शनिवार, 29 जनवरी 2022

Movie Essay

सृजन-संहार व इसके इर्द-गिर्द सब कुछ

- अंकित नवआशा
जीवन और मृत्यु। एक दर्शन है। सत्य है। अटल है। फिर भी कितना कुछ है इन दो घटनाओं के मध्य। जन्म है, पालन है और मृत्यु है। सृजन है, विध्वंस है और है इन दोनों के मध्य जीते जाना। जन्म मासूमियत है, जीते जाने का अर्थ है चालाकी, और मृत्यु है स्वयं पर विजय। इतनी गूढ़ दर्शन के साथ अगर कोई फिल्म बने तो सोचिए कितनी उबाऊ बन सकती है, लेकिन जब पहले 5 मिनट में पुलिस स्टेशन में हरि और शिवा एक दुर्घटना के बारे में बताते हैं जिसमें पुलिस वाले को किसी ने मारा है और जाते-जाते जब कैमरा स्लो मोशन में दरवाजे से बाहर जाकर सीढ़ी के पास अपनी लुंगी को कमर में बांधते शिवा के पांव पर जा कर रुकती है, जिसमें उसने पुलिस का ही जूता पहना है, तब समझ आता है यह कोई आम फिल्म नहीं बनी है। यह फिल्म अपने साथ एक नया जॉनर ले कर आई है, इस फिल्म ने फिर से गैंगस्टर थ्रिलर को परिभाषित किया है।
दो गैंगस्टर। एक हत्या के समय उन्माद के चरम पर होता है और हत्या के ठीक बाद क्रिकेट खेल रहा होता है। दूसरा अपने उन्माद तक पहुंचने में भी हत्या नहीं करता है, और अगर करता है तो फिर ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत हो स्वयम को पवित्र करता है। दोनों दोस्त हैं,दोस्त से बढ़ कर हैं और शायद एक दूसरे के प्रेमी भी। प्रेम शायद स्नेहरूपी। मित्रता शायद प्रेमरूपी। इसलिए कहानी के बढ़ते बढ़ते हम दोनों को अगाढ़ होते हुए भी देखते हैं तो धोखे पर दोनों के मध्य प्रेम के समाप्त होने जैसी प्रतिक्रिया ही निकलती है। शिवा और हरि। हरि की माँ है। शिव का कोई नहीं। उसकी उत्पत्ति स्वतः हुई, एक दिन अचानक वह हरि और उसकी माँ को कुएं में एक बोरे में मिला, गला कटा हुआ। मतलब उसकी उत्पत्ति स्वयं से हुई। हरि की माँ ने उसे अपना लिया। उसे बच्चे चिढ़ाते, मारते, बड़े उस पर ज़ुल्म करते। उस पर चोट का असर होता पर वह जवाब नहीं देता। किसी घोर तपस्या में लीन हो जैसे शिवा। स्वयं को ले कर उसे कोई चिंता न हो,लेकिन उससे जुड़े लोगों को लेकर भावुक। हरि कोई यदि कोई डराने की भी कोशिश करे तो शिव "तांडव" को आतुर है, उन्माद में विध्वंस की परिपाटी रच सकता है। दूसरी ओर हरि भी, शिव के उन्माद में अपना प्रेम ढूंढता है। आगे बढ़ने की लालसा है,चालाक है। शिव को वस्त्र और आभूषण से कोई लगाव नहीं, हरि आभूषण धारण किये हुए रहता है। तीसरा भी है। ब्रह्मैय्या। विवश। लाचार। ओहदा बड़ा लेकिन कमजोर। अकेला। पुलिस में सब इंस्पेक्टर। एक नए शहर में दिन भर मिल रही धमकियां। किसी के नज़र में कोई खास इज़्ज़त नहीं। और यहीं से शुरू होता है उसका अपना संघर्ष। सम्मान पाने का। फिल्म के अंत ने वह सम्मान अर्जित करता है, और उसी विधायक को चपत जड़ देता है जिसने कभी उसे डरपोक कहा था। यह था उसका स्वयं पर विजय। मृत्यु।
फिल्म में सबसे महत्वपूर्ण है, शहर। यह फिल्म शहर की आत्मा को जीवंत करने वाली कहानियों के कतार में खड़ी होती है। जैसे सत्या, गैंग्स ऑफ वासेपुर, आदुकालम, वाडा चेन्नई, अंगमालि डायरिज आदि। मंगलादेवी इस फिल्म में एक किरदार है। सबसे महत्वपूर्ण किरदार। गलियां, सड़कें, जंगल, समंदर, नदी। सब कुछ कहानी का हिस्सा है। यहां के त्यौहार, आयोजन, खेल, सब कुछ; एक किरदार। और इसी शहर में है हत्या के बाद लाश के चप्पल-जूते निकाल लेने वाला शिव, शिव के माध्यम से सीढ़ी चढ़ता हरि और अपनी नई पोस्टिंग पर अकेलेपन और लाचारी में रोता पुलिस वाला ब्रह्मैय्या। गैंगस्टर फिल्मों में पुलिस वालों का खास महत्व होता है। यहां भी है। कहानी का सूत्रधार तो पुलिस वाला ही है, लेकिन वह असहाय है, अपनी असहायता को छिपा कर नहीं रखता, वह व्यक्त करता है। वह विधायक से जा कर स्वयं को ट्रांसफर करने की बात करता है, उसके थप्पड़ खाता है, जलील हो कर नज़रें चुराता है, फूट फूट कर अकेली में रोता है। लेकिन लड़ता है। दो खूंखार गैंगस्टर का अंत लिखता है, सोचता है, करता है।
यह एके असाधारण फिल्म है। आम सी कहानी लेकिन हिन्दू मिथकों से निकले आयाम और कहानी के घटनाक्रम इसे अभूतपूर्व बनाते हैं। बड़ी बात यह कि फिल्म से ज्यादा फिल्म में प्रस्तुत किये गए मिथक से जन्मे समानताओं पर चर्चा की जाएगी, फॉर्मूला तोड़ने की बात की जाएगी, फिल्म में महिलाओं की अनुपस्थिति पर बात की जाएगी, एक उन्मादी हत्यारे से सहानुभूति की बात की जाएगी, अधूरे रह गए अंत और बीच बीच में रीढ़ कंपा देने वाले डर की बात की जाएगी। पिछले 10 सालों में लगभग भारत की सभी मुख्य भाषाओं में बननेवाली फिल्मों में एक अच्छी गैंगस्टर थ्रिलर फिल्म जुड़ गई है; हिंदी में गैंग्स ऑफ वासेपुर, तमिल में वाडा चेन्नई, मानग्रामम, मलयालम में अंगमालि डायरिज, तेलुगु में प्रस्थानम, मराठी में मुलशी पैटर्न, बांग्ला में बाईशे स्राबोन और अब कन्नड़ में गरुड़ गमन वृषभ वाहन। इस ऐतिहासिक फिल्म का लुत्फ जरूर लेना चाहिए।