डायरी से
- अंकित नवआशा
यह मेरे परसो रात के नोट्स हैं जो मैंने अपने चचेरे भाई की मृत्यु हो जाने और अस्पताल द्वारा उनके शव को ना सौंपे जाने के बाद लिखा था। दो दिन से मन बेचैन था। आज समय मिला आपसे साझा करने का:
बहुत अजीब रात है। मैंने इससे पहले ऐसी रात नहीं काटी। अस्पताल में किसी के लाश की प्रतीक्षा में। किसी नहीं एक बड़े भाई की लाश। चचेरे बड़े भाई। जिनसे बचपन में पढ़े भी हैं, और जवानी में बहसें भी की हैं। लाश नहीं मृत शरीर। क्या शब्द दें, छोड़िए। वैचारिक रूप से इनसे बहुत मतभेद रहे, इतने कि एक समय उन्हें सोशल मीडिया से ब्लॉक और अनफ़्रेंड करना पड़ा। लेकिन मृत्यु सभी दायरे भर देती है, सभी वैचारिक मतभेद मिटा देती है। जिनकी मृत्यु हुई है वह तीन बच्चों के पिता थे: दो बेटियां और एक बेटा। तीनों ही अभी नाबालिग़। दो तो अभी हाई स्कूल भी नहीं पहुँचे हैं। दुखद क्षण है।
जब शाम को ख़बर मिली तो अस्पताल के लिए निकल पड़ा। यह सोचे बिना कि क्या होगा, कैसे होगा। क्या करना पड़ता है, कुछ खबर नहीं। कुछ महीनों पहले यह हालत ना जाने कितनों की हुई थी पूरे देश में। यह अस्पताल वाली हालत। मृत्यु करीब 3 बजे हुई, मैं अस्पताल 7 बजे करीब पहुँचा। ग़ाज़ियाबाद में यशोदा अस्पताल। भीगते, पानी से लबालब सड़कों से होते हुए। फिर जब अस्पताल आया तो मालूम हुआ कि मामला बहुत बुरी जगह आ कर फंस गया है। 5 दिन से भर्ती भैया के मृत्यु के बाद उनके शरीर को अस्पताल से वापस लेने के लिए बहुत बड़ी कीमत वाला बिल चुकाना पड़ेगा। शायद बहुत बड़े वर्ग को यह बहुत ज्यादा ना लगे पर हम जैसे निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लिए यह बहुत ज्यादा है। करीब 3 लाख रु का बिल। चुकाओ और शरीर ले जाओ। हमारे पास पैसे नहीं हैं। अस्पताल में भैया खुद भर्ती हुए थे, अपने सहकर्मियों के कहने और विश्वास पर। साथ ही ESIC के दम पर जिन पर उनका पूरा अधिकार था। और विश्वास कि जितना होगा पूरा खर्च उनके नियोक्ता व सहकर्मी उठाएंगे। लेकिन बिल की रकम सुनते ही बातें घूमने लगीं। अस्पताल में हमने चक्कर लगाने शुरू किए। मोबाइल में जिन दोस्तों का नम्बर था सब को फ़ोन किया। सब ने रास्ते सुझाये, कुछ ने सामने से बढ़कर प्रयास भी किये। प्रयास के छुटपुट नतीजे भी आएं लेकिन दिक्कत वही कि पैसे तो देने होंगे, उतने नहीं तो थोड़ी सी छूट के बाद जो बने वह। जो बहुत बड़ी रकमजुटाने की हम नहीं सोच पा रहे थे हम अब थोड़े छूट के बाद कि बड़ी रकम कैसे चुका पाएंगे भला। अस्पताल वाले कह रहे कि उनकी क्या गलती है। हम कह रहे तो क्या मरने वाले कि गलती है जिसे विश्वास पर इस अस्पताल भेजा गया? गलती। उफ़्फ़ मृत्यु के बाद यह तय करें कि गलती किसकी है। गलती से पहले गलत देखते हैं। शव "मुर्दा गृह" में है। वह शव जो कुछ घण्टों पहले तक पाँच लोगों के परिवार के इकलौते आस थे, वह मुर्दाघर में थे, निष्क्रिय व निश्चिन्त। मुर्दाघर के बाहर अस्पताल में उनकी पत्नी, उनकी बहन-बहनोई और मैं चचेरा भाई, यह सोच रहे अब क्या होगा। बहनोई की आँखें आँसू छुपा छुपा कर लाल हो चली हैं। पत्नी और बहन के आँसू सूख चुके हैं और सिसकियां बची हैं, रह रह कर वह फफक पड़ती है। अंधेरे में सना अस्पताल का रिसेप्शन क्षेत्र कराह उठता है, बाकी मरीज़ो के परिजन भी व्याकुल हो उठते हैं। क्या किया जाए। क्या यह सब गलत नहीं है? एक परिवार को उनके मृत सदस्य का शव ना सौंपना क्योंकि उनके पास पैसे नहीं है, गलत नहीं है? बच्चों से उनके पिता के शव को घंटों तक दूर रखना, गलत नहीं है? इतने पैसों की व्यवस्था सिर्फ लाश लेने के लिए फिर अंत्येष्टि, क्रियाकर्म, व श्राद्ध में होने वाले खर्चों का क्या। क्या सब गलत नहीं है? पैसा बहुत ज्यादा है। हम लोगों के लिए असंभव के करीब। हज़ारों हज़ार खर्च होते हैं दाह संस्कार और उसके बाद होने वाले क्रियाकर्म में। उसके पैसे कहाँ से आएंगे?
यह सब सोचते हुए लिखना भारी हो रहा है। यह मृत्यु का अनादर है। लोग कहते हैं, मरने के बाद का किसने देखा है? देखना चाहिए। मर जाने वालों को देखना चाहिए कि क्या होता है उनके बाद। एक-एक कर जब निजी अस्पताल पैसे गिनवाने में लगते हैं वह देखना चाहिए। बिल में 2.40 लाख करीब की फार्मेसी है, मतलब दवा और इंजेक्शन। कौन सी इतनी महंगी फार्मेसी थी जो एक गरीब की ज़िंदगी ना बचा पाई। अभाव में आत्महत्या कर लेने वाले, किसी अपराध में मार दिए जाने वाले, किसी छोटी सी घटना में भीड़ द्वारा मार दिए जाने वाले, मानसिक तनाव से खुद को मिटा देने वाले लोगों के बारे में सोचा जाना चाहिए कि उनके बाद क्या? अस्पताल में चल रहे इलाज़ के दौरान सोचा जाना चाहिए कि इसके बाद क्या? उन मित्रों को सोचना चाहिए कि उनसे मांगी गई मदद के बदले 'ये करते न' से कुछ नहीं सुधरेगा। इस मृत्यु ने मेरे कई मिथक ध्वस्त किये हैं। सबसे बड़ी तो यह कि ज़िन्दगी अनमोल हो सकती है लेकिन मृत्यु बहुत महंगी है। बाकी कल सुबह क्या होता है, देखा जाएगा।