गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

एक हिस्सा मेरे समर्थन का भी ले लो..


एक हिस्सा मेरे समर्थन का भी ले लो..
-         अंकित झा

यह द्वंद्व राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रद्रोह का नहीं है. यह द्वंद्व है देश में बढ़ रहे राष्ट्रवादी फासीवाद का है. जिसकी जड़ छुपी है बंगाल तथा केरल के आने वाले चुनावों में और दूसरी शाखा लटक रही है डब्लूटीओ के पूंजीवादी पालने में.

सब कुछ इतनी रफ़्तार से घट रहा है कि विश्वास नहीं हो पा रहा है कि देश के सबसे प्रगतिशील संस्थानों में से एक को बंद करने की मांग उठ रही है, और वो कर कौन रहा है दिल्ली से दूर भोपाल, पटना, पुणे में बैठे लोग. क्यों भला? क्या आज समाज इतना असहिष्णु हो गया है कि सत्य से परिचय तो दूर सत्य तक जानना नहीं चाहता. क्या यह सत्य नहीं है कि इस देश में विचारधाराओं का महासमर चल रहा है, और अलग अलग मुद्दों पर एक दूसरे को पटखनी देने की तैयारी चलती रहती है. कौन सा ऐसा मुद्दा इस संस्था में उठाया गया जो समाज के लिए जानना आवश्यक नहीं था, अपनी चुप्पी में समाज कौन सा सत्य छुपाने का प्रयास कर रहा है?
Source: thehindu.com 

9 फरवरी को जो कुछ भी हुआ वह दुखद था, नहीं होना चाहिए था. कदापि नहीं, किसी भी हालत में नहीं. किसी भी देश में देशप्रेम से बड़ा कोई विचार नहीं होता, और राष्ट्रहानि से संकीर्ण कोई विचारधारा नहीं. परन्तु उस कार्यक्रम का सत्य जानना आवश्यक है. वो नारे जो लगाए गये किसने लगाए? कैसे लगाए? छात्रसंघ का अध्यक्ष कन्हैया कुमार क्यों गिरफ्तार हुआ? लोगों को लग रहा है उसी ने नारे लगाए. सत्य तो यह है कि उसे गिरफ्तार एक दिन बाद दी गयी उसके भाषण के कारण किया गया है. राष्ट्रदोह का मुकदमा लगा कर. यह समझ के परे है कि सरकारी तंत्र पर प्रहार राष्ट्र पर प्रहार कैसे हो गया? मंत्री से प्रश्न करना राष्ट्र का अपमान कैसे हो गया? एक क्रांतिकारी विचार आतंकी विचार में क्यों बदल दी गयी? एक पुरानी कहावत है कि ‘एक विचार का क्रांतिकारी, दूसरे विचार का आतंकवादी होता है’. दिल्ली से दूर बैठे सभी देशप्रेम की ऐसी ऐसी मिसालें दे रहे हैं कि इस देश में देशप्रेम की धारा इतनी प्रबल है कि सामजिक समस्याओं को तो जगह मिल ही नहीं सकती है. सब झूठ है, एक परदे के पीछे भयानक सा चेहरा लिए छुपा झूठ. सत्य तो यह है कि हम प्रगति से डरते हैं, डरते हैं अपने विचार को झुकते हुए देखने से. यह हमें कतई बर्दाश्त नहीं कि हमारे झूठे शान को कोई चुनौती दे, किसी शिक्षा संस्थान को मंदिर बुलाकर उसे धार्मिक असभ्यता का प्रतीक बना देना कहाँ की प्रगति है? जो मनुष्य शिक्षा को धर्म से नहीं हटा पा रहा है वो क्या प्रगति
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लायेंगे विचारों 
में. परन्तु 9 फरवरी की घटना इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वर्षों पुरानी रंजिश का प्रतिशोध लेने का समय है यह. प्रतिशोध देश में व्याप्त साम्यवादी विचार के विरुद्ध जो अपनी सशक्त पहचान रखता है विश्वविद्यालय में. मान लीजिये देश में वामपंथी सरकार आ गयी और सरस्वती शिशु मंदिर नामक विद्यालय में यदि जय जय माधव जय जय केशव के नारे गूंजते सुनाई दिए तो क्या होगा? या फिर नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे की ध्वनि गूंजी तो क्या होगा? वही हो रहा है जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के साथ. सरस्वती शिशु मंदिर और जेएनयु का अंतर इस मामले को समझने में आसानी दे सकता है. ये दो शिक्षा के वो दो पहलु हैं जो समाज को दो अलग अलग विचार प्रदत्त करते हैं, एक प्रगतिशील है तो दूसरा अनुदारपंथी विचारधारा. दोनों ही एक दुसरे के विपरीत विचारों में कार्य करते हैं. एक जगह विद्या का मंदिर है तो दूसरी वो जगह जहाँ अंतर समझाया जाता है मंदिर तथा संस्थान में. और जो आवश्यक भी है. बात शिक्षा के मंदिर तथा मस्जिद बनाने का नहीं है, डर है कि मंदिर तथा मस्जिद में फैली चिंता कहीं शिक्षा को भी इसी भाँती ना ले डूबे जैसे इन्होने समाज को सताया है. देश में पनप रहे राष्ट्रवाद के लहर से अधिक भयावह है हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद. किस आधार पर देश में वामपंथ का हिंसा के आधार पर आलोचना कर रहे हैं?
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यह मुद्दा सिर्फ देश में इन दिनों चल रहे देशप्रेम या देशद्रोह का ही नहीं है, यह मुद्दा उससे कई अधिक संगीन है. यह एक साज़िश की तरह हो रहा है, आज कैसे सभी करदाता अपने पैसों का हिसाब करने एक शिक्षण संस्थान में आ गये, अच्छी बात है यह समाज की जागरूकता को दिखाता है. परन्तु पिछले 70 वर्षों के स्वतंत्र भारत में उन्हीं करदाताओं ने उन्हीं के पैसों से अपनी दरमाहा पा रहे विधायकों, सांसदों, गैर-सरकारी सगठन तथा विभिन्न वैधानिक तथा सरकारी विभागों में कार्य कर रहे लगभग अकर्मण्य लोगों से हिसाब लेने का क्यों नहीं सोंचा? और ना आज सोंचते हैं. विश्वविद्यालय में लगे नारे संकीर्ण मानसिकता के द्योतक थे परन्तु यह जानना बहुत आवश्यक है कि उन नारों के पूर्व तथा उन नारों के पश्चात क्या हुआ? क्यों संस्था के छात्रसंघ के प्रतिनिधि को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया, किस बुनियाद पर पत्रकारों पर अदालत परिसर में हाथ उठाया गया, पत्रकारों ने किस कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए अपना शक्तिप्रदर्शन अपने ही चैनल पे किया? ये सभी प्रश्न करना अनिवार्य है. जेएनयु का दर्द सिर्फ वो संस्था ही समझ सकता है या वहाँ पढ़ रहे प्रगतिवादी छात्र. वो क्या समझेंगे जो अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण मांस के टुकड़े के लिए किसी के शरीर के दो टुकड़े कर दें. खैर यह द्वंद्व राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रद्रोह का नहीं है. यह द्वंद्व है देश में बढ़ रहे राष्ट्रवादी फासीवाद का है. जिसकी जड़ छुपी है बंगाल तथा केरल के आने वाले चुनावों में और दूसरी शाखा लटक रही है डब्लूटीओ के पूंजीवादी पालने में. देश में शिक्षा के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम साफतौर पर राष्ट्र में पल रहे ओजस्वी विचारों को निगलना चाहेंगे. फिर लिंगवादी टिप्पणियां करने वाले जनप्रतिनिधि के चप्पल तले रौंदे भी गये तो शर्म कैसी? अपने अन्दर के राष्ट्रवाद को बचा के रखें, किसी उचित समय के लिए. राष्ट्रवाद किसी सरकार या किसी पार्टी या किसी संस्था की बपौती नहीं है. सरकार किसी पार्टी की नहीं है, सरकार लोगों की है और लोगों को उत्तरदायी है, फिर ये पार्टी बीच में कूदने वाली कौन होती है, किस हक से भाजपा के प्रवक्ता सरकार की बात बोल रहे हैं? सरकार को अपनी बात अपने माध्यम से रखना चाहिए, यह असमंजस फैलाया है इन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वालों ने. भाजपा और कांग्रेस का प्रवक्ता कभी सरकार का प्रवक्ता नहीं हो सकता है, सरकार के पास अपने माध्यम है अपनी बात रखने का और उन्हीं माध्यमों से उए वह बात रखनी चाहिए जो नहीं रखी जा रही है. अब प्रश्न यह उठता है कि इस खोखले राष्ट्रवाद से उपजी असमंजस को कैसे ठीक किया जाए जो ख्याति जेएनयू ने गंवाई है उसकी भरपाई कैसे की जाएगी? कौन करेगा? किसी वकील के अदालत में हिंसक हो अदालत की लुटी साख की भरपाई कैसे हो? आवश्यक यह है कि देश का युवक जो दिल्ली से दूर बैठे अमरावती, भोपाल, जालन्धर और पटना में बैठे विचार बना रहा है वो दुखद भी है और चिंताजनक भी. जब तक हर मन में यह बात नहीं आएगी कि राष्ट्र के लिए मरना ही राष्ट्रवाद नहीं है, राष्ट्र के लिए मारना ही राष्ट्रवाद नहीं है, राष्ट्ररक्षा के लिए तत्पर रहना ही राष्ट्रवाद नहीं है, सही मायने में तो राष्ट्रवाद अपने आप में ही एक ऐसी अवधारणा है जो किसी को भी स्पष्ट नहीं है, सबसे प्रबल भावना होनी चाहिए राष्ट्रप्रेम. राष्ट्रवाद नहीं. जेएनयु गद्दारों तथा देशद्रोहियों की खदान नहीं है. यह खदान है प्रगतिशील विचारों की. जहां पनपते हैं स्वतंत्र विचार, वो प्रश्न जो कि पूछे जाने चाहिए. सदा ही एक युवा के द्वारा. परन्तु छुपा दिए जाते हैं समाज की ख्याति छुपाने के लिए. “किसी और से आ रही है बहार की खुशबू, आज छुपाने पड़ सकते हैं आस पास के गंध सभी.” 
हो सकता है इस आलेख में कोई तथ्य ना हो, ही सकता है इसमें कोई उद्देश्य ना छिपा हो, हो सकता है इसमें कोई विशेष बातें ना की गयी हों, परन्तु यह मेरा प्रयास है एक संस्था की स्वायत्ता बचाने हेतु अपने विचार रखने का, यह एक प्रारंभ है, अभी और विचार आयेंगे, कुछ तीखे भी हो सकते हैं, जिस तरह कमजोर पड़े वामपंथ को पुनः जीवित किया गया है उसी तरह एक छात्र के अन्दर सोये युवा को जगाना आवश्यक है, सभी विचारों तथा विचारधाराओं के परे. 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

कविता


अंतिम कविता
-          अंकित झा

इससे पहले कि हम सदा के
लिए अलग हों,
तुम्हें सुनाना चाहता था कुछ पंक्तियाँ
तुम्हारे लिए लिखी गयी आखिरी कविता से.
जिस कविता में रख छोड़े हैं मैंने
अपने सभी प्रश्न,
तुम्हारी गरिमा की रक्षा करते हुए,
वो प्रश्न जो तुमसे पूछे जाने थे
दूर जाने की वजह समेटे.
दूर क्या और क्या पास,
कुछ ऐसी गयी हो कि
हमेशा तुम्हें अपने पास ही पाते हैं.
ऐसा भी क्या जाना.
इस कविता में मैंने ऐसे भी कई प्रश्न किये हैं.
तुम ज़िद्दी बहुत हो,
मुझे कभी दुःख नहीं दे सकती,
अतः मैं विदा लेता हूँ,
अपने सभी प्रश्नों के साथ,
और साथ में लिए वो कविता,
जिसमें बार-बार मैंने तुम्हारी सुन्दरता
को नए उपमान दिए हैं.
मेरे लिए वो कविता एक प्यास है,
और तुम पानी की समझ.
ये वही कविता है जिसे लिखने से पूर्व,
गिरे थे मेरे आंसू तुम्हारी हथेली पर,
और तुमने अंतिम बार,
छुआ था मुझे, पोंछने को मेरे आंसू.
उस छुअन के हर एहसास को समेटा है,
मैंने उस कविता में,
तुम्हारे डर को भी अंकित किया है,
और समेटना चाहा है हमारे अधूरे सपनों को,
वो सपने जो तुम्हारे या मेरे नहीं थे.
अब विदा लेने का समय है,
तुमसे और तुम्हारी यादों से,
ये कविता अवश्य पढ़ना,
और खुश रहना, जिसकी तुम्हें आदत है.
हम यूँ ही प्रतीक्षा करेंगे,
किसी एक के टूटने का,
यदि तुम्हारे अभिमान की ही बात हो जाए
तो हमें एक बार बता देना,
हम ही क्षमा मांगते हैं...