रविवार, 14 सितंबर 2014

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यह बाढ़ मात्र तो नहीं है
-         अंकित झा

   मनुष्य का मनुष्य के प्रति यह संवेदना जब खो जाता है तो ऐसी आपदाएं उन्हें स्मरण करवाती हैं कि समष्टि के लिए बलिदानी देना ही व्यष्टि का कर्तव्य है. समाज, संस्कृति के प्रति समर्पण का नाम है, ऐसी आपदाएं किसी परीक्षा की तरह होते हैं. अपनी ख़ूबसूरती के लिए प्रख्यात श्रीनगर अपनी बदसूरती पर आंसू बहाने को विवश है.

निसंदेह यह एक बड़ी त्रासदी है, हाँ, उत्तरखंड भयावह था. जब प्रकृति उन्मादी हो जाती है, तो यही सब कुछ करती है. बीते वर्ष उत्तराखण्ड में तथा इस वर्ष जम्मू व कश्मीर में, प्रकृति ब्रम्हपिशाचिनी बन कर मनुष्य के प्रति संवेदनहीन हो गयी, क्या मानव, क्या जंतु, क्या घरौंदे, क्या खेत खलिहान, क्या उद्यान जो भी इस तांडव-लीला के सम्मुख आया, ध्वस्त हो गया. ये त्रासदी इसलिए भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा क्योंकि यह प्रथम अवसर होगा जब पक्षाघात से पीड़ित हमारा प्रशासन वास्तव में पक्षाघात से पीड़ित हो गया, कहावते यूँ ही समाज की भाषा नहीं कही जाती हैं. जिस भूमि पर कभी शांति व अमन बहाल करने की बात की जाती थी, आज वहाँ भोजन की थैलियाँ, पानी के पाउच, पथ्य-दवा इत्यादि प्रवाहित तथा आवंटित किये जा रहे हैं. जहां कभी धर्म तथा मूलता का द्वन्द था आज रोटी के लिए झगड़ रहे हैं. सितम्बर के महीने से जम्मू तथा कश्मीर में शरद का प्रारंभ माना जाता है, शरद के प्रारंभ में बरसात का ये विध्वंश, चिंतनीय है. वर्ष 2002 में बिहार में भी इसी महीने में बाढ़ आई थी, जब बाघमति, कमला व गण्डक कोपाकुल हो गयी थीं. भारी नुकसान हुआ था. वो मैदानी क्षेत्र था, पटना सुरक्षित था, संबंध विच्छेद नहीं हुए थे.अब की पहाड़ों में प्रचंड की बारी है. यह और भी चिंतनीय है क्योंकि ऐसी बाढ़ आज तक इस देश में नहीं आई थी जिसमें सचिवालय, मंत्रालय तथा विधानसभा का ही सम्बन्ध विग्रह हो गया हो. किसी डायन की तरह नदियाँ लोगों को निगलती गयी, जो भी राह में आया उसे उछालती गयी, निगलती गयी. सितम्बर 1 से प्रारंभ हुयी बरसात अगले 4 दिन में प्रचंड रूप धारण कर चुकी थी. श्रीनगर के किनारे बहने वाली छूती सी नदी दूध गंगा के निकट बदल फटा तथा आगामी कुछ ही क्षणों में नदी ने अपने साड़ी सीमाएं तोड़ दी. श्रीनगर के अस्पताल तथा एअरपोर्ट रोड पर पानी जमना प्रारम्भ हो गया. दूध गंगा का ये उफान धीरे धीरे चेनाब तथा तावी में समा गया और स्थिति इतनी भयावह हो गया कि आधे दशक पूर्व आये लेह के उस त्रासदी की तरह सब कुछ बहा कर ले गया. कुछ दिन पहले तक सरकार प्रदेश के कुछ जिलों को अकालग्रस्त घोषित करने का तय कर चुकी थी, परन्तु प्रकृति ने कुछ और तय कर रखा था. कहाँ अकाल और कहाँ भीषण बाढ़. अति सर्वत्र वर्जयेत. ना धूप की अधिकता अच्छी थी, और न ही बारिश की अधिकता. फिर भी अभाव कई बार उचित होता है ऐसे अधिकता से. प्रचुरता का कोई पैमाना भी तो नहीं बनाया प्रकृति ने. संसार में भूख से कम और भोजन की अधिकता से अधिक लोग मरते हैं, गरीब, गरीबी के कारन नहीं मरते परन्तु अमीर अमीरी से जन्मे अतिरेक के कारन मरते हैं.
बात कि ये बाढ़ इतना भयावह क्यों है? अपने एक आलेख में जम्मू व कश्मीर के मुख्यमंत्री चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इससे पहले उन्होंने ऐसा कोई प्राकृतिक आपदा नहीं देखा जहां प्रशासन पूर्ण रूप से पक्षाघात से पीड़ित हो गया था. हमारे अंतर्मन में प्रशासन के प्रति अकारण ही घृणा उत्पन्न हो गयी है, प्रशासन भी उतना ही बेबस है जितने कि हम. किस मौश्य का ह्रदय कट के नहीं गिर जाएगा, बाढ़ में उछलते मौश्य के मृत शारीर को देख कर, पहाड़ों से पानी के साथ गिरते हुए असंख्य घर जिसमे कितने ही स्वप्नों ने एक साथ दम तोड़े. पानी में बहते असंख्य गाड़ियां, भूख से बिलखते स्थानीय लोग, उनकी स्त्रियाँ, उनके बच्चेअ. वो लोग जो वहाँ वर्षों से शांति चाहते थे आज शांत हैं. आपदाओं में राजनीति नहीं होनी चाहिए, सेवा होनी चाहिए. मनुष्यता की. मनुष्य की. देवभूमि पर बीते वर्ष जो हुआ उससे हम अच्छे से उबार नहीं पाए थे कि धरती के स्वर्ग में यह सैलाब हमें डरा रहा है. इस बाढ़ में मात्र जनक्षति नही हुआ है, क्षरण हुआ है हमारे विश्वास का. जो हम अपने तथा प्रकृति के रिश्ते पर करते हैं. कहते हैं न, ‘पहाड़ का पानी तथा पहाड़ की जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं आता.’ अब यह एक ब्रह्मसत्य बनता जा रहा है. उससे भी अजीब है मीडिया का पूरे प्रकरण के प्रति रवैया. सभी बड़े व छोटे मीडिया हाउस वाले आपदास्थल पर पहुचे हुए हैं, कोई समीक्षा कर रहा है तो कोई पत्रकारिता. कोई लोगों से बात करवा रहा है तो कोई प्रशासन से नाराज़ लोगों से. मीडिया सदा से यही करता आया है, भूख को नहीं भूखों को दिखाता है, संज्ञा सदैव से विशेषण से उत्तम माना जाता रहा है. राहत केंद्र भरे पड़े है, हेलिकॉप्टर नित्य सेवा में लगे हैं, मनुष्य का मनुष्य के प्रति यह संवेदना जब खो जाता है तो ऐसी आपदाएं उन्हें स्मरण करवाती हैं कि समष्टि के लिए बलिदानी देना ही व्यष्टि का कर्तव्य है. समाज, संस्कृति के प्रति समर्पण का नाम है, ऐसी आपदाएं किसी परीक्षा की तरह होते हैं. अपनी ख़ूबसूरती के लिए प्रख्यात श्रीनगर अपनी बदसूरती पर आंसू बहाने को विवश है, विवशता के कई कारन हैं, पहली तो बनावट कि प्रयास के बाद भी पानी को बहार निकलना मुश्किल काम है, दूसरा ये कि बदकिस्मती का बदल यहीं फटा, शिकारा आज जीवन को बचाने के काम आ रहे हैं, कब क्या खान काम आ जायें, किसे ज्ञात है? कुछ लोग हैं, जो निस्स्वार्थ सेवा में लगे हैं, मानव तथा मानवता की. कुछ हैं जिनपे दानव अब भी सवार है, नाव को पत्थर मारते हैं, तो कोई शिकारें को क्षति पहुंचाते हैं, हेलीकाप्टर को भी नहीं छोड़ रहे हैं, खंडहरों में लूटमार भी कर रहे है, धन व अस्मिता दोनों की. यह परम सत्य है कि एक समय में समाज में, मानव व दानव साथ रहते रहे हैं. मानवता ने सदैव दानवता को औंधे मूंह गिरने पर विवश किया है, श्रीनगर भी कर देगा.

जम्मू व कश्मीर में आई ये आपदा मात्र बाढ़ नहीं है, ये मात्र जलताण्डव नहीं है, ये कुछ और है. यह मानवीय रिश्तों को सुधर जाने का एक अवसर है, ये रक्त के रंग को धोने का एक प्रयास है, ये मैली हो चुकी वादियों को पवित्र करने का प्रयास है, ये लम्बी चीख के बाद शांति को बसाने हेतु किया गया कृत्य है, भारत के अंतर्विरोध को संवेदना के शब्द देने हेतु किया गया प्रयास है, मानवता को उसके किये उद्दंडता के लिए दिया गया दण्ड है, बिछड़े व उजड़े कौमों को पुनर्स्थापित करने हेतु प्रकृति द्वारा किया गया प्रयास है. परन्तु इस प्रयास में कितनी जानें न्योंछावर हो उनकी भरपाई कौन करेगा, यूँ भी तो वादी को किसी पाप का दंड मिलता ही रहता था, इस बार ये दंड वरदान सिद्ध होगा. किसी धर्मयुद्ध की आवश्यकता नहीं पड़ी, मदद से पहले कोई धर्म नहीं पूछ रहा है, पानी पिलाने से पूर्व कोई नाम नहीं पूछता, घर में रुकने से पूर्व शरीर की तलाशी नहीं ले रहा है. प्रशासन बेबस है, बेरहम नहीं. हम सबको समझने की आवश्यकता है, प्रशासन कटाई अपने लोगों की इस लाचारी पर जश्न नहीं मनायेगा, अब राष्ट्रपति भले ही विएतनाम हो आएं. जम्मू व कश्मीर के प्रशासन के सामने चुनौती होगी, जलमग्न क्षेत्रों में से जल को यथाशीघ्र निकालना तथा वहाँ पर जीवन को पुनर्स्थापित करना. बाढ़ के बाद आने वाले खतरों को झेलने की. बाढ़ सूखे से भी अधिक खतरनाक होता है, अगले कुछ वश के भी संभावनाओं को समाप्त करने का प्रयास. यह उल्लेखनीय रहे कि हौसला ही ऐसे आपदाओं से निपटने का सबसे कारगर उपाय है.  

सोमवार, 8 सितंबर 2014

रहिमन धागा प्रीत का

लव जिहाद: एक प्रेम कथा 
- अंकित झा 

मैंने हर दौर में हर नस्ल के क़ातिल देखे हैं,
मैं मोहब्बत हूँ मेरी उम्र कुछ बड़ी है.

कथा का प्रारंभ होता है एक रेलवे स्टेशन से, बुर्के में बैठी एक स्त्री, उसके बायीं ओर चौकन्ने नज़रों से प्लेटफार्म के चारों ओर नज़र दौरता एक बीस बैस वर्ष का लड़का. दोनों की आँखें सहमी हुई हैं, बग़ावती नज़र आ रहे हैं, जब आँखें सहमी हो परन्तु चेहरे पर शिकन तक न हो तो बग़ावत जन्म लेता है. एक एक कर सामने से कई ट्रेने गुजर चुकी हैं, परन्तु जाने का मन नहीं कर रहाहै, कहीं जाना भी है या नहीं, ज्ञात नहीं.हर एक ट्रेन के आगमन पर, वो उठती है, इस उम्मीद से कि ये ट्रेन पकडनी है, परन्तु वो लड़का मना कर देता है, हर बार यही हो रहा है. फिर एक ट्रेन आई, दोनों उसमे बैठ गये, और चले गये, लड़की की आंखें नम हैं, ऐसा लग रहा है मानो वो अपने कलेजे को देह से अलग कर रही हो, छलक पड़े.  लड़के ने धीर बंधाया. प्रेम है, विवशता तो होगी. अपनों के लिए अपनों से दूर जाने की. किस अपने को चुना जाए? प्रेम में यदि विवशता न हो तो अमरता की कसौटी को पार कैसे करेगी? ट्रेन चल पड़ी, अरमान, नए सपनों के नयी ज़िन्दगी के चल पड़े. लड़की के गले में हाथ डाले उसे धीर बंधाता वो लड़का प्लेटफार्म को निहारता रहा.
उस घर के बहार एक लड़की बैठी है, कच्चा मकान है, दरवाजा उखड़ा उखड़ा सा है, घर के दीवार पर रंग का नाम तक नहीं. आँखें सहमी हुई है, ये बग़ावत के अंत का समय है, पश्चाताप के आरम्भ का. जब आँखें सहमी हो, तथा चेहरे पर पछतावे के निशान तो पश्चाताप जन्म लेता है. वो चुपचाप वहाँ बैठी है, सामने से भीड़ गुजर रही है, कुछ नज़रें उसे देखती है और फिर चली जाती है. कई बार वो कुछ कहने की कोशिश करती है, फिर स्वतः ही चुप हो जाती है. हर बार यही हो रहा है. उसकी आँखें नम हैं, ऐसा लग रहा है, वो कटे हुए कलेजे को देह में पुनः जोड़ने के असंभव प्रयास को करना चाहती हो, छलक पड़े. रह रह कर छलक जाते हैं. प्रेम के हारे को ममता जगह नही देती. और जब प्रेम, ममता को तिरस्कृत कर चूका हो फिर तो बिलकुल नहीं. आज उसने बुरका नहीं पहना, शर्म पहना है. बुर्के में शारीर को ढंक कर जो निर्लज्जता की ओर कदम बढ़ाया था, उसे लेकर पछता रही है. क्या कसूर था, प्रेम किया था. किससे. पूछना भूल गयी थी. सजा मिली. इतनी भयंकर कि समझ नहीं पा रही है. अंग नुचे हुए हैं. सब कहते हैं, शादी कर ली थी इसने, फिर मंगलसूत्र कहाँ है? सुहागिनों जैसा जूडा कहाँ है? माथे की बिंदी कहाँ है? मांग का सिन्दूर कहाँ है? किसी ने बताया, धर्म बदल लिया था इसने. इस्लाम कबूला था, निकाह रचाया था इसने. पति बेईमान निकला, छोड़ दिया, माँ भी बन चुकी है. फिर क्या मूंह लेकर बाप के घर के बाहर बैठी है? जल जाए, पवित्र होगी तो बच जाएगी वरना वहीं राख हो जाएगी. प्रेम से राख बनने तक की दास्तां एक बेईमानी मात्र के कारण. इसे बेईमानी नहीं बेवफाई कहते हैं, खुदगर्ज़ी कहते हैं. और प्रेम के इस ढोंग को आज कल लव जिहाद कहते हैं. ये धार्मिक अतिरेक का अपभ्रंश है, सामुदायिक कलह के अंकुरण का दूसरा नाम.
बुर्के वाली पड़ोसन और जनेऊ वाला पडोसी, दोनों की नोकझोंक वाली प्रेम कहानी, शरारती मुस्कान, छत के ऊपर आँखों ही आँखों में इशारों से समझे गए जीवन के गूढ़ रहस्य.  सब निरर्थक. राजनैतिक गलियारों में प्रेम पुनः बदनाम हो गया. वो उर्दू के शायर ने लिखा है, ‘होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को ना जाने, शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत है.’ प्रेम अँधा होता है, या दुनिया अंधी है? प्रेम पाप है, या प्रेम पर शंका करना? किसकी तरफदारी करूँ? मैं ही क्यों? पहले दुसरे जात का नहीं चलेगा, अब दूसरे धर्म का नहीं. कहीं तुम्हें बदल के अपनी जनसँख्या बढ़ा ली तो? जनन्ख्या बढ़ जाएगी तो जानते हो क्या जुल्म हो जाएगा? क्यों डराते हो महाशय? प्रेम से सामाजिक प्रेम बढ़ता है, जनसँख्या नहीं. परन्तु ऐसी बातें उत क्यों रही हैं? किस परिपेक्ष में? कर्नाटक में 2008 में दो दिल मिले थे, बरसात के मौसम में किसी छाते के नीचे शायद. उन बूंदों ने धर्म नहीं पूछा था, न छाते ने. न उस समय दोनों के दिल ने. बरसात की बूंदों में प्रेम जगह बनता गया, फिर छज्जे छज्जे का प्यार परवान चढ़ता गया. लड़का 25 साल का मुस्लिम, लड़की 19 साल की हिन्दू. प्रेम कुछ भी कहे, बाबूजी की बात अटल होती है. परन्तु प्रेम तो प्रेम ठहरा, रति रस में वात्सल्य का भाव कहीं पीछे छूट ही जाता है. और फिर जब वत्सला विद्रोह पर उतर आये तो बाबूजी भी क्या करें. पाबंदियां. फिर उन पाबंदियों से छूटने की कशमकश. भाग गये, जिस धर्म ने इतनी बंदिशे लगायी, बदल डाला, नम्म बदल लिया. बाबूजी के नाम को भी हटा दिया. प्रेम के नाम पर कुछ भी, नाम बदलना पहले सजा थी, अब जीने का जरिया. माँ बनी, जितना मेरा ख्याल है, गर्भ में पलने वाला वो मासूम धर्म के बारे में नहीं जानता. ना ही वो रसायन कुछ धर्म वार्म समझते हैं. वो तो संसार में आने के बाद पता चलता है कि किस घर में जन्म लिया है उन्होंने. वो भी 3 बच्चों की माँ बनी. हर परिवार में खटपट होता है, वहाँ भी होने लगा. कहीं कहीं स्वाभिमान हावी होने लगता है, विवाद बढ़ गया, इतना कि इश्क की फ़ज़ीहत हो गयी. लड़की ने पुलिस में शिकायत की, ये कुछ नए प्रकार का था. शिकायत था, जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करने पर विवश करने का. अनंतकाल में इसी शिकायत से जन्म हुआ लव जिहाद का. अर्थात प्रेम का सहारा लेकर एक धर्म विशेष के जनसँख्या को बढ़ाने का हथकंडा.
इस पर क्या लिखा जाए, सही है या गलत? क्यों लिखा जाए? सही हो या गलत क्या फर्क पड़ता है? इश्क तो यूँ भी बदनाम है. ये दाग भी लग ही जाने दो. समाज भी बेवजह पड़ा हुआ है, इश्क को चैन से जी लेने दो. और इश्क्जादों को भी. क़ाज़ी और पुरोहित के इशारे पर इश्क नहीं होता है, साज़िश होता है, तो इसे लव जिहाद का नाम नहीं दिया जाए. हम प्रेम के वकीलों को इस पर ऐतराज़ है. होना भी चाहिए, कुछ कहने का मन कर रहा है, ‘जब दाग धुल जायेंगे तो बारिशों को याद किया करेंगे, इश्क में कुरबां हुए उन आशिकों को याद किया करेंगे. पिघलते आसमां को जो अश्क कहा करते थे, आशिकी के उस मौसम को याद किया करेंगे.’ प्रेम में साज़िश होते रहते हैं, होते रहेंगे. कोई रोक के दिखा दे, ये धर्म युद्ध किस लिए? राजनैतिक महाभारत किसलिए? सामाजिक वर्ग संघर्ष किसलिए? लव जिहाद कुछ नहीं होता है, विश्वास का टूटना होता है, कोई भी धर्म स्वयं के प्रति खूंखार नहीं हो सकता. कोई भी धार्मिक मान्यताएं स्वयं के अनुयायिओं के प्रति संवेदनहीन नहीं हो सकती. अपनी बेटियों, बहनों को हम क्या समझाएं, किसी लड़के से दिल न लगाना, चलो लगा भी लिया तो पता कर लेना धर्म कौन सा है. अगर दूसरा धर्म निकले तो दिल को समझा लेना. ऐसी गुस्ताखियाँ न किया करे. क्या सोचेंगे पंडित जी हमारे. यदि लव जिहाद कुछ होता है, तथा यह गलत है तो प्रेम का पूरा प्रसंग ही गलत है. वो दौर कौन भूला है, जब नगर की सबसे सुंदर कन्या विवाह न होने के सूरत में नगरवधू बन जाया करती थी, वह भी कोई षड्यंत्र था क्या? किसका? किसके विरुद्ध? मुस्लिम तो नहीं थे उस समय हमारे देश में. कमी कहीं स्वयं में है, ऊँगली को दूसरी ओर घुमा रहे हैं बस. देश में और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए. लव जिहाद के विरुद्ध दल बनाने से कई बेहतर होता यदि कृषि समस्याओं तथा शैक्षणिक समस्याओं के विरुद्ध दल बनाये गये होते. सार्थक होते. धर्म कभी भी भेदभाव करना नहीं सिखाता, मनुष्य में ये भावना कहाँ से आ गयी? संसार ईश्वर ने बसाया, समाज को मनुष्यों ने. समाज में ये भेदभाव कहाँ से आये, जब सभी एक अंश हैं तो फिर क्या चल रहा है ये?

हाँ, लव जिहाद एक षड्यंत्र है, फिर से सामाजिक कलह करवाने हेतु. इसे जो कोई भी शुरू करना चाहता है, पापी है.