इतिहास के सौतेले दरिंदे: दंगे।
- अंकित झा
एक एक कर जो अब बढ़ रही हैं वो न्यूज़ में दिखने वाली संख्या मात्र हैं। मनुष्य की मृत्यु का दुर्घटना होना बहुत पुरानी बात हो चुकी है अब। इतने लोग मारे गए हैं। किसने मारा? क्यों मारा? एक कानून के विरोध में? शायद नहीं। कानून का विरोध तो तब ही कुचल दिया गया था जब विरोध में बैठे लोगों को आतंकवादी, देशद्रोही, बिके हुए उपद्रवी कह दिया गया था। तमाम विरोध के बाद भी एक कानून आता है। लोग विरोध जाती रखते हैं, विरोध में छात्र भी भाग लेते हैं, सरकारी पदों से इस्तीफा दिया जाता है, धरनों में शांति की अपील होती है, एक दंगा होता है, पुलिसिया कार्रवाई होती है, लोग मारे जाते है।
क्या कुछ याद नहीं आया? मुझे तो हूबहू याद आया। फरवरी 1919। एक कमिटी बनी। रौलेट कमिटी। एक कानून का प्रस्ताव। अनार्कीकल एंड रेवोल्यूशनरी क्राइम्स एक्ट। तमाम विरोध के बाद भी उसका पास होना। विरोधों का जारी रहना। गाँधी का उदय। फिर पंजाब में खूंखार दंगे। और फिर जलियांवाला बाग़। मृत्यु। मृत शरीरों का ढ़ेर। बस अंतर ये है कि उस दौर में क्रूर ब्रिटिश हम पर राज कर रहे थे, और अब देश के लोगो द्वारा चुनी गई सरकार। गोलियां चलाने वाले उस दौर में भी सरकारी गुंडे थे और इस दौर में भी निस्संदेह वही। कुछ वर्दी में कुछ बिना वर्दी के। राज्य में हिंसा पर अगर सरकार का नियंत्रण नहीं तो फिर वो सरकारी हिंसा है। ऐसी कोई हिंसा नहीं जिसे सरकार रोक ना सके, अगर नहीं रुक रहा है तो दो राय नहीं कि सरकार चाहती है कि हिंसा हो। दिल्ली के मामले में ये दोनों सरकारे हैं। आश्चर्य ये है कि अभी भी दोषी तय किये जा रहे हैं, दोष नहीं।
दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं, हक़ बाँटने वाले बहुत कम। समस्या बाँटने वाले बहुत होते हैं,परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले। इस दंगे के भी यही कुछ परिणाम होंगे यह तय है। इस दंगे की इतिहास में दो सबसे बड़े गुनाहगार होंगे: दिल्ली पुलिस और देश की मेन स्ट्रीम मीडिया। इन दोनों ने दंगे उकसाये या भड़काए नहीं है बल्कि इस बार दंगों में बराबर के हिस्सेदार हैं। बीते कई सालों से मीडिया के न्यूज़रूम और स्टूडियो में हर रोज़ के बार दंगे हुए हैं। खुलेआम वो बातें कहीं गयी जो पहले अकेले में भी बोली नहीं जाती थी। एक एक करके हिंसा व नफरत की पराकाष्ठा के नींव डाले गए ताकि एक दिन ये किया जा सके। मेरा यक़ीन मानिए ये उनकी पराकाष्ठा नहीं है। ये पराकाष्ठा से पहले वाला पायदान है। उनकी पराकाष्ठा कितनी खतरनाक होगी इसकी कल्पना ही हमें हिला देनी चाहिए। आप सबको, हम सबको हिंसा के लिए इतना उत्सुक कर दिया गया कि कई लोग हिंसा में असहाय हैं तो बड़ा तबका हिंसा से खुश।
ये खुशी हमारी सामूहिक हार है।
PS: हाँ, भीषण विद्रोह-हिंसा के तीन साल बाद 1922 में रौलेट कानून को निरस्त कर वापस ले लिए गया था। वो अंग्रेज़ थे। अपने वालों से क्या उम्मीद रखें? देखते हैं इन्हें कानून प्यारा है या नागरिक।