बुधवार, 19 अगस्त 2015

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आँखों से उतर नहीं रहा है मसान
-         अंकित झा 

करीब एक महीने बाद भी आज मसान जस की तस मेरे अंतर्मन में बसा हुआ है. कभी हुआ तो मसान के सभी चरित्र की चर्चा अलग से करेंगे, अभी मसान के बनारस में स्वयं को खो जाने देने का मन कर रहा है, 

एक दोस्त को गले लगाए हुए तीन दोस्तों का रोना अंतरात्मा तक से प्रश्न कर देती है कि क्या ये तुम्हारी कहानी नहीं है? भूजावाले की दूकान पर एक लड़की के फरमाइश से परेशान होते हुए भी आज्ञापालन करते भुजावाले को देख के ऐसा नहीं लगता कि ये आपकी कहानी है?फेसबुक पर अपने प्रेयसी की तस्वीर निहारते आशिक की आँखों में क्या आप अपने आपको नहीं ढूंढते हो? रेलवे टिकट खिड़की के इस पर खड़े होकर टिकट लेने से पूर्व की ज़द्दोज़हद में क्या आप अपना चेहरा नहीं ढूंढते हैं? मसान यही है, 68 रेलगाड़ियों के गुजरने वाला स्टेशन जहां पर गाड़ियां रूकती सिर्फ ६ हैं.  कुछ फिल्मों से हमारा रिश्ता बन जाता है, और कुछ फिल्में हमारे लिए जीवन के संघर्ष से जूझने का तरीका. मसान मेरे लिए दोनों ही तरह की फिल्म है. एक ऐसी विलक्षण कथा जिसे सदा से ही मैं ढूंढता रहा हूँ. यह किसी शहर की कहानी मात्र नहीं है, ये उस शहर में बस रहे व्यक्तियों के आत्मा की प्रस्तुति है, पहले दृश्य की जिज्ञासा से लेकर आखिरी दृश्य की जिज्ञासा के मध्य घटे घटनाक्रम को जिस सहजता से परदे पर उतारा गया, लम्बे समय तक याद रखे जायेंगे फिल्म के निर्देशक और कलाकार. इस फिल्म में कहानी के अतिरिक्त बात करने को बहुत कुछ है, जैसे इससे पूर्व कब किसी फिल्म में रेलवे टिकट घर के अन्दर का दृश्य दिखाया गया था, जहां एक प्रेमी युगल के संवाद से अपना सब कुछ खो चुकी देवी सहसा अपनी ह्रदय की वेदना को जी उठती है और उसके पास बैठे एक आम से कर्मचारी के चरित्र में उन्हें अष्टभुज देवी कह कर संबोधित करता है, ऐसा पिछली बार कब हुआ था? यहाँ पर बनारसी होने का गुमान सर चढ़ के नहीं बोलता, यहाँ बनारस की आब-ओ-हवा दम घोंटती सी दिखती है, कभी अपना सर्वस्व खो चुकी देवी के लिए, कभी प्रपंच में फंसे विद्याधर बाबु के लिए, कभी मासूम प्रेम में जाति  के ज़हर को झेलते प्रेमी युगल शालू और दीपक के लिए. बनारस एक बेड़ी के रूप में विकसित हुआ है इस फिल्म में. छोटा शहर जहां लोग एक-दुसरे को पहचानते हैं, रिश्ता खोजते हैं, प्रश्न करते हैं, मांग करते हैं. मसान का अर्थ शमशान है, बनारस को इच्छाओं तथा प्रेरणाओं के शमशान के रूप में विकसित किया गया है. यहाँ रेल है, पुल है, गंगा है, घाट है, सैलानी हैं, और है संघर्ष इन सब से जूझते उन लोगों का जो इन्हीं के हो चुके हैं. यहाँ गंगा और घाट के मध्य का रिश्ता वो छोटा सा बच्चा प्रस्तुत करता है जिसके खेल पर सभी पैसा लगाते हैं, गंगा में ये भी होता है, आश्चर्य है. झोंटा अपने आप को इस खेल में झोंक देता है जब तक कि हादसे का शिकार नहीं हो जाता है. विद्याधर बाबू की विवशता को बनारस के दृष्टिकोण से देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उनके अन्दर बनारस का समाज बसता है. वो समाज जो शिक्षा के लिए प्रेरित है, वो समाज जिसे मोक्ष की प्रतीक्षा है, वो समाज जिसकी पारिवारिक त्रासदी रही है तथा वो समाज जो सामाजिक प्रपंचों में फंसा हुआ है. भले ही पूरी फिल्म बनारस में घटती है परन्तु फिल्म का अंत इलाहाबाद तय करता है, बनारस के घाट से ऊब कर यह कहानी प्रयाग के संगम की ओर जा रही यात्रा पर समाप्त होती है और हम स्वयं से यह प्रश्न पूछते हैं इस कहानी को ढूँढने प्रयाग जाना कब होगा?

फिल्म में बेवजह विलाप नहीं है, दीपक का परेशान भाई कई प्रश्न समेटे हुए रहता है परन्तु कभी भी उन्हें कह नहीं पाया, दीपक के पिता की आँखों में कल की चिंता है, दीपक समर्पित है, पिता के प्रति, भाई के प्रति, अपने मासूम प्रेम के प्रति. शालू के आँखों की चमक यदि फिल्म के समाप्ति के बाद भी आँखों में बसी नहीं रही तो फिर आप फिल्म देख ही नहीं रहे थे. दीपक तथा शालू के मध्य प्रेम तथा उसकी वाणी बने दुष्यंत कुमार को पुनर्जीवित किया गया है, इस बार क्रांति में नहीं, प्रेम में. “तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ.” किसी भी आशिक के दिल से निकली सबसे अलग उपमान हैं. किसी प्रेमिका की आँखों में जंगल ढूँढने से भी अजीब उपमा और क्या हो सकता है. जीवन को अक्षुण्ण रखने वाले क्षण भी फिल्म में सहजता से प्रस्तुत कर दिए गये हैं, दीपक तथा शालू का एक दुसरे से मिलना संयोग नहीं लगता और ना ही शालू का दीपक के प्रेम को स्वीकार करना. मसान एक प्रेम कथा है, जिज्ञासा तथा विरह के मध्य छिपी. हालाँकि यह एक विशुद्ध प्रेम कहानी नहीं है, परन्तु पहले दृश्य में पियूष को खो देने के बावजूद हम सम्पूर्ण कथा में उसका अवशेष ढूंढते हैं, उसकी उपस्थिति ही कथा में देवी को सम्मान प्रदान करता है. विद्याधर मिश्रा का चरित्र जिस कलम से लिखा गया होगा, वह कलम प्रशंसनीय है. एक खुद्दार मनुष्य का मजबूर होकर एक बच्चे से भी कमाने की कोशिश करना, उनके चरित्र की विवशता से हमारा मिलन करवाता है. विद्याधर के चरित्र की अपनी विशेषताएं हैं, प्रपंच में फंसे एक पिता को उन्होंने जीवित कर दिया है.   प्रशंसनीय है वरुण ग्रोवर के लिखने अंदाज़, उनकी पटकथा ने जीवन को दर्शन की तरह प्रस्तुत किया है. मसान के बारे में सबसे अच्छी बात मैं क्या कह सकता हूँ, यह मुझे ज्ञात नहीं है, शायद यह कि करीब एक महीने बाद भी आज मसान जस की तस मेरे अंतर्मन में बसा हुआ है. कभी हुआ तो मसान के सभी चरित्र की चर्चा अलग से करेंगे, अभी मसान के बनारस में स्वयं को खो जाने देने का मन कर रहा है, हरिश्चंद्र घाट से उठती चिताओं की लौ और चटपटाती आग में स्वयं से प्रश्न पूछने का मन कर रहा है, क्या यही आध्यात्म है? गंगा की धार में प्रवाह हो जाने वाले शालू की अंगूठी में अपने आत्मा को क़ैद करके झोंटा के विद्याधर बाबु के प्रति समर्पण को प्रणाम करना चाहता हूँ. अब सो जाना चाहता हूँ, देवी के स्वप्न में संध्या जी की तरह. शालू के आँखों की गहराई में स्वयं को डुबो देना चाहता हूँ. हो सकता है मसान को वहाँ भुला सकूँ.