वो संजीदगी कहाँ गयी???
- अंकित झा भारतीय समाज की यही विडम्बना रही है कि ये सदा भविष्य को वर्तमान से बेहतर बनाने के लिए अपने बीते हुए कल को जड़ से उखाड़ कर फ़ेंक देना चाहते हैं। यदि भविष्य सुखद होने जा रहा है, यह सिर्फ बीता हुआ कल ही सुनिश्चित कर सकता है। भले ही वो कैसा भी हो।
" जो बीत गयी सो बात गयी,
जीवन में एक सितारा था,
माना वह बेहद प्यारा था,
वह टूट गया तो टूट गया।।।।
- हरिवंश राय बच्चन
कल की झुलसी यादें हमारे वर्त्तमान व भविष्य को बर्बाद क्यों करे? परन्तु जिस दुःख, संताप व विषैली यादों ने हमारे आज की नींव रखी, हमारे कल को सुनिश्चित किया, क्या उस कल को छोड़ देना वाजिब है। प्रगति अच्छी बात है परन्तु क्या प्रगति के पथ के जिर्णोद्धारण को याद करना अनुचित है?
आज हमारा समाज इसी विडम्बना से जूझ रहा है। बेहतर कल के लिए, बीते कल को इतनी जल्दी भूलना चाहता है कि क्या बताएं। हमें हर पर शोर मचने की जैसे लत सी लग गयी हो, उत्कटता, बरबसता बनती जा रही है। तभी तो हमारे आवाज़ की कीमत गिर गयी है। चाणक्य का ही तो सिद्धांत है कि कोई बोल रहा हो तो उसे बोलने दो, बीच में कुछ मत बोलो, कोई कितना बोल लेगा चुप तो होना ही है उसे। तभी तो एक मुख्यमंत्री अपने प्रदेश के नागरिकों के नुकसान की भी खानापूर्ति करने में लगी हैं। तम्बाकू के उत्पादों पर कर बढ़ा दिया है, जितना अधिक सेवन करोगे उतना ही अधिक लाभ मिलेगा। तभी तो एक प्रदेश का उप मुख्य मंत्री सूखे का इलाज पेशाब से करने की बात करते हैं। बाँधों में पानी नहीं है, तो क्या उन्हें मूत्र से भर दिया जाये। तभी तो देश में बम धमाके होते हैं, और नेता का बयान आता है कि चुनाव में इससे दूसरी पार्टी को अवश्य ही फायदा पहुँचने वाला है। देश पर अतिक्रमण बढ़ रहा है, घुसपैठ बढ़ रहा है, चीन कब्ज़ा जमा रहा है, 15 किमी से अधिक अन्दर घुस आया है परन्तु मीडिया है कि गुडिया को बचने व दुष्कर्म के मामले ढूंढने में लगा है। नागरिकों के साथ धोखा हो रहा है, गद्दारी बढ़ रही है, और नेता हैं कि अपनी गाल बजाने में लगे हैं। संज़ीदगी कहाँ रख आये हैं? हया को न जाने किस घोटाले में बेच आये हैं? 2g स्पेक्ट्रम वाले में या कोयला खदान आवंटन वाले में? थोडा कोयला अपने पास रख लेते, चेहरे पर लगाने के काम आता।
वर्तमान हालत पर ध्यान नहीं और आगामी चुनाव जीतने की मंशा। ये तीसरे मोर्चे की बात उठाने वालों से कोई पूछे कि राष्ट्र महत्वपूर्ण है या राज। सब प्रधानमंत्री ही बनना चाहते है, सत्ता ही हासिल करना चाहते हैं, कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। हो हल्ला मचा कर, अनशन पर बैठकर, सत्ता में तो आ गए, उखाड़ कर फेंक दिया 'लाल झंडा', ज्योति के दिव्य ज्योति को बुझा दिया परन्तु बंगाल की ज्योती को सच में बुझा दी। क्रोध व तानाशाह की नयी परिभाषा गढ़ दी। सारी परिश्रम को 2 वर्षों में सफल कर दिया, सत्ता मिल गया और क्या चाहिए। बहुमत है 5 साल कौन कुछ बोल सकता है। बाद की बाद में देख लेंगे।
कुछ नेता है कि धर्म निरपेक्षता की बात करते नहीं थकते। एहसान जता रहे हैं। अपने पालक पर। 'केकड़बा बीएल केकड़बे के खाए' तो सुना ही होगा, अर्थात 'केकड़े को उसके बच्चे ही मार के खाते हैं', फिर ये तो राजनीतिज्ञ हैं, ज़हरीले साँप। इनका तो ईश्वर ही मालिक है। इस देश के लोग भी ऐसे ही हैं, गरीब जात देखता है तो अमीर अपना साफ़ हाथ। कहीं वोट डालने में गन्दा न हो जाए। बड़े समझदार बनते हैं सब, दो कौड़ी की अकल नहीं है। भारतीय समाज की यही विडम्बना रही है कि ये सदा भविष्य को वर्तमान से बेहतर बनाने के लिए अपने बीते हुए कल को जड़ से उखाड़ कर फ़ेंक देना चाहते हैं। यदि भविष्य सुखद होने जा रहा है, यह सिर्फ बीता हुआ कल ही सुनिश्चित कर सकता है। भले ही वो कैसा भी हो। किसी को विश्लेषण तो जैसे आता ही नहीं। शरतचंद्र की 'विराज बहु', गरीबी में भी भीख नहीं मांगती थी, एक दिन मांग लायी, वो भी रात को, पति की अनुपस्थिति में, घर पहुंची इतने में पति आ गया कभी आवाज़ भी न उठाने वाले पति नि कलांगना कह के घर से निकाल दिया। जब वापस आई तो मृत्युशय्या पर। इसी तरह अपनी सरकार भी है, मृत्युशय्या पर। परन्तु विराज का पति, उसकी देवरानी व उसकी ननद उसकी सेवा करते उसके प्रलाप को सुनते, सर्कार को तो अपनों ने ही खामोश कर दिया है। तीनों ने उसका साथ ही छोड़ दिया है। ममता ने भी, करूणा ने भी और संजीदगी ने भी। बस रह गया है तो मोहित मन, चिंता व भरम।।।।।
कुछ नेता है कि धर्म निरपेक्षता की बात करते नहीं थकते। एहसान जता रहे हैं। अपने पालक पर। 'केकड़बा बीएल केकड़बे के खाए' तो सुना ही होगा, अर्थात 'केकड़े को उसके बच्चे ही मार के खाते हैं', फिर ये तो राजनीतिज्ञ हैं, ज़हरीले साँप। इनका तो ईश्वर ही मालिक है। इस देश के लोग भी ऐसे ही हैं, गरीब जात देखता है तो अमीर अपना साफ़ हाथ। कहीं वोट डालने में गन्दा न हो जाए। बड़े समझदार बनते हैं सब, दो कौड़ी की अकल नहीं है। भारतीय समाज की यही विडम्बना रही है कि ये सदा भविष्य को वर्तमान से बेहतर बनाने के लिए अपने बीते हुए कल को जड़ से उखाड़ कर फ़ेंक देना चाहते हैं। यदि भविष्य सुखद होने जा रहा है, यह सिर्फ बीता हुआ कल ही सुनिश्चित कर सकता है। भले ही वो कैसा भी हो। किसी को विश्लेषण तो जैसे आता ही नहीं। शरतचंद्र की 'विराज बहु', गरीबी में भी भीख नहीं मांगती थी, एक दिन मांग लायी, वो भी रात को, पति की अनुपस्थिति में, घर पहुंची इतने में पति आ गया कभी आवाज़ भी न उठाने वाले पति नि कलांगना कह के घर से निकाल दिया। जब वापस आई तो मृत्युशय्या पर। इसी तरह अपनी सरकार भी है, मृत्युशय्या पर। परन्तु विराज का पति, उसकी देवरानी व उसकी ननद उसकी सेवा करते उसके प्रलाप को सुनते, सर्कार को तो अपनों ने ही खामोश कर दिया है। तीनों ने उसका साथ ही छोड़ दिया है। ममता ने भी, करूणा ने भी और संजीदगी ने भी। बस रह गया है तो मोहित मन, चिंता व भरम।।।।।