PM CARES: सब कुछ ठीक है क्या?
- अंकित झा
प्रक्रिया परिणाम से अधिक आवश्यक होती हैं। परिणाम कितना भी न्यायोचित हो परंतु यदि उसकी प्रक्रिया पर प्रश्न उठ जाएँ तो निश्चित ही परिणाम पूर्ण रूप से न्यायोचित नहीं है। प्रधान मंत्री राहत कोष बनाम PM CARES का मामला वही है। अरबों रूपये के दान के साथ इस समय यह ट्रस्ट सबसे अधिक फ़ंडिंग वाले ट्रस्टों में से एक है।
- प्रश्न यह है कि इस पर प्रश्न करना कितना उचित या अनुचित है।
पहली बात तो ये कि देश में प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष तथा राष्ट्रीय संचित निधि के होते हुए यह नया ट्रस्ट के गठन की क्या आवश्यकता थी?
सरकार की ओर से इसका एक उत्तर यह है कि राष्ट्रीय राहत कोष प्राकृतिक आपदा के लिए होता है जो कि कोविड-19 नहीं है और संचित निधि के उपयोग हेतु संसद की सहमति लगती है। जो कि इस समय पर नहीं मिल सकती थी। पी एम cares का अधिकारिक स्टेट्मेंट 28 मार्च को आया जबकि जब देश कोविड-19 के चपेट में काफ़ी हद तक था तब संसद का सत्र चल रहा था। अंतिम सत्र 23 मार्च को हुआ जिसमें बिना किसी चर्चा के दो बिल पास हुए और दो बिल सदन में बिना किसी पूर्व सूचना के पेश भी कर दिए गये। क्या इस समय संचित निधि उपयोग करने के लिए प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता था? यदि हाँ, तो क्यों नहीं लाया गया? और राष्ट्रीय राहत कोष में ही एक बदलाव क्यों नहीं लाया गया जिसमें राष्ट्रीय आपदा के अतिरिक्त दुर्घटना व दंगा पीड़ितों को भी राहत दी जाती है? यदि इसके साथ मुख्य स्वास्थ्य आपदा क्यों शामिल नहीं किया गया?
ऐसे कई क्यों हैं जो इससे जुड़ा हुआ है।
- दूसरी बात ये है कि पी एम CARES एक पब्लिक चेरिटबल ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत बताई जा रही है। यदि यह एक चेरिटबल ट्रस्ट है तो निश्चित ही यह "इंडीयन ट्रस्ट ऐक्ट, 1882" के अंतर्गत पंजीकृत होगी। 'चैरिटी' संविधान के 'समवर्ती सूची" का एक विषय है अतः इसको लेकर केंद्रीय व राज्य क़ानून लागू होते हैं। परंतु प्रश्न यह है कि "ITA 1882" के हिसाब से इस फ़ंड का ढाँचा थोड़ा अलग है। ढाँचा के साथ साथ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह "सूचना का अधिकार" के अंतर्गत आता है? मेरे हिसाब से नहीं। शायद थोड़ा और छानबीन कर के और बेहतर उत्तर खोज पाऊँ लेकिन अभी के हिसाब से तो नहीं। क्यों? क्योंकि ये ट्रस्ट संसद द्वारा पास नहीं किया गया, इसमें सरकारी पैसे नहीं लग रहे, इसमें सरकारी की भागेदारी सिर्फ़ इतनी है कि इसके अध्यक्ष प्रदान मंत्री हैं और सदस्य कुछ अन्य मंत्री। जब सरकारी पैसा शामिल नहीं है मतलब सरकारी जवाबदेही कम होती है।
- तीसरा यह कि माइक्रो फ़ंडिंग के लिए किया गया है। इस तर्क से सहमत है लेकिन बात वही कि राष्ट्रीय राहत कोष की सीमा भी तो कम की जा सकती थी। शायद इसलिए ना किया हो क्योंकि उसकी स्थापना नेहरु ने की थी। इसके साथ एक यह भी तर्क है कि लोग राष्ट्रीय राहत कोष में ज़्यादा दान नहीं देते क्योंकि प्राकृतिक आपदा देश के एक हिस्से में आती है और उससे दूसरे हिस्से के लोगों को ज़्यादा असर नहीं पड़ता फिर बिहार, केरल, महाराष्ट्र के बाढ़ के समय जगह दान लेने वाले paytm और अन्य इकाइयों को कैसे अनुमति दे दी गयी थी। लोगों ने ख़ूब दान किया था। 2019 तक इस कोष में क़रीब 3800 करोड़ उपाए थे जो 2014-15 में क़रीब 1500 करोड़ था। PM CARES जितनी पब्लिसिटी अगर इसे मिलती तो इसे भी ख़ूब दान मिलता।
और तर्क नहीं, हाँ एक आय कर छूट वाला भी तर्क है। लेकिन थोड़ा ज़्यादा हो जाएगा। वो छोड़ देते हैं।
जहाँ तक बात है प्रक्रिया की तो ये भी इतिहास में याद रखा जाएगा कि वैश्विक महामारी के समय प्रधानमंत्री ने तीन सम्बोधन किए एक मन की बात की और उसमें क्रमशः "जनता कर्फ़्यू", "धन्यवाद देने के लिए ताली", "21 दिन का लॉकडाउन", और "9 बजे का दीप प्रज्ज्वलन कार्यक्रम" की घोषणा कर के निकल लिए। स्वास्थ्य सेवाओं पर कोई टिप्पणी नहीं, हाल ही में हुए G-20 बैठक में लिए फ़ैसलों पर कोई बात नहीं, मज़दूरों को हुई असुविधा व उनके जीविका व जीवन के ख़तरे पर कोई बात नहीं, और यहाँ तक कि आगे के क़दम पर कोई बात नहीं। बस बोल के निकल जाना और उनके पीछे छूटे भूसे पर सब डंडे पीटते रहें। कमज़ोर व्यक्ति प्रश्नों से डरता है, उससे भी कमज़ोर प्रश्न के नाम से और सबसे कमज़ोर अपने पसंद के प्रश्न ही पूछवाना चाहता है। जो भी श्रेणी हो 56 इंच छाती वाले को वहाँ डालें। जनता कर्फ़्यू, ताली थाली, दीप प्रज्ज्वलन, लॉकडाउन सिर्फ़ इन्होंने ही नहीं करवाए, सभी देशों ने करवाए हैं लेकिन उसके साथ साथ जिस तरह की अन्य सुविधाएँ और कार्यक्रम चलाए गये हैं वो भी देखे जाएँ। जिस rतह की फूर्ति, समर्पण और तत्परता मुख्यमंत्रियो ने दिखायी है उसके दसवाँ हिस्सा भी अगर ये दिखाएँ तो लोगों में विश्वास बने। लेकिन नहीं परिणाम प्रक्रियाओं को छिपा लेगा। इस बार मुझे नहीं लगता क्योंकि इस बार का परिणाम पूरी तरह प्रक्रिया पर निर्भर है।