यह बाढ़ मात्र तो नहीं है
-
अंकित
झा
मनुष्य का मनुष्य के प्रति यह संवेदना जब खो जाता है तो ऐसी आपदाएं उन्हें स्मरण करवाती हैं कि समष्टि के लिए बलिदानी देना ही व्यष्टि का कर्तव्य है. समाज, संस्कृति के प्रति समर्पण का नाम है, ऐसी आपदाएं किसी परीक्षा की तरह होते हैं. अपनी ख़ूबसूरती के लिए प्रख्यात श्रीनगर अपनी बदसूरती पर आंसू बहाने को विवश है.
निसंदेह यह एक बड़ी त्रासदी
है, हाँ, उत्तरखंड भयावह था. जब प्रकृति उन्मादी हो जाती है, तो यही सब कुछ करती
है. बीते वर्ष उत्तराखण्ड में तथा इस वर्ष जम्मू व कश्मीर में, प्रकृति ब्रम्हपिशाचिनी
बन कर मनुष्य के प्रति संवेदनहीन हो गयी, क्या मानव, क्या जंतु, क्या घरौंदे, क्या
खेत खलिहान, क्या उद्यान जो भी इस तांडव-लीला के सम्मुख आया, ध्वस्त हो गया. ये
त्रासदी इसलिए भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा क्योंकि यह प्रथम अवसर होगा जब पक्षाघात
से पीड़ित हमारा प्रशासन वास्तव में पक्षाघात से पीड़ित हो गया, कहावते यूँ ही समाज
की भाषा नहीं कही जाती हैं. जिस भूमि पर कभी शांति व अमन बहाल करने की बात की जाती
थी, आज वहाँ भोजन की थैलियाँ, पानी के पाउच, पथ्य-दवा इत्यादि प्रवाहित तथा आवंटित किये जा रहे हैं. जहां कभी धर्म
तथा मूलता का द्वन्द था आज रोटी के लिए झगड़ रहे हैं. सितम्बर के महीने से जम्मू
तथा कश्मीर में शरद का प्रारंभ माना जाता है, शरद के प्रारंभ में बरसात का ये
विध्वंश, चिंतनीय है. वर्ष 2002 में बिहार में भी इसी महीने में बाढ़ आई थी, जब बाघमति,
कमला व गण्डक कोपाकुल हो गयी थीं. भारी नुकसान हुआ था. वो मैदानी क्षेत्र था, पटना
सुरक्षित था, संबंध विच्छेद नहीं हुए थे.अब की पहाड़ों में प्रचंड की बारी है. यह
और भी चिंतनीय है क्योंकि ऐसी बाढ़ आज तक इस देश में नहीं आई थी जिसमें सचिवालय,
मंत्रालय तथा विधानसभा का ही सम्बन्ध विग्रह हो गया हो. किसी डायन की तरह नदियाँ
लोगों को निगलती गयी, जो भी राह में आया उसे उछालती गयी, निगलती गयी. सितम्बर 1 से
प्रारंभ हुयी बरसात अगले 4 दिन में प्रचंड रूप धारण कर चुकी थी. श्रीनगर के किनारे
बहने वाली छूती सी नदी दूध गंगा के निकट बदल फटा तथा आगामी कुछ ही क्षणों में नदी
ने अपने साड़ी सीमाएं तोड़ दी. श्रीनगर के अस्पताल तथा एअरपोर्ट रोड पर पानी जमना
प्रारम्भ हो गया. दूध गंगा का ये उफान धीरे धीरे चेनाब तथा तावी में समा गया और स्थिति
इतनी भयावह हो गया कि आधे दशक पूर्व आये लेह के उस त्रासदी की तरह सब कुछ बहा कर
ले गया. कुछ दिन पहले तक सरकार प्रदेश के कुछ जिलों को अकालग्रस्त घोषित करने का
तय कर चुकी थी, परन्तु प्रकृति ने कुछ और तय कर रखा था. कहाँ अकाल और कहाँ भीषण
बाढ़. अति सर्वत्र वर्जयेत. ना धूप की अधिकता अच्छी थी, और न ही बारिश की अधिकता. फिर
भी अभाव कई बार उचित होता है ऐसे अधिकता से. प्रचुरता का कोई पैमाना भी तो नहीं
बनाया प्रकृति ने. संसार में भूख से कम और भोजन की अधिकता से अधिक लोग मरते हैं,
गरीब, गरीबी के कारन नहीं मरते परन्तु अमीर अमीरी से जन्मे अतिरेक के कारन मरते
हैं.
बात कि ये बाढ़ इतना
भयावह क्यों है? अपने एक आलेख में जम्मू व कश्मीर के मुख्यमंत्री चिंता व्यक्त
करते हुए कहते हैं कि इससे पहले उन्होंने ऐसा कोई प्राकृतिक आपदा नहीं देखा जहां
प्रशासन पूर्ण रूप से पक्षाघात से पीड़ित हो गया था. हमारे अंतर्मन में प्रशासन के
प्रति अकारण ही घृणा उत्पन्न हो गयी है, प्रशासन भी उतना ही बेबस है जितने कि हम. किस
मौश्य का ह्रदय कट के नहीं गिर जाएगा, बाढ़ में उछलते मौश्य के मृत शारीर को देख
कर, पहाड़ों से पानी के साथ गिरते हुए असंख्य घर जिसमे कितने ही स्वप्नों ने एक साथ
दम तोड़े. पानी में बहते असंख्य गाड़ियां, भूख से बिलखते स्थानीय लोग, उनकी
स्त्रियाँ, उनके बच्चेअ. वो लोग जो वहाँ वर्षों से शांति चाहते थे आज शांत हैं. आपदाओं
में राजनीति नहीं होनी चाहिए, सेवा होनी चाहिए. मनुष्यता की. मनुष्य की. देवभूमि
पर बीते वर्ष जो हुआ उससे हम अच्छे से उबार नहीं पाए थे कि धरती के स्वर्ग में यह सैलाब
हमें डरा रहा है. इस बाढ़ में मात्र जनक्षति नही हुआ है, क्षरण हुआ है हमारे
विश्वास का. जो हम अपने तथा प्रकृति के रिश्ते पर करते हैं. कहते हैं न, ‘पहाड़ का पानी
तथा पहाड़ की जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं आता.’ अब यह एक ब्रह्मसत्य बनता जा रहा
है. उससे भी अजीब है मीडिया का पूरे प्रकरण के प्रति रवैया. सभी बड़े व छोटे मीडिया
हाउस वाले आपदास्थल पर पहुचे हुए हैं, कोई समीक्षा कर रहा है तो कोई पत्रकारिता.
कोई लोगों से बात करवा रहा है तो कोई प्रशासन से नाराज़ लोगों से. मीडिया सदा से
यही करता आया है, भूख को नहीं भूखों को दिखाता है, संज्ञा सदैव से विशेषण से उत्तम
माना जाता रहा है. राहत केंद्र भरे पड़े है, हेलिकॉप्टर नित्य सेवा में लगे
हैं, मनुष्य का मनुष्य के प्रति यह संवेदना जब खो जाता है तो ऐसी आपदाएं उन्हें स्मरण
करवाती हैं कि समष्टि के लिए बलिदानी देना ही व्यष्टि का कर्तव्य है. समाज, संस्कृति
के प्रति समर्पण का नाम है, ऐसी आपदाएं किसी परीक्षा की तरह होते हैं. अपनी
ख़ूबसूरती के लिए प्रख्यात श्रीनगर अपनी बदसूरती पर आंसू बहाने को विवश है, विवशता के
कई कारन हैं, पहली तो बनावट कि प्रयास के बाद भी पानी को बहार निकलना मुश्किल काम
है, दूसरा ये कि बदकिस्मती का बदल यहीं फटा, शिकारा आज जीवन को बचाने के काम आ रहे
हैं, कब क्या खान काम आ जायें, किसे ज्ञात है? कुछ लोग हैं, जो निस्स्वार्थ सेवा
में लगे हैं, मानव तथा मानवता की. कुछ हैं जिनपे दानव अब भी सवार है, नाव को पत्थर
मारते हैं, तो कोई शिकारें को क्षति पहुंचाते हैं, हेलीकाप्टर को भी नहीं छोड़ रहे हैं,
खंडहरों में लूटमार भी कर रहे है, धन व अस्मिता दोनों की. यह परम सत्य है कि एक
समय में समाज में, मानव व दानव साथ रहते रहे हैं. मानवता ने सदैव दानवता को औंधे
मूंह गिरने पर विवश किया है, श्रीनगर भी कर देगा.
जम्मू व कश्मीर में
आई ये आपदा मात्र बाढ़ नहीं है, ये मात्र जलताण्डव नहीं है, ये कुछ और है. यह मानवीय
रिश्तों को सुधर जाने का एक अवसर है, ये रक्त के रंग को धोने का एक प्रयास है, ये
मैली हो चुकी वादियों को पवित्र करने का प्रयास है, ये लम्बी चीख के बाद शांति को बसाने
हेतु किया गया कृत्य है, भारत के अंतर्विरोध को संवेदना के शब्द देने हेतु किया
गया प्रयास है, मानवता को उसके किये उद्दंडता के लिए दिया गया दण्ड है, बिछड़े व
उजड़े कौमों को पुनर्स्थापित करने हेतु प्रकृति द्वारा किया गया प्रयास है. परन्तु
इस प्रयास में कितनी जानें न्योंछावर हो उनकी भरपाई कौन करेगा, यूँ भी तो वादी को
किसी पाप का दंड मिलता ही रहता था, इस बार ये दंड वरदान सिद्ध होगा. किसी
धर्मयुद्ध की आवश्यकता नहीं पड़ी, मदद से पहले कोई धर्म नहीं पूछ रहा है, पानी
पिलाने से पूर्व कोई नाम नहीं पूछता, घर में रुकने से पूर्व शरीर की तलाशी नहीं ले
रहा है. प्रशासन बेबस है, बेरहम नहीं. हम सबको समझने की आवश्यकता है, प्रशासन कटाई
अपने लोगों की इस लाचारी पर जश्न नहीं मनायेगा, अब राष्ट्रपति भले ही विएतनाम हो आएं.
जम्मू व कश्मीर के प्रशासन के सामने चुनौती होगी, जलमग्न क्षेत्रों में से जल को
यथाशीघ्र निकालना तथा वहाँ पर जीवन को पुनर्स्थापित करना. बाढ़ के बाद आने वाले
खतरों को झेलने की. बाढ़ सूखे से भी अधिक खतरनाक होता है, अगले कुछ वश के भी
संभावनाओं को समाप्त करने का प्रयास. यह उल्लेखनीय रहे कि हौसला ही ऐसे आपदाओं से
निपटने का सबसे कारगर उपाय है.