शनिवार, 21 सितंबर 2013

"अनुभूतिवश": संस्मरण के संग संग

                     दतमन 
                                                               - अंकित झा 

वर्ष 2003 की बात थी. अब की ठण्ड ने छठ की बाट न देखी, दिवाली पर ही धमक आयी. दिवाली से शुरू हुई शीतलहरी, अगहन के आते आते अपने चरम पर जा पहुची थी. रोजाना दैनिक पत्रों में पिछली तसदिकों के टूटने की खबरें पढ़ता। मिथिला में ठण्ड का अर्थ सिर्फ ठण्ड नहीं होता, परेशानियाँ भी होती हैं. बात अगहन ही की थी, ठण्ड के कारण साँपों के यहाँ वहां से निकलने की खबरें कानों में पड़ने लगी. रजाई के नीचे, तकिये के नीचे, धोती के नीचे, मिटटी के चूल्हों में जमे राख में, हर जगह. दहशत तब बढ़ गई जब पडोसी के चूल्हे से गहुमन निकला। गहुमन मतलब कोबरा। हमारा पक्का का घर था, अर्थात गहुमन, सांखर व करैत को खुला आमंत्रण।
उन्ही दिनों घर के सामने से दो भाई दतमन बेचने को निकला करते थे. बांस की करछी, नीम के दतमन, धातरिक (आंवला) के दतमन; २ से 5 रुपये में. तीन-चार महीनो से रोज हमारे घर के सामने से निकलते। ठण्ड कितनी भी हो, आते जरुर। पिताजी रिक्शा हांकते हैं और माँ घर पे रहती है. कहते हैं माँ बहुत सुन्दर है. कोई ख़ास अंदाज़ नहीं था, बेचने का. बस मासूमियत थी, बोली में. माँ खूब रिझती थी उनसे। बड़ा भाई कोई सात आठ साल का होगा छोटा कोई पांच छः साल का, एक और भाई है 1-2 साल का ही है, वो अम्मा के गोद से नहीं उतरता है. माँ उनसे ही दतमन लिया करती, छोटी-छोटी दो गठरी, एक बांस की और एक नीम का. फिर कई दिनों तक वो नहीं आये. मैं सुबह सुबह दोरुखे के बाहर निकल उनकी प्रतीक्षा करता, परन्तु वो नहीं आते.  निराशा होती। कौतूहलता मटियामेट हो जाती। माँ भी कहीं न कहीं परेशान तो थी उनके लिए. उन दोनों भाइयों से एक बंधन सा बंध गया था.
कोई 8-9 दिनों बाद सुबह के सात बजे घर के बाहर आवाज़ आई- 'हे माई! दतमन नै लेब?' (अम्मा! दतमन नहीं लेंगी क्या?) ये सुनना था की सब दरवाजे की ओर दौड़ पड़े. वही दोनों भाई खड़े थे. बड़ा मेहरूनी रंग के दो छेद वाले स्वेटर में और दूसरा वही शेर छाल वाला रुई का जैकेट पहने। माँ की ख़ुशी का ठिकाना न था. जाते ही पुछा- "आबत कैलै नई रही रे?" (इतने दिनों से क्यों नहीं आ रहे थे?) 
उसका जवाब आया- 'नै ऐतियई, बौआ चाची के दूध नइ पिबइ छइ. (नहीं आते, पर छोटा भाई चाची का दूध नहीं पीता। )
माँ ने पुछा- "माई कतै गेलऊ?" (माँ कहाँ गयी?)
जवाब आया- 'सिरमा में करैत रहइ, भोरे-भोरे काइट लेलकई माथा में, माई मर गेलइ। (तकिये के नीचे करैत था, सुबह सुबह काट लिया, माँ अब नहीं रही.)

सब स्तब्ध रह गए. जमे के जमे रह गए. किसी के मुह से कुछ न निकला। ध्यान तब भंग हुआ जब बच्चो ने पुछा- कौहु न दतमन लेब? (कहिये ना दतमन लेंगी कि नहीं,) बौआ के लेल दूध सेहो किना के छै. (छोटे भाई के लिए दूध भी खरीदना है.)

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

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क्योंकि सपनों की कोई कीमत नहीं होती।।
- अंकित झा 
अब एक नए इतिहास बनाने की तयारी की जा रही है, सावधान!! विश्व में पहली बार कोई सरकार अपने देश के एक बड़े हिस्से को सब्सिडी पर अनाज प्रदान करवाने जा रही है

"बिगड़ी बात बने नहीं , लाख करो किन होए।
रहिमन फटे दूध को, मथे न माखन होए।।।"
                                                                      - रहीम 

ज़हालत, फरेब, झूठ, अकर्मण्यता व बडबोलेपन के गठबंधन की सरकार चल रही है. अपमान, धोखे व बेशर्मी की साड़ी सीमाएं तोड़ रही है वर्तमान राजनीति। अकर्मण्य सरकार को फिरते दिनों में देश के पेट का ख्याल आ रहा है. 65 वर्षों में जो देश के आधे हिस्से को दो वक़्त की रोटी न खिल सके, अन खुद्दारी पर प्रहार करने चले हैं. राजनैतिक हालात अपने वश में नहीं, भूगोल पर विदेशी पैठ और सपने इतिहास बनाने के देखे जा रहे हैं. अच्छा सामाजिक विज्ञानं है. यूँ तो अर्थशास्त्र भी सामजिक विज्ञानं का हिस्सा है पर दुर्बल को और कितना सताया जाये। अर्थव्यवस्था तो वुगत कुछ वर्षों से कंपकंपा ही रही है. तो बात सामाजिक सरंचना की ही करें। समकालीन सरकार ने इतिहास बनाने के कई अवसर प्रदान किये और हर बार असफल रही. सूचना का अधिकार लाई, चुनिन्दा छिद्र के साथ, धीरे धीरे समूचा अधिनियम ही छलनी होने की कगार पर है, मगनरेगस लाई, भ्रष्टाचार की नई बिसात, पोल खुले, तबादले-स्थगन का दौर शुरू हुआ. परमाणु करार पर सरकार संकट में, संसद में नोट उछले, इतिहास; घिनौना ही सही. विभत्सतम अभी बाकी था, राज्यसभा में लोकपाल बिल के मसौदे को फाड़ के धरातल पर धूसित कर देना। सभी इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं. अब एक नए इतिहास बनाने की तयारी की जा रही है, सावधान। विश्व में पहली बार कोई सरकार अपने देश के एक बड़े हिस्से को सब्सिडी पर अनाज प्रदान करवाने जा रही है. ये एक भारतीय माता श्री मती सोनिया गाँधी जी का स्वप्न है की उनके देश की जनता भूखी न रहे. ये सपना अब सोनिया जी का है तो कौन कुछ कहे? भले ही कोई भी कीमत चुकानी पड़े, फिर सपने की कोई कीमत होतीहै क्या? और सोनिया जी के सपने की कोई कीमत, प्रश्न ही नही.

अगर गणना की जाये तो सरकार ने देश के 67% जनता को इस वर्ग में शामिल किया है, जबकि 2011 के जनगणना के अनुसार २६% जनता ही गरीबी रेखा के नीचे हैं।  ये नए 41% कौन है? कहाँ छुपे बैठे थे? 67% का इतिहास या फिर 3 वर्षों में 41% नए गरीब ले आने का इतिहास? सस्ते दामों पर अनाज कोई नै बात नहीं है, छत्तीसगढ़ में तो ये केंद्र सर्कार इ भी पहले और उससे भी सस्ता है तो फिर क्या ये चुनौती का नया इतिहास है? इस इस अध्यादेश को पारित कर लागू करने हेतु 1 लाख 40 हज़ार करोड़ रू चाहिए, लगभग अनुमानित। कहाँ से आएंगे? ऋण ले के खीर खिलायेंगे? ऋण लेने का नया इतिहास? हमारा देश एक नाज़ुक डोर पर दौड़ रहा है, बिना किसी सहारे के, एक गलत कदम और धराशायी। कपट और ज़हालत को दूर करना ही होगा। कहाँ से आयेगा इतना फण्ड? खाद्य सब्सिडी और मिड डे मील को मिलकर भी इतना खर्च नहीं होता। खर्चे में बढ़ोत्तरी का सीधा अर्थ है, बचत में कटौती। पहले से कोई ज्यादा बचत है नहीं। वैश्विक आर्थिक संकट बीच-बीच में थपेड़े लगा जाते हैं. इस समय आवश्यकता है देश में निवेश की. जहाँ से ए, जैसे भी आये. राष्ट्रिय आय में वृद्धि की। सबसे बड़ी समस्या अनुपालन की है. भ्रष्टतंत्र में क्या इतना नाजुक फैसला लिया जाना सही है? वितरण प्रणाली को पहले सुगृढ किया जाये, तत्पश्चात खाद्य सुरक्षा की बात की जाये। सपनो को हकीक़त में अवश्य बदलना चाहिए परन्तु समय पर, अन्यथा खोखले सपनो को विभत्स हक़ीक़त बनते वक्त नहीं लगता। सोनिया जी! सपनो की कोई कीमत नहीं होती, जब तक कि इससे करोड़ो उम्मीदें न जुडी हों.