बुधवार, 20 जनवरी 2016

कविता


वो कमरा याद है साथी!!
- अंकित झा 

वो कमरा याद है साथी,
जिसकी दीवारों पर आज भी हमारे
हुकूमत के किस्से बिखरे हुए हैं.
उन स्याही से जिससे हमने
लिखना चाहा था तकदीर,
इन बदलते मौसमों के बीच
बदलते दुनिया की.
वो सर्द रातें याद हैं साथी,
जब सड़कों पर दहशतगर्दी के बीच,
हम सहमे से निकल जाया करते थे,
किसी खोज पर, ढूँढने वो सत्य,
जिससे आज भी अनभिज्ञ है समाज.
या फिर याद है वो दरवाज़ा,
जिससे प्रवेश करती थी रौशनी,
हमारे उस संसार में.
रात के आखिरी हिस्से में
रौशनी की प्रतीक्षा में
हमारी आँखों का
कौतूहल अभिसार याद है साथी.
याद तो होगा ही वो आईना,
जिसमें हर सुबह हम दुनिया का,
भविष्य देखा करते थे,
कंघी को अपने बाल में घुमाते हुए,
याद होगी वो गली,
जिसके खुरदुरे रास्तों पर हमने
थूक दी थी दुनिया की रस्में.
और याद होगा वो मंदिर,
जिससे तीन घर पहले रहती थी वो,
जिसके दीदार में हम अक्सर
भगवान् को देख आया करते थे.
जो कुछ नहीं तो वो सड़क ही याद कर लो,
जिसपर चलते हुए हमने
क्या क्या ख्वाब देखे थे,
याद तो होगा ही वो ख्वाब,
रात के आखिरी हिस्से के बाद
सूरज की लालिमा को छूने  की.
या भूल गये हो ख्वाब देखना,
भूल गये वो पाश की पंक्तियाँ
या याद नहीं आती, हमारा वो कमरा
जो आज भी बैठा है क्रांति की प्रतीक्षा में.
चलो ना लिखते हैं क्रान्ति की एक कहानी इस बार
उसी स्याही से, सहमे हुए उन रास्तों पर,
सर्द रातों में, स्वयं का मुखौल उड़ाते हुए,
थूक देंगे फिर से दुनिया की रस्में फिर से,
और देख आयेंगे भगवान् को किसी बहाने से,
चलो न साथी, फिर देखते हैं एक ख्वाब,
उसी गली के मोड़ पे, और तोड़ते हैं
कुछ पत्तियां घर के सामने लगे पीपल से,
जिसके पीछे हमने अपने
 ख्वाब को नाम दिया था. ...

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

कविता


संघर्ष के किस्से
          -    अंकित झा 
सुना है सुनाये जाते हैं,
हमारे संघर्ष के किस्से आने वाली पीढ़ियों को,
उन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर,
जिनपे बैठकर कभी हम सोंचते थे संसार
बदलने के बारे में.
उसी अंदाज़ में जिसमें हम ठहाके
लगाते थे शान से.
हाथ में थामे चाय का कप,
और हम पर पड़ती मद्धम किरणें,
उस रौशनी में चाय के रंग के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
सुनाये जाते हैं हमारी जीत के
वो क्षण जब हम नहीं डिगे थे
किसी अभिमान से.
हमारा सब के लिए उपस्थित रहना
और सब के लिए हमारे यश गान के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
हमारी जिद्द की दास्ताँ जो छुपी थी,
हमारे बीच कहीं,
वो कही जाती है गर्व से किसी
घोषणापत्र की तरह,
जिसपर खौल उठते हैं नये खून
हमारे उन्हीं संवादों के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
वो गलियाँ भी दोहराती रहती हैं,
हमारे सपनों के इबारतों को,
जिन गलियों पर चलकर हम
नाप लिया करते थे विश्वास के तीनों लोक.
उन लोकों पर हमारी फतह के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
जो छंद हमारे नारों से निकले थे,
आज उन्हें क्रांति गीत बनाकर
कुछ मतवाले बदलना चाहते हैं
समाज की तस्वीर,
उस तस्वीर को बनाने में किये
हमारे संघर्ष के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं.  
नए खून हमारे हस्ताक्षर को पूजते हैं,
किसी आयत की तरह,
और हमारे गीतों को गाते हैं,
किसी गुरबानी की तरह,
उस गुरबानी में छिपी हमारे प्रश्नों को
आज भी पूछे जाते हैं.
रात के आखिरी हिस्से की ओर,
अपने माँ की तस्वीर बगल में दबाये,
आँखों में परिवर्तन की चाह लिए,

हमारे सफ़र के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं.