बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

इतिहास के सौतेले दरिंदे: दंगे। 

- अंकित झा 

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एक एक कर जो अब बढ़ रही हैं वो न्यूज़ में दिखने वाली संख्या मात्र हैं। मनुष्य की मृत्यु का दुर्घटना होना बहुत पुरानी बात हो चुकी है अब। इतने लोग मारे गए हैं। किसने मारा? क्यों मारा? एक कानून के विरोध में? शायद नहीं। कानून का विरोध तो तब ही कुचल दिया गया था जब विरोध में बैठे लोगों को आतंकवादी, देशद्रोही, बिके हुए उपद्रवी कह दिया गया था। तमाम विरोध के बाद भी एक कानून आता है। लोग विरोध जाती रखते हैं, विरोध में छात्र भी भाग लेते हैं, सरकारी पदों से इस्तीफा दिया जाता है, धरनों में शांति की अपील होती है, एक दंगा होता है, पुलिसिया कार्रवाई होती है, लोग मारे जाते है।
क्या कुछ याद नहीं आया? मुझे तो हूबहू याद आया। फरवरी 1919। एक कमिटी बनी। रौलेट कमिटी। एक कानून का प्रस्ताव। अनार्कीकल एंड रेवोल्यूशनरी क्राइम्स एक्ट। तमाम विरोध के बाद भी उसका पास होना। विरोधों का जारी रहना। गाँधी का उदय। फिर पंजाब में खूंखार दंगे। और फिर जलियांवाला बाग़। मृत्यु। मृत शरीरों का ढ़ेर। बस अंतर ये है कि उस दौर में क्रूर ब्रिटिश हम पर राज कर रहे थे, और अब देश के लोगो द्वारा चुनी गई सरकार। गोलियां चलाने वाले उस दौर में भी सरकारी गुंडे थे और इस दौर में भी निस्संदेह वही। कुछ वर्दी में कुछ बिना वर्दी के। राज्य में हिंसा पर अगर सरकार का नियंत्रण नहीं तो फिर वो सरकारी हिंसा है। ऐसी कोई हिंसा नहीं जिसे सरकार रोक ना सके, अगर नहीं रुक रहा है तो दो राय नहीं कि सरकार चाहती है कि हिंसा हो। दिल्ली के मामले में ये दोनों सरकारे हैं। आश्चर्य ये है कि अभी भी दोषी तय किये जा रहे हैं, दोष नहीं।
दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं, हक़ बाँटने वाले बहुत कम। समस्या बाँटने वाले बहुत होते हैं,परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले। इस दंगे के भी यही कुछ परिणाम होंगे यह तय है। इस दंगे की इतिहास में दो सबसे बड़े गुनाहगार होंगे: दिल्ली पुलिस और देश की मेन स्ट्रीम मीडिया। इन दोनों ने दंगे उकसाये या भड़काए नहीं है बल्कि इस बार दंगों में बराबर के हिस्सेदार हैं। बीते कई सालों से मीडिया के न्यूज़रूम और स्टूडियो में हर रोज़ के बार दंगे हुए हैं। खुलेआम वो बातें कहीं गयी जो पहले अकेले में भी बोली नहीं जाती थी। एक एक करके हिंसा व नफरत की पराकाष्ठा के नींव डाले गए ताकि एक दिन ये किया जा सके। मेरा यक़ीन मानिए ये उनकी पराकाष्ठा नहीं है। ये पराकाष्ठा से पहले वाला पायदान है। उनकी पराकाष्ठा कितनी खतरनाक होगी इसकी कल्पना ही हमें हिला देनी चाहिए। आप सबको, हम सबको हिंसा के लिए इतना उत्सुक कर दिया गया कि कई लोग हिंसा में असहाय हैं तो बड़ा तबका हिंसा से खुश।
ये खुशी हमारी सामूहिक हार है।
PS: हाँ, भीषण विद्रोह-हिंसा के तीन साल बाद 1922 में रौलेट कानून को निरस्त कर वापस ले लिए गया था। वो अंग्रेज़ थे। अपने वालों से क्या उम्मीद रखें? देखते हैं इन्हें कानून प्यारा है या नागरिक।

रविवार, 9 फ़रवरी 2020

मूवी रिव्यू

शिकारा: नफ़रत, संघर्ष और प्रेमपत्र ।

- अंकित झा 
फ़िल्म शिकारा एक सफल फ़िल्म होती यदि उसे एक विशुद्ध फ़िल्म के रूप में बनाई जाती तो। किसी भी प्रेम कहानी के लिए आवश्यक है दो प्रेमी (फिर वो किसी भी रूप में हों) और उनकी परीक्षा के लिए खड़े किए गए हालात। फिल्मों में कभी वो आर्थिक असमानता होती है, कभी कोई तीसरा व्यक्ति जो दोनों में से किसी को प्रेम करता हो या फिर कोई सामाजिक या राजनीतिक कलह। इस फ़िल्म में दो प्रेमी हैं; शिव और शान्ति, शिव और कश्मीर, शांति और शिकारा (जो शिव और शांति का घर है), पण्डित व मुस्लिम, और साथ साथ बहने वाले मित्र, रिश्तेदार और तरक्कियां। पहली प्रेम कहानी मार्मिक है। काफी इत्तेफ़ाक़ से शिव और शांति मिलते हैं, फिर एक दूसरे के हो जाते हैं। कोई दिक्कत नहीं। हाँ इस बीच एक भयावह राजनैतिक और सामाजिक कलह इन दोनों की व्यक्तिगत रूप से खूब परीक्षा लेती है। और शांति को किये गए वादे के अनुसार शिव उसे हनीमून पर अंततः ताज महल ले जाता है। ये हुई इनकी प्रेम कहानी।
लेकिन मुझे पसंद आयी फ़िल्म की दूसरी प्रेम कहानियां। शिव और कश्मीर की प्रेम कहानी। शांति और शिकारा की प्रेम। पण्डित व मुस्लिम की प्रेम कहानी।
"एक दिन तुमसे मिलने वापस आउंगा
क्या है दिल में सब कुछ तुम्हे बताऊंगा
कुछ बरसो से टूट गया हूँ
खंडित हूँ
वादी तेरा बेटा हूँ
मैं पण्डित हूँ।
ऐ वादी शहजादी बोलो कैसी हो।"

ये बोल हैं शिव के जब वो 18 साल बाद जम्मू के अपने कैम्प से कश्मीर वापस आता है। कोई अपने आँसू कब नहीं रोक सकता? सम्भवतः जब वो अपने सबसे प्रिय से वर्षों के विरह के बाद मिले। वादियों से गुजरते समय शिव के मन में घूम रहे बोल और आंखों से अविरल बहते आँसू। ये है प्रेम। प्रेम अपनी ज़मीन से। जहँ पैदा हुए, जहाँ पढ़ाई की, जहां दोस्तों संग वो बड़ा हुआ, जहां उसे उसकी शांति मिली, जहाँ उसने कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया और वो मिट्टी उसे जहां का हो के रह जाना था। लेकिन। ये लेकिन इस प्रेम कहानी का वो प्रश्न है जो हमें इतिहास से पूछना है, जो हमें वर्तमान में पूछते रहना है, जो हमें हमेशा अपने समाज से पूछते रहना होगा। क्यों किसी समाज को उसकी पहचान के आधार पर अपनी पहचान गंवानी पड़ती है? इतिहास ऐसे किस्सों से भरा पड़ा है। कश्मीरी पंडितों का उनकी जमीन से विस्थापन इसी इतिहास की कड़ी है। वो समय कितना भयानक रहा होगा इसकी कल्पना करना भी असंभव है हम लोगों के लिए। हम बार बार ऐसे दौरों से गुजरे हैं और बार बार हम सब सभ्यता के स्तर पर एक कदम पीछे खिसके हैं। लेकिन कमी यह रह गयी कि शिव और कश्मीर की प्रेम कहानी के मध्य उपजे विस्थापन जैसे कनफ्लिक्ट को बहुत सतही रूप से दिखाया गया है फ़िल्म में। राजनैतिक कलह से जन्मे सामाजिक उहापोह को काफी ऊपर ऊपर से दिखा के बहुत कुछ लाइन्स के बीच सोंचने के लिए छोड़ दिया गया है। इसीलिए शिव और कश्मीर अमर प्रेमी नहीं बन पाते। उनकी प्रेम कहानी में संवाद है, भावनाएं हैं लेकिन गहराई नहीं है।
कैसा होता है अपनी प्रेमिका पर आग की लपट देखना? एक एक कर उसके करीब आती कुछ आहटें?किसी बाहरी ताक़त के कारण आपका अपने प्रेम से बरसों के लिए बिछड़ जाना, कुछ सालों की जुदाई में उसपर कब्ज़ा जमाये कोई पहचानवाला? कैसा होता है? वही हुआ शांति और शिकारा के बीच। उस शिकारा में जिसकी नींव में उसके पति के मुस्लिम दोस्त के घर के पत्थर हों, जिसके घर में उसके पति की पूरी कमाई लग गयी हो, उसे अपने घर से सजाया हो। इस फ़िल्म की सबसे अच्छी प्रेम कहानी है शांति और शिकारा की। हमारी रूह कांप जाती है जब शिकारा के छत पर आग गिरती है और उसे शांति देखती है, 18 साल बाद किताबों की जगह दूध के कनिस्तर देख के हमें भी अफसोस होता है, और ऐसे कई मौके हैं। इनके बीच की कलह सबसे अधिक समझने योग्य है। शिकारा और मुट्ठी कैम्प के तम्बू के बीच का फर्क ही विस्थापन है, सम्बन्ध विच्छेद है, विरह है। उससे दर्दनाक और कुछ नहीं।
और फिर आती है वो प्रेम कहानी जो अब नफरत में बदल चुकी है। पंडित और मुस्लिम की। कश्मीरी आगे जोड़ा जाना चाहिए। मुझे वर्तमान का पता नहीं लेकिन इतिहास की कलह ऐतिहासिक कलह बनी है। लेकिन शिकायत ये रही कि ये प्रेम कहानी कैसे खराब होती चली गयी। एक धरना। एक मृत्यु। उसके बाद पाकिस्तान के पीएम का भाषण और एक के बाद एक घटते चले गए इवेंट। काफी डराता है लेकिन वो क्या कारण थे कि हालात इतने बिगड़ गए? हमें पता है लेकिन फ़िल्म देखने वाले उन लोगों का क्या जो सिर्फ ये देखने गए थे कि कश्मीर के पत्थरबाज़ों ने कैसे कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाया? भारतीय सरकार से मोह भंग, नाराज़गी के क्या कारण थे? राज्यपाल जगमोहन, मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी का अपहरण, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का बढ़ना और ना जाने कितनी बातें। वो भी सामने आनी चाहिए थी।
एक बात जो और सामने आनी चाहिए थी वो ये कि दो बार रोगनजोश पकने के बाद भी शिव और शान्ति उसका स्वाद क्यों नहीं ले पाते? पता चलना चाहिए।
हाँ मुख्य कलाकार आदिल और सादिया का अभिनय जबरदस्त से भी ऊपर है। दोनों अपने चरित्र में इतने सहज हैं कि लगता है न जाने कितने पुराने और परिपक्व कलाकार हैं वो। विधु विनोद चोपड़ा से इससे बेहतर कहानी लिखी जा सकती थी लेकिन जिस संवेदनशीलता और समझदारी से उन्होंने ये फ़िल्म बनाई है वो सराहनीय है। उन्होंने बताया कि कैसे बिना एक गोली चलाने वाले को दिखाए हिंसा दिखाया जाए कैसे आतंक को दर्शाया जाए। फ़िल्म का फर्स्ट हाफ बेहतरीन है और दूसरा हाफ थोड़ा कमजोर। लेकिन फ़िल्म देखी जानी चाहिए। रोगनजोश जरूर खाइएगा फ़िल्म देखने के बाद।