शनिवार, 29 जनवरी 2022

Movie Essay

सृजन-संहार व इसके इर्द-गिर्द सब कुछ

- अंकित नवआशा
जीवन और मृत्यु। एक दर्शन है। सत्य है। अटल है। फिर भी कितना कुछ है इन दो घटनाओं के मध्य। जन्म है, पालन है और मृत्यु है। सृजन है, विध्वंस है और है इन दोनों के मध्य जीते जाना। जन्म मासूमियत है, जीते जाने का अर्थ है चालाकी, और मृत्यु है स्वयं पर विजय। इतनी गूढ़ दर्शन के साथ अगर कोई फिल्म बने तो सोचिए कितनी उबाऊ बन सकती है, लेकिन जब पहले 5 मिनट में पुलिस स्टेशन में हरि और शिवा एक दुर्घटना के बारे में बताते हैं जिसमें पुलिस वाले को किसी ने मारा है और जाते-जाते जब कैमरा स्लो मोशन में दरवाजे से बाहर जाकर सीढ़ी के पास अपनी लुंगी को कमर में बांधते शिवा के पांव पर जा कर रुकती है, जिसमें उसने पुलिस का ही जूता पहना है, तब समझ आता है यह कोई आम फिल्म नहीं बनी है। यह फिल्म अपने साथ एक नया जॉनर ले कर आई है, इस फिल्म ने फिर से गैंगस्टर थ्रिलर को परिभाषित किया है।
दो गैंगस्टर। एक हत्या के समय उन्माद के चरम पर होता है और हत्या के ठीक बाद क्रिकेट खेल रहा होता है। दूसरा अपने उन्माद तक पहुंचने में भी हत्या नहीं करता है, और अगर करता है तो फिर ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत हो स्वयम को पवित्र करता है। दोनों दोस्त हैं,दोस्त से बढ़ कर हैं और शायद एक दूसरे के प्रेमी भी। प्रेम शायद स्नेहरूपी। मित्रता शायद प्रेमरूपी। इसलिए कहानी के बढ़ते बढ़ते हम दोनों को अगाढ़ होते हुए भी देखते हैं तो धोखे पर दोनों के मध्य प्रेम के समाप्त होने जैसी प्रतिक्रिया ही निकलती है। शिवा और हरि। हरि की माँ है। शिव का कोई नहीं। उसकी उत्पत्ति स्वतः हुई, एक दिन अचानक वह हरि और उसकी माँ को कुएं में एक बोरे में मिला, गला कटा हुआ। मतलब उसकी उत्पत्ति स्वयं से हुई। हरि की माँ ने उसे अपना लिया। उसे बच्चे चिढ़ाते, मारते, बड़े उस पर ज़ुल्म करते। उस पर चोट का असर होता पर वह जवाब नहीं देता। किसी घोर तपस्या में लीन हो जैसे शिवा। स्वयं को ले कर उसे कोई चिंता न हो,लेकिन उससे जुड़े लोगों को लेकर भावुक। हरि कोई यदि कोई डराने की भी कोशिश करे तो शिव "तांडव" को आतुर है, उन्माद में विध्वंस की परिपाटी रच सकता है। दूसरी ओर हरि भी, शिव के उन्माद में अपना प्रेम ढूंढता है। आगे बढ़ने की लालसा है,चालाक है। शिव को वस्त्र और आभूषण से कोई लगाव नहीं, हरि आभूषण धारण किये हुए रहता है। तीसरा भी है। ब्रह्मैय्या। विवश। लाचार। ओहदा बड़ा लेकिन कमजोर। अकेला। पुलिस में सब इंस्पेक्टर। एक नए शहर में दिन भर मिल रही धमकियां। किसी के नज़र में कोई खास इज़्ज़त नहीं। और यहीं से शुरू होता है उसका अपना संघर्ष। सम्मान पाने का। फिल्म के अंत ने वह सम्मान अर्जित करता है, और उसी विधायक को चपत जड़ देता है जिसने कभी उसे डरपोक कहा था। यह था उसका स्वयं पर विजय। मृत्यु।
फिल्म में सबसे महत्वपूर्ण है, शहर। यह फिल्म शहर की आत्मा को जीवंत करने वाली कहानियों के कतार में खड़ी होती है। जैसे सत्या, गैंग्स ऑफ वासेपुर, आदुकालम, वाडा चेन्नई, अंगमालि डायरिज आदि। मंगलादेवी इस फिल्म में एक किरदार है। सबसे महत्वपूर्ण किरदार। गलियां, सड़कें, जंगल, समंदर, नदी। सब कुछ कहानी का हिस्सा है। यहां के त्यौहार, आयोजन, खेल, सब कुछ; एक किरदार। और इसी शहर में है हत्या के बाद लाश के चप्पल-जूते निकाल लेने वाला शिव, शिव के माध्यम से सीढ़ी चढ़ता हरि और अपनी नई पोस्टिंग पर अकेलेपन और लाचारी में रोता पुलिस वाला ब्रह्मैय्या। गैंगस्टर फिल्मों में पुलिस वालों का खास महत्व होता है। यहां भी है। कहानी का सूत्रधार तो पुलिस वाला ही है, लेकिन वह असहाय है, अपनी असहायता को छिपा कर नहीं रखता, वह व्यक्त करता है। वह विधायक से जा कर स्वयं को ट्रांसफर करने की बात करता है, उसके थप्पड़ खाता है, जलील हो कर नज़रें चुराता है, फूट फूट कर अकेली में रोता है। लेकिन लड़ता है। दो खूंखार गैंगस्टर का अंत लिखता है, सोचता है, करता है।
यह एके असाधारण फिल्म है। आम सी कहानी लेकिन हिन्दू मिथकों से निकले आयाम और कहानी के घटनाक्रम इसे अभूतपूर्व बनाते हैं। बड़ी बात यह कि फिल्म से ज्यादा फिल्म में प्रस्तुत किये गए मिथक से जन्मे समानताओं पर चर्चा की जाएगी, फॉर्मूला तोड़ने की बात की जाएगी, फिल्म में महिलाओं की अनुपस्थिति पर बात की जाएगी, एक उन्मादी हत्यारे से सहानुभूति की बात की जाएगी, अधूरे रह गए अंत और बीच बीच में रीढ़ कंपा देने वाले डर की बात की जाएगी। पिछले 10 सालों में लगभग भारत की सभी मुख्य भाषाओं में बननेवाली फिल्मों में एक अच्छी गैंगस्टर थ्रिलर फिल्म जुड़ गई है; हिंदी में गैंग्स ऑफ वासेपुर, तमिल में वाडा चेन्नई, मानग्रामम, मलयालम में अंगमालि डायरिज, तेलुगु में प्रस्थानम, मराठी में मुलशी पैटर्न, बांग्ला में बाईशे स्राबोन और अब कन्नड़ में गरुड़ गमन वृषभ वाहन। इस ऐतिहासिक फिल्म का लुत्फ जरूर लेना चाहिए।

शनिवार, 18 दिसंबर 2021

परिवर्तन से परे

गेंदबाज़ कप्तान में क्या समस्या है? 

- अंकित नवआशा

 रामचंद्र गुहा अपने किताब "A Corner of the Foreign Field" में लिखते हैं कि क्रिकेट का खेल गेंदबाजों के प्रति हमेशा से नाइंसाफी करता आया है। जब भारत अंतरराष्ट्रीय खेल नहीं खेलता था उस समय बॉम्बे में "Quadrangular series" काफी महत्वपूर्ण मन जाता था जिसमें "अंग्रेज़, हिन्दू, मुस्लिम व पारसी" टीम खेला करती थीं।

उस समय हिन्दू की टीम के सबसे जबरदस्त खिलाड़ी थे "पालवांकर बालू"। पालवांकर बालू का भारतीय सामाजिक आन्दोलनं में योगदान पर कभी बाद में। बालू दलित थे और स्पिन गेंदबाजी करते थे। अपने टीम के वो बेहतरीन खिलाड़ी थे और कहा जाता है कि यदि उस समय भारत अंतरराष्ट्रीय खेलता तो बालू भारत के पहले क्रिकेट सुपरस्टार होते। लेकिन बालू कभी हिन्दू टीम के कप्तान नहीं बन पाए। एक कारण था कि हिन्दू टीम की कप्तानी एक दलित नहीं कर सकता और दूसरा आधिकारिक कारण बताया गया कि वह एक गेंदबाज हैं और उन्हें गेंदबाजी पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। और अब 100 साल के बाद भी हम वहीं हैं। गेंदबाज कप्तान कैसे बने।
ऑस्ट्रेलिया ने जब विश्व के नम्बर एक गेंदबाज पैट कमिन्स को कप्तान बनाया तो यही सवाल उठे। अगर अनुभवी होना एक पैमाना है तो क्रिकेट में बल्लेबाज़ क्या और गेंदबाज क्या? लसिथ मलिंगा ने कप्तान रहते हुए श्रीलंका को T20 विश्व कप जितवाया लेकिन जब भी श्रीलंका के महान कप्तानों की सूची बनेगी तो मलिंगा का कितना नाम लिया जाएगा? स्टुअर्ट ब्रॉड ने इंग्लैंड के लिए बेहतरीब कप्तानी की। पाकिस्तान के सबसे सफल कप्तान उसके तीन तेज़ गेंदबाज रहे हैं। भारत के बेहतरीन कप्तान कपिल देव अपने दौर के सबसे सफल गेंदबाज रहे। अभी भी केशव महाराज दक्षिण अफ्रीका के लिए क्विन्टन डि कॉक व टेम्बा बावुमा से अच्छे कप्तान साबित हुए हैं, न्यूज़ीलैंड के लिए भी केन विलियमसन के ना होने पर टिम साउथी टॉम लैथम से बेहतर कप्तान होते हैं और पाकिस्तान में भी बाबर आज़म के बाद शादाब खान को ही कप्तान के रूप में देखा जाता है।
फिर ऐसा क्यों?
आज जब पहले रोहित शर्मा और फिर के एल राहुल को भारतीय टेस्ट टीम का उप कप्तान बनाया गया, मुझे आर अश्विन को दरकिनार किया जाना खलता है। आर अश्विन रोहित शर्मा और राहुल दोनों से ज्यादा अनुभवी हैं और इस समय सबसे चपल खिलाड़ियों में गिने जाते है । लेकिन गेंदबाज हैं। 2000 के बाद भारत ने सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, अनिल कुंबले, महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली के रूप में पूर्णकालिक कप्तान देखे। और इस बीच वीरेंद्र सहवाग, गौतम गंभीर, सुरेश रैना, अजिंक्य रहाणे, और शिखर धवन स्टैंड इन कप्तान रहें। नतीजे भी अच्छे बुरे रहें। लेकिन इस दौरान हरभजन सिंह, ज़हीर खान, अश्विन, और भुवनेश्वर कुमार टीम में महत्वपूर्ण खिलाड़ी थे लेकिन उन्हें तरजीह नहीं मिली। ज़हीर खान आईपीएल में दिल्ली डेयरडेविल्स के कप्तान बने और उनकी बेहतरीन कप्तानी देखने को मिली और सबसे युवा टीम जिसमें श्रेयस अय्यर, ऋषभ पंत, करुण नायर जैसे खिलाड़ियों को उन्होंने जिस तरह संभाला शानदार था। वहीं हरभजन सिंह की कप्तानी में मुम्बई इंडियंस ने चैंपियंस लीग जीता। लेकिन देश के लिए कप्तान नहीं बन सके। क्यों? गेंदबाज थे। अनिल कुंबले जब कप्तान बने तो भारत ने ऑस्ट्रेलिया में पर्थ में इतिहास रचा, सिडनी में संभाला और बहुत कुछ हो सकता था।
ख़ैर, हवाला उम्र का दिया जाएगा, खिलाड़ी को खेल के आधार पर आंका जाए, उम्र के हिसाब से नहीं। अश्विन में अभी भी रोहित शर्मा से अधिक क्रिकेट बचा है।

सोमवार, 13 सितंबर 2021

परिवर्तन से परे

डायरी से 

- अंकित नवआशा 

यह मेरे परसो रात के नोट्स हैं जो मैंने अपने चचेरे भाई की मृत्यु हो जाने और अस्पताल द्वारा उनके शव को ना सौंपे जाने के बाद लिखा था। दो दिन से मन बेचैन था। आज समय मिला आपसे साझा करने का:

बहुत अजीब रात है। मैंने इससे पहले ऐसी रात नहीं काटी। अस्पताल में किसी के लाश की प्रतीक्षा में। किसी नहीं एक बड़े भाई की लाश। चचेरे बड़े भाई। जिनसे बचपन में पढ़े भी हैं, और जवानी में बहसें भी की हैं। लाश नहीं मृत शरीर। क्या शब्द दें, छोड़िए। वैचारिक रूप से इनसे बहुत मतभेद रहे, इतने कि एक समय उन्हें सोशल मीडिया से ब्लॉक और अनफ़्रेंड करना पड़ा। लेकिन मृत्यु सभी दायरे भर देती है, सभी वैचारिक मतभेद मिटा देती है। जिनकी मृत्यु हुई है वह तीन बच्चों के पिता थे: दो बेटियां और एक बेटा। तीनों ही अभी नाबालिग़। दो तो अभी हाई स्कूल भी नहीं पहुँचे हैं। दुखद क्षण है।
जब शाम को ख़बर मिली तो अस्पताल के लिए निकल पड़ा। यह सोचे बिना कि क्या होगा, कैसे होगा। क्या करना पड़ता है, कुछ खबर नहीं। कुछ महीनों पहले यह हालत ना जाने कितनों की हुई थी पूरे देश में। यह अस्पताल वाली हालत। मृत्यु करीब 3 बजे हुई, मैं अस्पताल 7 बजे करीब पहुँचा। ग़ाज़ियाबाद में यशोदा अस्पताल। भीगते, पानी से लबालब सड़कों से होते हुए। फिर जब अस्पताल आया तो मालूम हुआ कि मामला बहुत बुरी जगह आ कर फंस गया है। 5 दिन से भर्ती भैया के मृत्यु के बाद उनके शरीर को अस्पताल से वापस लेने के लिए बहुत बड़ी कीमत वाला बिल चुकाना पड़ेगा। शायद बहुत बड़े वर्ग को यह बहुत ज्यादा ना लगे पर हम जैसे निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लिए यह बहुत ज्यादा है। करीब 3 लाख रु का बिल। चुकाओ और शरीर ले जाओ। हमारे पास पैसे नहीं हैं। अस्पताल में भैया खुद भर्ती हुए थे, अपने सहकर्मियों के कहने और विश्वास पर। साथ ही ESIC के दम पर जिन पर उनका पूरा अधिकार था। और विश्वास कि जितना होगा पूरा खर्च उनके नियोक्ता व सहकर्मी उठाएंगे। लेकिन बिल की रकम सुनते ही बातें घूमने लगीं। अस्पताल में हमने चक्कर लगाने शुरू किए। मोबाइल में जिन दोस्तों का नम्बर था सब को फ़ोन किया। सब ने रास्ते सुझाये, कुछ ने सामने से बढ़कर प्रयास भी किये। प्रयास के छुटपुट नतीजे भी आएं लेकिन दिक्कत वही कि पैसे तो देने होंगे, उतने नहीं तो थोड़ी सी छूट के बाद जो बने वह। जो बहुत बड़ी रकमजुटाने की हम नहीं सोच पा रहे थे हम अब थोड़े छूट के बाद कि बड़ी रकम कैसे चुका पाएंगे भला। अस्पताल वाले कह रहे कि उनकी क्या गलती है। हम कह रहे तो क्या मरने वाले कि गलती है जिसे विश्वास पर इस अस्पताल भेजा गया? गलती। उफ़्फ़ मृत्यु के बाद यह तय करें कि गलती किसकी है। गलती से पहले गलत देखते हैं। शव "मुर्दा गृह" में है। वह शव जो कुछ घण्टों पहले तक पाँच लोगों के परिवार के इकलौते आस थे, वह मुर्दाघर में थे, निष्क्रिय व निश्चिन्त। मुर्दाघर के बाहर अस्पताल में उनकी पत्नी, उनकी बहन-बहनोई और मैं चचेरा भाई, यह सोच रहे अब क्या होगा। बहनोई की आँखें आँसू छुपा छुपा कर लाल हो चली हैं। पत्नी और बहन के आँसू सूख चुके हैं और सिसकियां बची हैं, रह रह कर वह फफक पड़ती है। अंधेरे में सना अस्पताल का रिसेप्शन क्षेत्र कराह उठता है, बाकी मरीज़ो के परिजन भी व्याकुल हो उठते हैं। क्या किया जाए। क्या यह सब गलत नहीं है? एक परिवार को उनके मृत सदस्य का शव ना सौंपना क्योंकि उनके पास पैसे नहीं है, गलत नहीं है? बच्चों से उनके पिता के शव को घंटों तक दूर रखना, गलत नहीं है? इतने पैसों की व्यवस्था सिर्फ लाश लेने के लिए फिर अंत्येष्टि, क्रियाकर्म, व श्राद्ध में होने वाले खर्चों का क्या। क्या सब गलत नहीं है? पैसा बहुत ज्यादा है। हम लोगों के लिए असंभव के करीब। हज़ारों हज़ार खर्च होते हैं दाह संस्कार और उसके बाद होने वाले क्रियाकर्म में। उसके पैसे कहाँ से आएंगे?
यह सब सोचते हुए लिखना भारी हो रहा है। यह मृत्यु का अनादर है। लोग कहते हैं, मरने के बाद का किसने देखा है? देखना चाहिए। मर जाने वालों को देखना चाहिए कि क्या होता है उनके बाद। एक-एक कर जब निजी अस्पताल पैसे गिनवाने में लगते हैं वह देखना चाहिए। बिल में 2.40 लाख करीब की फार्मेसी है, मतलब दवा और इंजेक्शन। कौन सी इतनी महंगी फार्मेसी थी जो एक गरीब की ज़िंदगी ना बचा पाई। अभाव में आत्महत्या कर लेने वाले, किसी अपराध में मार दिए जाने वाले, किसी छोटी सी घटना में भीड़ द्वारा मार दिए जाने वाले, मानसिक तनाव से खुद को मिटा देने वाले लोगों के बारे में सोचा जाना चाहिए कि उनके बाद क्या? अस्पताल में चल रहे इलाज़ के दौरान सोचा जाना चाहिए कि इसके बाद क्या? उन मित्रों को सोचना चाहिए कि उनसे मांगी गई मदद के बदले 'ये करते न' से कुछ नहीं सुधरेगा। इस मृत्यु ने मेरे कई मिथक ध्वस्त किये हैं। सबसे बड़ी तो यह कि ज़िन्दगी अनमोल हो सकती है लेकिन मृत्यु बहुत महंगी है। बाकी कल सुबह क्या होता है, देखा जाएगा।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

आइए समझते हैं

जनसंख्या नियंत्रण क़ानून सिर्फ़ क़ानून नहीं बल्कि नफ़रत से जन्म हथियार है

- अंकित नवआशा 


आप में से बहुत लोगों ने यह खबर साझा होते हुए देखा होगा कि गोरखपुर से भाजपा सांसद रवि किशन जनसंख्या नियंत्रण पर एक प्राइवेट मेंबर बिल (विधेयक) पेश करने जा रहे हैं। अब बिल पेश करना एक सांसद का काम है और यह उन्हें जरूर करना चाहिए। जानकारी के बता दूं कि संसद के दोनों सदनों में कुल दो तरह से बिल पेश होते हैं एक सरकार द्वारा (सम्बंधित मंत्रालय द्वारा) और दूसरा सांसद द्वारा प्राइवेट मेंबर बिल। और यह सभी बिल जो चार प्रकार के हो सकते हैं: ऑर्डिनरी बिल, मनी बिल, फाइनेंस बिल व संविधान संशोधन बिल। हालांकि एक पांचवा प्रकार भी होता है वह है ऑर्डिनेन्स रिप्लेसमेंट बिल।
आज बात प्राइवेट मेम्बर बिल की। मुझे समझ नहीं आता कि रवि किशन का बिल पेश करना इतनी बड़ी खबर क्यों है? इसलिए कि वह एक राजनैतिक मुद्दे को बिल के रूप में लोकसभा में पेश करेंगे जिसकी एक झलक नीति के रूप में उत्तर प्रदेश में पहले ही पेश की जा चुकी है? क्योंकि प्राइवेट मेंबर बिल का जो ऐतिहासिक रूप से हश्र हुआ है वह दयनीय ही कह सकते हैं। चलिए आपको आँकड़ों से समझाता हूँ।
2014 से 2021 के बीच दोनों सदनों को मिलाकर कुल 1585 प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया गए हैं जिसमें लोकसभा में 1263 और राज्यसभा में 322 बिल शामिल हैं। सबसे ज्यादा सन 2016 में 343 बिल पेश हुए तो वहीं 2015 में 341 बिल। 2020 के दो सत्रों में सिर्फ 12 बिल पेश हो पाए। इन 1585 में से सिर्फ 1 बिल पारित हो पाया वह भी राज्यसभा में। ट्रासंजेंडर समुदाय के अधिकारों को सुरक्षित करने वाला विधेयक। लोकसभा में पेश किए जाने से पहले ही इसपर तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्रालय ने लोकसभा में एक सरकार की ओर से बिल पेश कर दिया। लोकसभा द्वारा इसे पारित भी किया गया लेकिन आगे चल कर इसका कुछ भी नहीं हुआ और यह लैप्स हो गया। इसके अलावा इन 7 सालों में 1584 विधेयकों का भी कुछ नहीं हुआ। इनमें से 15 तो सांसदों ने स्वयं ही वापस ले लिए, 82 अभी तक लंबित हैं, और 1284 खुद ही लैप्स कर गए।
यह भी समझने वाली बात है कि यूपीए के 10 वर्षों के कार्यकाल में 2004 से 2014 के बीच 1264 प्राइवेट मेंबर बिल पेश किए गए थे और उस में से भी एक भी बिल कानून नहीं बन पाया था। इसी तरह 1998 से 2003 के बीच 652 बिल पेश हुए लेकिन एक भी कानून बनना तो दूर सदन से पारित भी नहीं हुआ। मतलब पिछली पांच सदनों में 1998 से 2021 के बीच 3500 से अधिक प्राइवेट मेंबर बिल पेश हुए पर एक भी कानून नहीं बन पाए। इसके विपरीत इस दौरान सरकार ने दोनों सदनों में कुल 1436 बिल पेश किए और उसमें 984 विधेयक कानून बन चुके हैं। सीधा आँकड़ा कि सरकार द्वारा पेश किये गए विधेयकों में करीब 70% विधेयक कानून बन गए वहीं सांसदों द्वारा पेश किए गए 3500 से अधिक बिल्स में से सिर्फ 2 मतलब 0.01% पारित हुए और कानून तो एक भी नहीं।
फिर एक प्राइवेट मेंबर बिल पर इतना हो हल्ला क्यों? क्या प्राइवेट मेंबर बिल्स के प्रति सदन का रुख बदलने वाला है? या फिर सरकार नहीं चाहती कि यह जनसंख्या नियंत्रण विधेयक वह पेश करे, वह अपने सांसदों से ऐसे विधेयक पारित करवाना चाहती है। अगर इस प्राइवेट मेंबर बिल पर सदन कोई सक्रिय भूमिका निभाती है तो यह निष्कर्ष निकाला जाए कि यह सरकार का ही एक विधेयक है जिसे एक सांसद पेश कर रहा है, ख़ैर इस विधेयक के अंदर का विषयवस्तु देखना होगा कि चार बच्चों (3 बेटियां व एक बेटा) के पिता जनसंख्या नियंत्रण पर कहना क्या चाहते हैं।
एक प्राइवेट मेंबर बिल पर जब हो हल्ला होने लगे तो समझिए कि वह प्राइवेट मेंबर बिल मात्र नहीं है वरना इससे कई ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दों पर बिल्स पेश हुए हैं और उनका कुछ नहीं हुआ।

रविवार, 20 जून 2021

Movie Essay

"शब्द, शब्द के अर्थ, व अर्थ की परतों में छिपी है शेरनी की ताकत"

- अंकित नवआशा


"अगर 10 में से 6 लोग ये मानते हैं कि हत्या टाइगर ने की है तो हत्या टाइगर ने की है, लोगों की भावनाओं से बढ़कर आपके सबूत नहीं हैं"।
फ़िल्म शेरनी में यह संवाद तब आता है जब जंगल में एक शेरनी को ढूंढ़ने की जद्दोजहद है, क्योंकि वह मवेशियों के साथ अब इंसानों को भी मारने लगी है। वन मंडल अधिकारी विद्या विंसेंट व उनके दल कहते हैं कि अंतिम हत्या शेरनी ने नहीं बल्कि भालू ने की है, और जंगल में भालू भी है हम यह फ़िल्म के पहले 10 मिनट में ही देख लेते हैं। लेकिन अधिकांश लोगों को लगता है कि हत्या शेरनी ने की है, जबकि सच है कि हत्या भालू ने की है।
हम आज कल इसी "लगता है" और "सच ये है" की दौर से गुजर रहे हैं। अधिकांश को लगने वाले को ही सच बना कर परोसा जा रहा है ताकि हम दूसरे मामलों में न उलझ कर अपना एक दुश्मन एक लक्ष्य बना कर चलते रहे। फिर नतीजा जो भी हो। आप इस पर कई उदाहरण देख सकते हैं कि लोगों को क्या लगता है और सबूत क्या है में किसी तवज्जो मिली है। शेरनी भी यही है। सबूत है कि यह एक बेहतरीन फ़िल्म है, कहानी-पटकथा-संवाद-पार्श्व संगीत-अभिनय-निर्देशन-छायाचित्र सब कुछ बेहतरीन है लेकिन लोगों को लगता है कि यह फ़िल्म नहीं डॉक्यूमेंट्री है। तो लोग इसे निरा बकवास, उबाऊ डॉक्यूमेंट्री मानेंगे, लेकिन सच यह है कि यह फ़िल्म धीरे-धीरे चढ़ने वाले नशे की तरह है। जब आप पहली बार देखेंगे तो कहानी समझेंगे, दूसरी बार में संवाद और तीसरी बार मे मूल। अब नशे के लिए तीन बार देखना तो बनता है।
निर्देशक हैं अमित मसूरकर। इससे पहले सुलेमानी कीड़ा और न्यूटन बना चुके हैं। दोनों कमाल। न्यूटन कमाल से आगे की श्रेणी में है। न्यूटन व शेरनी में कई चीज़े समान हैं। जंगल, एक सरकारी अधिकारी, जंगल के लोग, चुनाव, सरकारी प्रक्रिया, और कुछ अनुभवी धुरंधर। लेकिन इन्हीं समानताओं में कूट कूट कर असमानताएं भी छिपी हैं जैसे न्यूटन में जंगल में रह रहे लोग अन्य युग के लोग थे, इस बार उनके पास मोबाइल है, कॉलेज जाने के सपने हैं, गाड़ी है और सबसे जरूरी सरकारी अधिकारियों के प्रति आक्रोश है। समान लेकिन असमान। मतलब जंगल में भी कई कहानियां हैं; जंगल में फंसने, भूत व डकैतों के परे। शेरनी जंगल के अंतस में छिपी सबसे जरूरी कहानी है। क्योंकि यह कहानी दो प्रजातियों के द्वंद्व के बारे में हैं। इंसान व जानवर।
इंसान को लगता जंगल उसका। जंगल को लगे जानवर उसके। जानवर को क्या लगे हम कैसे बताएं। यही मामला है पूरा। हम अपने हिस्से का भी सोच लेते हैं और जानवरों के हिस्से का भी। जैसे अमीर लोग गरीब के हिस्से का भी सोच लेते हैं, आदमी लोग औरत के हिस्से का भी और बड़े लोग बच्चो के हिस्से का भी। यह किसी और के हिस्से जा सोचना भी बड़ी दिक्कत वाली बात है, सब दिक्कत यहीं से आती है। मुझे शेरनी अद्भुत फ़िल्म लगी। कुछ लोग यह भी पूछ रहे हैं कि फ़िल्म का नाम शेरनी क्यों है जबकि हिंदी में बाघिन होता है। मेरे ख्याल से शेरनी से आशय भारतीय वन सेवा से निकली वन मंडल अधिकारी विद्या विंसेंट से है। क्योंकि शेरनी जंगल मे शेरों के बीच भी अपना वजूद बना कर रखती है। शेर के लिए भी शिकार वह खुद करती है जैसे फ़िल्म में अपने पति पवन की मंडी की मारी बिजनेस के बावजूद विद्या घर के लिये रोटी कमाती है। "यह मुझे लगता है, सच पता नहीं"।
जरूरी यह भी कि फ़िल्म का इस समय आना बहुत जरूरी था। बक्सवाहा में 2 लाख पेड़ काटने वाले हैं हीरे के लिए, मुम्बई में मैंग्रोव काट रहे कोस्टल रोड के लिए, नियमगिरि तो खत्म कर दी, उत्तराखंड में हिमालय काट रहे चार धाम यात्रा वाले एक्सप्रेस वे के लिए, गोआ में कोयला खदान के लिए पेड़ काटने को तैयार थे, मुम्बई से अहमदाबाद बुलेट ट्रेन में 50000 से अधिक पेड़ काटे जाने हैं और ना जाने कितनी ही जगह शेर, बाघ, हाथी, घड़ियाल, पक्षियों के पर्यावास के जंगल काट कर वहां तीर्थ स्थल, घूमने की जगह, आश्रम, कार्यालय, खदान, कारखाने, व बाँध इत्यादि बना दिये गए। और बदले में सी एस आर का लॉलीपॉप दे कर वहां के कुछ लोगों के लिये स्कूल खोल दिये, उनका संसाधन छीन कर उन्हें स्वयम पर आश्रित कर खाना खिला दिया और शौचालय के दीवार रंग दिए। हो गयी महानता। शेरनी में जंगल के बीच कॉपर के लिए खुदे खदान को देख कर सवाल जरूर पूछियेगा कि अगर शेरनी उस खदान में गिर गयी तो किसकी गलती होगी, रास्ते मे अगर वह किसी मनुष्य से टकराई तो किसकी गलती होगी।
फ़िल्म की तकनीक के बारे में बार बार बात की जा सकती है और अभिनय के तो क्या कहने। विद्या बालन पिछले दो दशक की हिंदी फिल्मों की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री हैं और इसमें कोई किंतु परन्तु की गुंजाइश नहीं। और बाकी कलाकार भी कमाल के हैं। उस पर बड़े बड़े धुरंधर लिख चुके हैं। लेकिन मैं फिल्मों के टेक्स्ट को पढ़ता हूँ, उसके लेखन को। वह भी जो वह कहना चाहती है, वह भी जो कह नहीं रही लेकिन कह दिया गया। 2018 में आई स्त्री के बाद यह दूसरी ऐसी फिल्म है जिसमें एक संवाद के कई मतलब है। सब अपने अपने हिस्से से उसका वर्णन करें। और इसीलिए मुझे फ़िल्म की लेखन जबरदस्त लगी। जब एक संवाद के कई मतलब होते हैं तब लेखक पात्र से अपने हिस्से की बात भी कहलवाता है।
चलिए, इस वाले में इतना ही। आप भी फ़िल्म देखिए। प्राइम पर है। थोड़ा खर्च कीजिये।
और जाते जाते फ़िल्म का यह गीत जरूर सुनियेगा जिसे लिखा है हुसैन हैदरी ने व संगीत है बैंडिश प्रोजेक्ट का। इस गीत के बोल (आप अपना मतलब जरूर निकाले इसका) ये हैं:
खिंची जो रोटी बीच बाज़ार
लड़ी दो बिल्लियां पंजे मार
तो आया बन्दर एक होशियार
वो बोला क्यो लड़ते हो यार
ये झगड़ा मैं सुलझाऊंगा
हल सुझाऊंगा
रोटी बांट करके
उठा तराजू
वो रोटियां बन्दर मज़े से कहा गया
बिल्लियां देखती ही रह गयीं
और वह दिनदहाड़े छल गयीं
बात यह चुटकुला ही बन गयी
कि खा गया रोटी उनकी बन्दर।
ईंट किसी की
माटी किसी की
और किसी का रोड़ा
भानुमति ने नाम से अपने
आकर कुनबा अपना जोड़ा
बंदरबांट का खेला
खेले में हैं झमेले बड़े।
हूक निकल जाए सारी
लेने के फिर देने पड़े,
नींद में होवे हजामत
उठे तो फिर तोते उड़े।
छली गयी बिल्लियां बीच बाज़ार तो
बोली हुआ है अत्याचार
लगाई जंगल मे गुहार
तो सबके अलग अलग उपचार
भेड़ बोले ये तो होत है
भोलेभाले को खा ही जात हैं सब,
भालू बोला कोई बात नहीं,
पेड़ पे चढ़ कर शहद खा लो अब,
सियार ने कथा सुनी और
हुआ हुआ करके ही रह गया
साँप ने फ़न उठाएं और
दोष बिल्लियों के ऊपर ही मढ़ दिया।
बिल्लियां देख के जान गई
बात मान गयी रे
कथा का सार हो न हो
बात तय रही कि
खा गया रोटी उनकी बन्दर
खा गया रोटी उनकी बन्दर।
बातें हवाई बनके बवंडर
धूल जो जग में उड़ावे
सच्ची कथा और झूठी कथा में
फर्क नहीं रह जावे।
बंदरबांट का खेला
खेले में हैं झमेले बड़े।।

बुधवार, 2 जून 2021

व्यंग्य में उमंग

चमगादड़

- अंकित नवआशा
मैंने टीवी में किसी चैनल पर
सिर के बल खड़े चमगादड़ को भी देखा है
बिल्कुल उल्टा।
वह रह रह कर
नई नई तरंगे छोड़ देता है,
उसको देख, उसके ही जैसे
हज़ारों इंसान भी चमगादड़ बने खड़े हैं
सिर के बल, उल्टा।
जैसे चमगादड़ों को दिखता-सुनता नहीं
सिर्फ तरंगे पकड़ते हैं
वैसे ही ये भीड़ सामने हो या
टीवी के इस पार
तरंगों को ही पकड़ती है,
देखने और सुनने की
ज़हमत नहीं उठाती।।

रविवार, 23 मई 2021

व्यंग्य में उमंग

बंदर हँसते हैं 

- अंकित नवआशा 

बरसात आयी,
गरीब कौवे का घोसला उड़ गया,
बन्दर हंसते रहे,
उड़ते घोसलों की ताल पर,
मोर थिरकते रहे
बन्दर हंसते रहे
मुर्गे सुबह आके
बांग की जगह
गाली बकते
बंदर हंसते रहे,
बिल्ले दूध पीने में
मुंह जला बैठे
बन्दर हंसते रहे,
बिल्ले के मुंह जलने पर
चूहे नाचने लगे
बन्दर हंसते रहे,
शेर आया,
शेर फिसल गया,
फिसल के सर फुड़वा बैठा,
लोमड़ी ने ताली पीट कहा
पहले राजा हैं
जिन्होंने सर फुड़वाई देशहित में
बन्दर हंसते रहे
वहां से निकलते ही,
लोमड़ी के चिथड़े हो गए
बन्दर हंसते रहे।
चिथड़े के पास
आकर शेर बोला
बहुत दुख है पर
देशहित में करना पड़ा,
बन्दर हंसते रहे।।