति हैं, जिनके कान कुछ सुनने को तैयार नहीं उनके लिए देश में उत्पादन बढ़ रहा है, जो कुछ बोलते नहीं उनके लिए प्रगति ही प्रगति है। जो किसी ने इससे इंकार किया तो सामने राजा है। वो राजा जिसे वोट देकर हमने सेवक बनाया था। ऐसे ही तो मुखौल उड़ता है। हमने ये ख़ुद चुना है, पिछली वाली भ्रष्ट थी, ये वाली दुष्ट है। उसके ख़िलाफ़ मीडिया ख़ूब बोलती थी, लेकिन सहानुभूति रखती थी। इस वाली के ख़िलाफ़ मीडिया बोलना तो दूर क़सीदे गढ़ती है तारीफ़ में। यहाँ पर विभाजन स्पष्ट है। या तो आप पक्ष में या विपक्ष में। यहाँ कोई निष्पक्ष नहीं है। दुःख की बात ये है कि सरकार के पक्ष में मीडिया की संख्या इतनी है कि विपक्ष नज़र ही नहीं आता। यहाँ पर एक विभाजन भी है या तो आप सरकार के हितैषी हैं या फिर देशद्रोही। देशद्रोह तो जैसे आरोप ना हुआ ज़ुखाम हो गया, हर महीने मौसम बदलने पर एक बार को लग ही जाता है। ऐसे हालात में किसी मीडिया हाउस के मालिक के यहाँ सीबीआई का छापा तो क्या परमाणु बम विस्फोट भी मुझे चौकाएगा नहीं। यह एक सत्य है कि जिनके पास कुछ नहीं, उन्हें भी अपने पास से कुछ भी चले जाने का डर सताता रहता है। इस सरकार के पास हथकंडे है, इसी को लेकर उगेगी और इसी को लेकर डूबेगी। आप जश्न मनाए देश का। सरकार प्रगति देख रही है। आप ग़म मनाए सैनिकों के मृत्यु का सरकार मामला देख रही है ना। आप क्रोधित हो उस बेवक़ूफ़ छात्र पर जो आदिवासियों के पक्ष की बात कर रहा है, सरकार देशभक्ति तय कर रही है ना। आप जिएँ लेकिन वैसे जैसे सरकार चाहती है, आप जाएँ तो मंदिर की ओर एक बार झुके ज़रूर। क्यों? क्योंकि सरकार चाहती है। मान ले कि देश का अपना कौन है और पराया कौन। 
ज़्यादा फ़ैक्चूअल बातें नहीं करनी चाहिए इस सरकार के बारे में। जो सरकार ही रेटरिक पे बनी हो, जो सरकार चल रेटरिक पे रही हो। उसे फ़ैक्ट कभी पसंद नहीं आएँगे और ना ही उस सरकार के चाहने वालों को। उन्हें कहाँ तुम ऐंडर्सॉन कीनेशन ऐन इमैजिंड कम्यूनिटीसमझाते फिरोगे। कहाँ तुम उन्हें यह साबित करने का प्रयास भी कर पाओगे कि बस्तर में मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है कि कश्मीर में पत्थर के अलावा भी बहुत मुद्दे हैं जैसे डिसपीरन्स आदि। नहीं उन्हें कुछ समझ में नहीं आएगा। उनहिन ये पता है कि फ़लाँ ट्रस्ट ने भारत को ये रैंकिंग दिया है और इसने ये कहा गुजरात के लल्ला के लिए। बस गदगद होके घूमेंगे। कहाँ तुम उन्हें बताओगे कि तुम सेक्युलर नहीं अथीस्ट हो। कहाँ तुम उन्हें ये समझाओगे कि तुम कोंग्रेस से नहीं कॉम्युनिस्ट हो। ना। तुम सिकुलर हो। उनके लिए जो मोदी का नहीं वो देश का नहीं। अब उन्हें क्या बताओगे कि तुम देश में ही नहीं मानते। ये भीषण बातें हैं जो ना सेना वाली मीडिया को समझ में आएगा और ना ही गदगद देशवासियों को। जिनके लिए गाय माता है, उन्हें तुम तर्क क्या दे सकते हो। वो बहुत कुछ कर सकते हैं तुम्हारे साथ। जैसे कि देहरादून, आगरा, इंदौर के लोकल नेट्वर्क वाले NDTV हटा सकते हैं। हाँ, घर में घुस कर ये बता सकते हो कि लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते। 

ये रविश कुमार क्या समझते हैं कि देश की समस्या बतायेंगे और देश में जागरुकता ले आएँगे। लोग सजग हो जाएँगे? समाज जाग उठेगा? पत्रकारिता धन्य हो जाएगी। नहीं। ऐसा नहीं होगा। इस देश का एक हिस्सा अभी से 2024 के चुनाव की तैयारी कर रहा है। 2019 में उन्हें जीत तय लग रही है। फिर ये चैनल क्या प्रयास कर रहा है? इतनी गर्मजोशी से क्या बहस करवा रहा है। समाज को मत बदलो सरकार के हिसाब से स्वयं को बदलो। फिर काशीनाथ कहेगा, सरकार के हिसाब से वो बदलते हैं जिनकी हड्डियों में पानी भरा होता है। तुम चाहते हो कि जब तुम कहो मैं भौंकू, जब तुम कहो काटूँ। ये ना चोल्बे। इस सरकार की सबसे बड़ी ताक़त है इसका कमज़ोर विपक्ष। स्वयं में उलझा और स्वयं से हारा। सोल अलिन्सकी ने अपनी किताबरूल्ज़ फ़ोर रैडिकल्ज़में जो 13 नियम दिए हैं उनमें से एक अपने प्रतिद्वंदी का उपहास उडवा दो। लल्ला ने यही किया है अपने विपक्ष का जम कर उपहास उड़ाया है। इतना कि अब वो एक नेता से हटकर मज़ाक़ बनकर रह गये हैं। हम उथले हो गये हैं। गहराई को नापसंद करने लगे हैं और शायद इसीलिए ये सरकार हमसे जीत रही है। हर बार जीतेगी भी। क्योंकि युवाओं को विचारधारा से अधिक विचार पसंद आने लगे हैं। लोगों ने बात करना बंद कर दिया है, सोचना तो कब का भूल ही गए थे। और फिर जब ऐसे में किसी मीडिया पर प्रशासनिक कार्रवाई होगी तो हम आश्चर्यचकित क्यों होंगे? ये तो होता आया है। और होता ही रहेगा।