शनिवार, 23 मई 2015

फिल्म रिव्यु

धार्मिक अंतर्द्वंद की महान गाथा है मैड मैक्स: फ्यूरी रोड
-         अंकित झा 

ईश्वर को जीवन से प्रेम है, मृत्यु से नहीं. ईश्वर के समकक्ष होना आसान है, ईश्वर बनना असंभव. धर्म तथा कर्तव्य की महीन रेखा पर चलती यह फिल्म अपने अंजाम तक कभी भी उस रेखा को त्यागती नहीं है. यही कारण है कि युद्ध तथा युद्ध का कारण धर्म की नाजुक डोर पर टिकी है. ईश्वर का विरोध हो सकता है, उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं. यह वो समय है जब जल तथा प्राकृतिक गैस की कमी है, एक ईश्वर को इन दोनों की आवश्यकता है, अपना अधिपत्य स्थापित करने हेतु, मृतकों की भीड़ को गिद्ध ही शासित कर सकते हैं.

पूर्ण विनाश के पश्चात का वो भयावह समय. सभी ओर रेत ही रेत. मनुष्यता को चीखती सभ्यता, क्या इससे भयावह भी कोई परिणाम हो सकता है? हर युग में मनुष्य ने अपना अंत स्वयं तय किया है, इस युग में भी हम अग्रसर हैं. अंत के काफी करीब थे हम, फुकुशीमा(जापान सुनामी तथा परमाणु संयंत्र विस्फोट) याद ही होगा, या फिर अंतहीन चल रहे युद्ध. मानव का मानव के विरुद्ध, अकारण. धर्म के लिए, अपनी सभ्यता को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए. ऐसे समय में निर्देशक जॉर्ज मिलर की मैड मैक्स एक आईने की तरह सामने आता है यह दिखाने कि विध्वंश किसे कहते हैं? धर्म किसे कहते हैं? धर्मयुद्ध किसे कहते हैं? सभ्यता किसे कहते हैं? संस्कृति का हास किसे कहते हैं? जल कितना आवश्यक है? रेत कितनी प्रचुरता में है तथा हमारा अंत कितना क्षणिक है? जीवन तथा मृत्यु के बीच के अंतर को क्या कहा जा सकता है? शायद सांसें.
जंजीरों में जकड़ा मैक्स, भागने की जिद्द, अपनी भूत से प्रताड़ित. अंत के पहले का पूर्व. वो समय जब कभी जीवन था, वो बेबस था, किसी को मरने दिया था, अब स्वयं मरने से बचना चाहता है. सबकुछ इतना भावनाशून्य सा प्रतीत होता है कि मानो कभी संस्कृति बसी ही नहीं थी, यह समय है एक भीषण परमाणु युद्ध के बाद का, जब संस्कृति विलुप्त हो गयी है, सर्वनाश के पश्चात्. कुछ लोग ऐसे थे जो बच गये थे, जो बच गये वो बख्से नहीं गये. धर्म मानवीय सभ्यता का परिचायक है, हर युग में धर्म मनुष्य से प्रबल होगा. उस धर्म में एक ईश्वर होगा, जिसे सभी अनश्वर मानेंगे. इस रेट से भरे राज में जहां बड़े बड़े संयंत्र कार्यरत हैं, मानव को यंत्रों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. जहां जल की इतनी कमी है कि लोग मरने मारने को तैयार हैं, और एक शहंशाह है जो अपने राज्य के लोगों को जल की आदत ना डालने का सुझाव देता है. यह शहंशाह कोई मामूली रजा नहीं है वरन उस वीराने का ईश्वर है. “अनश्वर जो” ईश्वर के समकक्ष. लोग उसकी एक झलक के लिए आतुर रहते हैं, उसकी अवज्ञा नहीं की जाती है, चहुँ ओर एक कोलाहल है उस कोलाहल में युद्ध के धर्म का द्योतक है ‘जो’.

मनुष्य को मोह है मोक्ष का. वह जैसे प्राप्त हो, कभी गया और बनारस जा के तो कभी मदीना जा के. उस राज्य में मोक्ष का अर्थ है, ‘अनश्वर जो’ के दर्शन. सेनानी एक दर्शन मात्र के पश्चात वलहाला नाम की जन्नत की तलाश में स्वयं का शारीर त्याग देते हैं, यह समझाना इस समय भी मुश्किल है कि ईश्वर जीवन देता है अथवा लेता है कभी मांगता नहीं है. ईश्वर को जीवन से प्रेम है, मृत्यु से नहीं. ईश्वर के समकक्ष होना आसान है, ईश्वर बनना असंभव. धर्म तथा कर्तव्य की महीन रेखा पर चलती यह फिल्म अपने अंजाम तक कभी भी उस रेखा को त्यागती नहीं है. यही कारण है कि युद्ध तथा युद्ध का कारण धर्म की नाजुक डोर पर टिकी है. ईश्वर का विरोध हो सकता है, उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं. यह वो समय है जब जल तथा प्राकृतिक गैस की कमी है, एक ईश्वर को इन दोनों की आवश्यकता है, अपना अधिपत्य स्थापित करने हेतु, मृतकों की भीड़ को गिद्ध ही शासित कर सकते हैं. इस दौरान विद्रोह का स्वर बुलंद करती है सेनानायक फ्युरिओसा. सबसे भरोसेमंद परन्तु विद्रोह की ज्वाला को वो भडकाती है अक्लमंदी से. इश्वर की कोई कमजोरी नहीं परन्तु मनुष्य की है, सबसे बड़ी है उसकी भावनाएं, उसकी आकांक्षाएं, उसके कल की सोंच, अपने भविष्य की फ़िक्र. फुरिओसा गैस टाउन लूटने के बहाने जो की पाँचों पत्नियों को भगा लेती है जिन्हें उसने अपनी नस्ल बढाने के लिए रखा था. जिसमें से एक गर्भवती भी है. जो को आभास होने पर वह एक युद्ध का एलान करता है अपनी ही सेनानायक के विरूद्ध और यहाँ से शुरू होता है भयावह युद्ध. वो युद्ध जिसमें सत्य व असत्य एक साथ एक ही पक्ष से लड़ रहे होते हैं इंसाफ के विरुद्ध. सत्य हैं वो लड़ाके जो जो में अपना ईश्वर देखते हैं, असत्य है अनश्वर जो. इन्साफ है फुरिओसा. इस सब के मध्य अपनी अत्तेत से जूझता मैक्स, इन सभी द्वंदों से परे एक लड़ाके “नक्स” के लिए रखत की थैली का काम कर रहा है, इस सभी घमासान के मध्य हम देखते हैं, अंधश्रद्धा के वो मंज़र जिसमें लड़ाके एक झलक पा कर कैसे वलहाला की राह को पकड़ लेते हैं, स्वयं को कुर्बान कर के. मृत्यु कभी जीवन नहीं दे सकती, मृत्यु कतई जीवन का पर्याय नहीं हो सकती है. भीषण युद्ध के मध्य पनपता विश्वास तथा अच्छे जीवन की उम्मीद. पाँचों पत्नियों का अपनी श्रीख्लाओं से बाहर निकलने की ख़ुशी, फुरिओसा का संघर्ष तथा मैक्स का अपने अतीत तथा आज से चल रहा अंतहीन युद्ध.

अंधश्रद्धा फिल्म का केंद्र है, जिसे जो की मृत्यु शांत कर देती है, परन्तु इस भय पर समाप्त होती है की कहीं फुरिओसा भी जो ना बन जाए, मनुष्य का अपने संसाधनों पर पूर्ण अधिकार हो इससे श्रेष्ठ प्रशासन और क्या हो सकता है? इश्वर ने संसाधन दिए हैं, उसे कभी अपनी कब्ज़ा में नहीं करेगा. यह फिल्म अपनी  परतों में समाजवाद की गिरहें समेटे  हुए है.  संसाधन, अमीर, गरीब, अंधश्रद्धा, शोषण, विद्रोह तथा संघर्ष. फ्युरिओसा के लिए यह एक धर्मयुद्ध है, मैक्स के लिए अंतर्द्वंद. फिल्म के कलाकारों एन पात्रों को जिया है, मैक्स के किरदार में टॉम हार्डी अपने शरीर से अलग सा जादू पैदा करते हैं, अपनी आँखों से वो अपनी स्थिति, अपने मनोभाव को बखूबी प्रदर्शित करते हैं, खासकर एक्शन दृश्यों में वो अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं. सेनानायक फ्युरिओसा के पात्र को चार्लीज़ थेरोन ने जीवंत कर दिया है, अपने सुन्दर नैन नखस को त्याग कर उन्होंने अलग रूप अपनाया तथा अद्वितीय पात्र निभाया है, जो की किरदार में हुग केय्स-बेअर्न्स प्रभावित करते हैं, तथा उनका भयानक मेकअप तथा पोशाक भय उत्पन्न करता है, निकोलस हंट ने फिर से एक बार बेहतरीन अभिनय किया है, जो की पाँचों पत्नियां फिल्म एं एक मात्र सुन्दर कड़ी हैं, फिल्म की असली जान है इसकी पटकथा जो एक पल भी भटकती नहीं है. इतने भीषण युद्ध तथा नरसंहार को २ घंटे तक लगातार परदे पर उतारने के लिए निर्देशक का धन्यवाद. फिल्म को जिस ढंग से देखिये, यह एक दार्शनिक फिल्म है, कई अर्थों को समेटे हुए. परतें खुलती रहेंगी, 30 वर्षों के बाद भी मिलर नहीं बदले, निखरे अवश्य हैं. उनका मैक्स बदला है, परन्तु अंदाज़ नहीं.