मिथिला के ये नए आशिक कौन हैं?
- अंकित झा
खींचो तलवार और काट दो ज़मीन,
करो हिस्सा फिर बाँट दो ज़मीन।
देखना तलवार से कहीं आरज़ू न कट जाये,
हिस्से की लड़ाई ऐ वीरो! माँ का कलेजा न कट जाये।।।।
अपने अतीत को याद करना कतई गलत नहीं परन्तु एक छोटे से सोंच को जिद्द व उस जिद्द को क्रांति में रूपांतरित करना कतई उचित नहीं है। अत एव, जाति-पर्दा-दहेज़ में डूबे भूमि को पहले धरातल पर लाया जाये फिर उसके ठिकाने के बारे में सोचा जाये।
खींचो तलवार और काट दो ज़मीन,
करो हिस्सा फिर बाँट दो ज़मीन।
देखना तलवार से कहीं आरज़ू न कट जाये,
हिस्से की लड़ाई ऐ वीरो! माँ का कलेजा न कट जाये।।।।
बीते महीने एक फिल्म रिलीज़ हुई थी, आशिकी2। बड़ा सुफ़िअना व रति रस से परिपूर्ण नाम है न। आशिकी चीज़ ही ऐसी है। मेरी भी एक महबूबा है। मातृभूमि। वो पुण्यभूमि जिसका मैं अब तक कटाई ऋणी नहीं बन पाया हूँ। खैर।
बीते कुछ महीनों से फेसबुकिया चौपाल पर कुछ नौजवां, 'मिथिला मैथिलि' नाम के पेज पर कुछ क्रांति लेन की बात कर रहे हैं। कैसी क्रांति? वही क्रांति जिसके थपेड़े अब तक तेलंगाना वालों को लहू लुहान कर रहे है। बात ये है कि एक चुनावी रैली के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री ने उनके इस प्रयास को कि 'बिहार के मिथिला क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा मिल जाना चाहिए' को सराहा था व समर्थन में चंद शब्द कह दिए थे। तब से न जाने क्यों उन्होंने इस बात को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया और आज कल 'सेनुरिया आम', 'विद्यापति धाम', 'मुजफ्फरपुर की लीची' व 'उच्चैठ के देविस्थल' की तस्वीरों को फेस बुक पर डाल कर नित्य परदेस में बसे मिथिलावासियों को लुभाते रहते हैं तो कभी आपत्तिजनक व अश्लील टिप्पणियों वाले आलेखों को प्रकाशित कर विस्थापन व पाश्चात्य संस्कृति को गलियां देते हैं। अक्सर परदेसियों को बुलाने का तरीका कुछ मार्मिक होता है, बीते दिनों की याद दिल जाता है।
मिथिला कोई छोटा क्षेत्र नहीं है, यह बिहार के क्षेत्रफल के करीब 25 से 30 प्रतिशत भूमि पर बसा है तथा झारखण्ड राज्य में भी इसका एक जिला है। हालांकि मिथिला का इतिहास कुछ खोखला सा लगता है क्योंकि मिथिला, 'वेदिहा' साम्राज्य जो राजा जनक के समय था, उस स्थान पर विकसित विकसित हुआ। फिर ये महाराज हर्षवर्धन के राज्य के अंतर्गत आया ततपश्चात् ये बंगाल के नवाब द्वारा जीत लिया गया एवं अंततः इसे बिहार राज्य के अंतर्गत शामिल कर लिया गया। अतः इतिहास के नाम पर मिथिला के पास 'जनक की नगरी' के अलावा और कुछ गौरवमयी नहीं है। परन्तु यदि किंवदतियों की माने तो मिथिला कई अर्थ में प्रख्यात मिलेगा। जैसे सीतामढ़ी जिले में सीता के प्रकट होने की कथा, उच्चैठ में कालीदास के साक्षात् माता काली से साक्षात्कार व उनके ज्ञानोतपर्जन की कथा तथा भगवन शिव का 'उगना' बनकर परम भक्त कवी विद्यापति के यहाँ नौकर का रूप धारण करके आने की कथा इत्यादि। यदि इनपे विश्वास किया जाये तो, मिथिला हिन्दू आस्था का केंद्र बिंदु बन सकता है क्योंकि हिन्दू मान्यता के अनुसार शिव व काली का नाता कतई एक स्थान से नहीं हो सकता।
अब बात रही अलग राज्य बनाने की मांग की, तो यह किस आधार पर बनाया जाये, यह तय कैसे होगा? यह एक कटु सत्य है कि बिहार से सर्वाधिक विस्थापन मिथिला से होता है। दिल्ली के रिक्शावालो, मुंबई के फल-सब्जी वालों व भोपाल के गणित के शिक्षकों से पूछिए, मैथिलि में ही उत्तर मिलेगा। मिथिला में एक रमणीयता है परन्तु उत्तराखंड, हिमाचल व गोवा वाली नहीं, यहाँ धार्मिक स्थल हैं परन्तु महाराष्ट्र व देवभूमि वाली बात नहीं, यहाँ ५ नदियाँ (कमला, कोसी, गंडक, बागमती व पुनपुन) परन्तु पंजाब जैसे व्यवस्था नहीं। अब झूठ क्या बोल जाये अर्थव्यवस्था के चालकों के रूप में भी कुछ नहीं; मधुबनी जिले के बंद पड़े चीनी मील, बरौनी का घटा झेल रहा तेल रिफाइनरी कारखाना व दरभंगा का चिकित्सा उद्योग। ऊपर से विस्थापन का विष।
यदि शहरी व्यवस्था व कृषि की बात न ही की जाये तो ही बेहतर। अतः मिथिला कतई भी एक अलग राज्य बनाने के लिए तैयार नहीं है। न ही साधन है और न ही संसाधन, फिर कैसे एक लगभग दरिद्र भूमि को अलग राज्य बना दिया जाये, केवल कुछ राजनीतिक बहुलताओं के कारण।
मिथिला के ये नए-नवेले दिल्ली-मुंबई-बेगलुरु वासी आशिक इस बात को शायद भूल रहे हैं कि एक नए राज्य की प्रमुख आवश्यकता है- सम्पन्नता, जिससे मिथिला क्या बिहार अभी कोसो दूर है। अपने अतीत को याद करना कतई गलत नहीं परन्तु एक छोटे से सोंच को जिद्द व उस जिद्द को क्रांति में रूपांतरित करना कतई उचित नहीं है। अत एव, जाति-पर्दा-दहेज़ में डूबे भूमि को पहले धरातल पर लाया जाये फिर उसके ठिकाने के बारे में सोचा जाये।
मिथिला के इन नए आशिकों को ये पता होना चाहिए कि 'आशिकी', निभाने की अदा है, जताने या दिखने की नहीं। पहले स्वयं सोंचे कि उन्होंने उस भूमि के लिए क्या किया? फिर तय करें कि मिथिला कहाँ ठहरता है तथा इसके लिए क्या करना है व कब करना है? आँखें नाम हो जाती है, दिल कचोट जाता है, थोड़े भावुक हो जाते हैं, बस उससे अधिक क्या? 'जननि जन्मभूमिश्च स्वर्गाद्यपि गरियसि। परन्तु आज महत्त्व कर्मभूमि की है, जन्मभूमि की नहीं। कई बार गाली-गलौंज हो चुकी है इस विषय पर मेरे और इन आशिकों के बीच. अंततः न ही मैं और न ही वो किसी निष्कर्ष पर पहुँच सके. मिथिला निष्कर्ष की नहीं, संघर्ष की स्थली है. व सदैव रहेगी!!!