शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

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~इस आक्रोश की हद कहाँ तक ~
       -- अंकित झा 
"अब तो उस उंगली पर भी शर्म आती है, जो इन अहेरियों पर उठें, यह चोट मनुष्यता पर है। हर माँ की कोख पर है, जिसने ऐसे बेटें पैदा किये, हर बाप की कमाई पर है, जिसने ऐसे बेटों को पाला और हर बहन की राखी पर है जिसने अपनी रक्षा हेतु ऐसे भाइयों की कलाईयों को राखी से सजाया।"

उस खिड़की से फिर वेदना की करुणामयी आवाज़ आयी है, इस बार और शर्मिंदगी और प्रताड़ना को संग लिए। फिर इस देश की मनुष्यता ताड़-ताड़ हुई है, पुनः एक चीख़, मर्दानिगी के कान फाड़ रही है। इस बार ये सब राजधानी में दरिंदगी, इंसानियत पर भारी पड़ गयी। ऐसी घटनाओं को भाषित कर अपने कलम का अपमान क्यों करूँ? राजधानी में ये कोई बात नहीं है। और न ही उस दिन की ये इकलौती घटना होगी। यहाँ प्रश्न तवज्जो की नहीं है परन्तु प्रश्न हैवानियत की है। ये उन घटनाओं में से है जब किसी मासूम की अस्मिता को ही रुसवा नहीं किया गया वरन समाज के तमाशबीनॉ तथा इसके कुलीन वर्ग की चोली खिसकाई है। इन हर घटनाओं से ये अहेरी और ताकतवर होते जाते हैं, इनके हाथ जिस्म के और नजदीक आ जाते हैं। हर एक घटना देश की बेटियों पर लांछन मढ्ती और बेटों पर उलाहना। ये पितृ सत्ता का ही दुष्परिणाम है कि जहाँ पति परमेश्वर है और पत्नी का स्थान पति के चरणों में। इतने पवित्र क्यों होते हैं ये स्थान? यह आज की बात नहीं है, अनादी काल से चला आ रहा है। भूत को वर्तमान से बेहतर मानता हूँ, यदि भ्रूण हत्या रोककर, ऐसी हत्याएं करना है तो भ्रूण हत्या ही होने दो। जीने दो इन दरिंदों को ही। स्थापित करने दो इन्हें ही अपना अधिपत्य, पर वो जमेगा नहीं। खिलौना बनाकर रख छोड़ा है स्त्रीजाति को, दिल बहलाने का साधन भर बना दिया है। आँखें नम हो जाती है जब कुलीन घर के बेटों को पहले कोठों पर मज़े लुटते देखता था और अब इन्टरनेट पर। प्रकृति के नियमों को अपने पैरों से कुचल-कुचल कर कहीं मिट्टी में मिला दिया और वो मिट्टी तो कब की क्षरित हो गयी होगी। यदि औरत बहती नदी है, जिसकी सीमाएं तय है, उद्गम भी और समाप्ति भी तो फिर मर्दों को रियायत क्यों? क्यों मर्दों को रत्नाकर बना छोड़ा है, जिसके लहरों की कोई सीमा तय नहीं है। जब चाहे उतनी लम्बी लहर मार ले। इन नियमों को भुगत रही है, नयी पीढ़ी। जहां का एक हिस्सा वहसी बन चुका है और एक हिस्सा निर्बल। 
इस घटना ने समूची प्रणाली को झकझोर के रख दिया है। घटना की निंदा सडक से संसद व संसद से समुदायों तक हो रही है। संसद में सभापति, नेता प्रतिपक्ष, पूर्व महिला आयोग की अध्यक्षा, महिला सांसदों इत्यादि सभी ने पुरजोर निंदा की। लगभग 3 दिन से दिल्ली की युवा पीढ़ी सड़क पर उतर आई है, इण्डिया गेट से लेकर मुख्यमंत्री निवास तक हर जगह हाथों में बैनर लिए, चेहरे पर आक्रोश लिए व होठों पर मांग लिए अपना वजूद तलाश रहे थे। एक से बढ़कर एक बैनर, एक से बढ़कर एक हल। कोई कहे शोषण की सजा सिर्फ फांसी है, किसी ने कहा इसका एक ही हल है लड़कों को नामर्द कर दो, किसी ने बीच चौराहे पर मुंह काला करने की बात की तो किसी ने 'इंसाफ का तराजू' का हल बताया, कोई 'मृत्यु तक पीटते रहने' की बात कर रहा था।!!!!!
क्या इन सजाओं से उस पीडिता को कुछ मिलेगा? बिलकुल नहीं सिवाय सुकून के और समाज को एक सन्देश के। आजीवन सजा तो उस लड़की को मिला है जो फिर कभी अच्छे से खा नहीं पायेगी, उन दरिंदों को फंसी भी उसे ठीक कर सकता। फिर क्या सजा मिले? कोई सजा क्या बिगाड़ लेगी उनका और क्या रहत दे देगी उस मासूम को। 
अब तो उस उंगली पर भी शर्म आती है, जो इन अहेरियों पर उठें, यह चोट मनुष्यता पर है। हर माँ की कोख पर है, जिसने ऐसे बेटें पैदा किये, हर बाप की कमाई पर है, जिसने ऐसे बेटों को पाला और हर बहन की राखी पर है जिसने अपनी रक्षा हेतु ऐसे भाइयों की कलाईयों को राखी से सजाया। ये चोट नहीं गाली है, बद्दुआ है। इन राखियों के रेशम की भी वो परवाह नहीं करते, काश एक दिन राखियाँ कलाई पर नहीं बल्कि गले पर बांधी जाये और हर बहन ये भूल कर बैठे। रक्षाबंधन वही होगा। हर दूसरे लड़की की रक्षा हो जाएगी उस कृत्य से। फिर कोई लड़की समाज मेइओन अकेले निकलने से नहीं डरेगी। और राखी की लाश भी रख ली जाएगी।
" ये हो नहीं सकता, मेरा ये आलेख जितनी लडकियां पढ़ेंगी उन सबसे मैं माफ़ी मांगना चाहूँगा, क्योंकि किसी एक के गलती की सजा पूरे कौम को भुगतना पड़ता है। धधकते अंगारों को आँखों में लिए व ज्वाला को दिल में छुपाये आपके सामने नत्मस्तक --
अंकित झा।

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

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सोमवार, 10 दिसंबर 2012

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 Perils of Carols                                                                                               

-Ankit jha
Oh! This defame. If I utter is an abuse, what of my fame? Every day it happens, Now Mr. bond is also on sky fall  & My Bella is breaking Dawn
“Make some noise for desi boyz,1,2,3,4.” Isn’t Pritam smarter enough in welsh , Humbug ! Anu malik was more. What about Lahiri  & Reshamiya ? Full of wedgeds. What do they do ? other than composing chart busters, mmm try to sing , although horrible. Indeed, This world is full of the copycats. What the cat is doing here? How are your rhymes created that you chant on, play on, abuse on, props on, disgrace on, gibes on, repudiate on, rejuvenate on and much more. Its fulcrum sits in tectonic mind, just say A.R. Rehman quoted in a t.v. show that he dreamt  of ‘Khwaja mere Khwaja’, one of his best composition. The opus of a new music comes out of the care of imagination & social scanning .Sneha khandwalkar, the emerging Mozart of desi music attributes that she makes music out of drops of tea in cup to the neighs & bursts in cloud. Her music can touch the sole & even ripple toe to swell of breats. The crucial most part of any commercial Indian movie is delicately arranged, conceived & chanted initially. Then it thrives to the stage of instrumentalisation. Many maestros altogether exalts the new born music (many a time scrabbled from somewhere). This crude is then processed to the lyricist. Based on the various ‘Ragas, Shrutis & Chhands’, a masterpiece is penned down. With the synergy of social happenings, literature, situation, story & stars a full lyrics is written down. Here the prudential of a lyricist is tested. Then it’s the onus of these two to weave a beautiful voice from it, which needs real mozart. Many a times they have to flounce but not now, every time, there are some available. Take, Retake & then various takes finally the final take. Beautiful! After the long agony, a beautiful & new melody is created.                                                                                                                                                              There are various perils of carols. Like, Fan following. Oh! This defames. If any music composer composes some super melody once, it is expected a lot from him. One can not bring out the best every time but trials should always be admired. Albeit debilitation is everywhere, here it must not be scourged. ‘if I utter, this is abuse, then what of my defame’ said once a well known artist on singing many numbers in an year. Every industry faces a downfall but this faces an imaginative & creative downfall. Otherwise Mr. Bond is on a Sky fall & My Bella is breaking dawn again